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अथनामकरणयज्ञ
शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ)-
नाम की व्युत्पत्ति अभिवादनार्थक नम् धातु से होती है। नमति -ते अथवा प्रेरणार्थे नमयति – ते + घञ् वा ड = नाम (अव्यय शब्द)। झुकने वा झुकाने की शक्ति जिस में है, उसे नाम कहते हैं। म्ना अभ्यासे मनति – मेनति धातु से भी नाम शब्द निष्पन्न होता है म्ना + मनिन् = नामन् (नपुं. लिंग) मनायते अभ्यस्यते नम्यते अभिधीयते अर्थोऽनेन वा नामन् + सु= नाम का अर्थ है वचन, कथन, संकेत यश, कोर्ति, ख्याति । बल, शक्ति, प्रभाव। प्रकाश, ज्ञान, धाम। यह मंत्र है…
” यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियम् । ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥”
( ऋग्वेद १/५६/३ ,अथर्व २० /१५/३)
【यहाँ धाम के तीन अर्थ है। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानि । (निघण्टु ९/१/२७ )】
【इसलिये नाम के भी तीन अर्थ हुए धाम, स्थान, जन्म ।】मन्त्र से स्पष्ट है नामेन्द्रियम् = नाम एव इन्द्रियम् = नाम ही इन्द्रिय (बल) है। नाम धाम (शरीर) है। नाम श्रवसे (कीर्तये) अर्थात् यश है नाम ज्योतिः (प्रकाश) है। नाम अकारि (रचना वा सृष्टि) है। नाम हरित (आकर्षण शक्ति सम्पन्न) है। नाम नायसे है (रक्षणार्थ) है। (नय् गतौ + णिच् + असुन + ङे = नायसे) । मन्त्र में यस्य (सूर्य के नाम प्रभाव का उल्लेख है।
नाम में लिंग वचनादि का समावेश होता है। व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि को नाम प्रदान करना ही नामकरण है। नाम क्रियते अनेन इति नामकरणम् (नाम + कृ + ल्युट्)। जातक के लिये नामकरण एक संस्कार है तथा सर्वत्र एक विज्ञान है। नाम के नानार्थों को जानना ही नाम विज्ञान है।
समस्त व्यवहारों का एकमात्र आधार नाम है। इसलिये नामकरण अनिवार्य है। नामकरण को नामन भी कहते हैं। आकार, प्रकार, गुण, जाति शील, धर्म, योग्यता के आधार पर नाम दिया जाता है। नाम कैसा. हो ? मंगल भवन अमंगलहारी नाम गुणयुक्त, विख्यात तथा ज्ञानी महापुरुषों द्वारा परिगीत (प्रशंसित) होना चाहिये। वाक्य है…
” नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मन, ऋषिभिः परिगीतानि । “-(महाभारत शांतिपर्व १४९/१३)
नामकरण के सम्बन्ध में मनु का यह निर्देश है…
” नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् ।
पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ॥
मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम् ।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥
शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमान्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥
स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम् ।
मंगल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत् ॥”
(मनुस्मृति २/३०-३३)
जन्म से दसवें / बारहवें दिन पुण्य (अरिक्ता) तिथि, शुभ मुहूर्त (काल) एवं गुणयुक्त (विहित) नक्षत्र में जातक का नामकरण करवाना चाहिये।
जातक का नाम मंगल सूचक / शर्म (विज्ञान) मूलक, क्षत्रिय का बलप्रद / रक्षाकर, वैश्य का धन एवं – पुष्टियुक्त, शूद्रका जुगुप्स (अप्रशस्य) तथा प्रेष्य (दास) भाव आपन्न होना चाहिये।
स्त्रियों का राम मुखोद्य (प्रिय) अकूर (सौम्य), विस्पषटार्थ (सरल), मनोहर (रम्य), मंगल्य (कल्याण), दीर्घवर्णान्त (आ ई ऊ कारान्त) तथा आशीर्वादात्मक (शुभ एवं शांतिवाचक) होना चाहिये।
स्त्रियों के लिये कौन से नाम वर्जित हैं ? इस विषय में मनु का मत है –
” नर्क्सवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम् ।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नी न च भीषणनामिकाम् ॥”
( मनुस्मृति ३ / ९ )
ऋक्ष (नक्षत्र), वृक्ष (फल फूल पत्रादि), नदी के नाम पर स्त्री का नाम न हो अन्त्य (तुच्छ), पर्वत नाम वाली स्त्री न हो। पक्षी, अहि (सर्प) के नाम पर कन्या का नामकरण न हो। प्रेष्य (दासी) तथा भीषण (भयंकर) नाम वाली कंन्या न हो।
१. सभी हों द्वारा भोगे जाते हैं। इसलिये नवनाम्नी अश्विनी कृतिका रेवती चित्रा आदि कन्या सर्वभोग्या होगी।
२- वृक्ष अचल होते हैं तथा सब को आश्रय देते हैं। इसलिये वृक्षनाम्नी (इमली, शमी, महुवा, मौलश्री आदि) कन्याही एवं बहुभोग्या होती है।
३- फल सभी के द्वारा भक्ष्य हैं। पुष्प सभी के द्वारा उपभोग्य हैं। अतएव फलनाम्नी (केला, अनार, करेला, आँवला आदि) तथा पुष्पनाम्नी (चम्पा, चमेली, केवड़ा, रजनीगन्धा आदि) कन्याएँ सर्वदूषित होती हैं।
४- लता, गुल्म, पर्ण, कली, शाक, वनस्पति, औषधियों के नाम पर कन्या का नाम करण निषिद्ध है। ऐसी खिय भी सर्वग्या एवं क्षणिका होती है।
५-अन्त्यनाम्नी (पिंकी, रुबी, रजिया स्वीटी आदि) कंन्याएं नीच स्वभाव वाली तथा सर्वसंयुक्ता होती हैं।
६. पर्वत कठोर एवं अटल होते हैं इसलिये पर्वतनाम्ना (पार्वती, गिरिजा, अद्रिका, हिमाली आदि) कन्याएँ क्रूर एवं ही होती है।
७.पक्षी उड्डीयमान होते है। अतएव पथिनाम्नी (गौरैया घटका, कोकिला, शुकी, हंसा मयूरी आदि) स्त्रियाँ धावनशील तथा क्षुद्र, पकड़ में न आने वाली वा अनियंत्रित होती हैं।
८- सर्प विषमय होते है तथा अचानक घात करने वाले होते हैं। अतएव अहिनाम्नी (अहिल्या, उरगा, सुरसा, अहिर्बुध्या, विषम्भरा, कद्रू आदि) स्त्रियाँ दुःखदायी होती है।
९. प्रेष्यनाम्नी चरणदासी, मुनिकिकरी, सेवामती, सैरन्ध्री आदि) नारियाँ उदात्त भावों से हीन एवं अनार्ष विचारों की होती हैं।
१०. भीषण चण्डी, चाण्डिका, सिंहिका, आरुषी, दिति आदि) खियाँ सदेव अमिय, भयप्रद तथा अशुभकरा होती है।
स्त्रियों के लिये जो नाम निषिद्ध हैं, उनमें देवी मा (म्मा), बाई/बेन जोड़ देने से वे शोभन मान लिये जाते हैं। जैसे- सरस्वती देवी, रेवती देवी, चम्मा देवी, अनारा देवी, महुवा देवी, कवेरीम्मा, रेवाम्मा, पार्वतीम्मा, अहिल्या बाई, कोकिला बेन, दुर्गाम्मा आदि। उत्तर भारत में देवी, दक्षिण भारत में मा, पश्चिम भारत में बाई / बेन (बहन अर्थ में) का प्रयोग होता है। पुरुष नामों में बती, मती, अंगी, ईश्वरी, श्री, कली, बाला, प्रदा, प्रभा, बल्लभा आदि जोड़ने से स्त्री वाचक नामों की प्राप्ति होती है। जैसे सत्यवती, भानुमती, देवांगी, सिद्धेश्वरी, जयश्री, शिवकली, रामबाला, मधुप्रदा, नुतिश्री, मतिप्रदा, कृष्णवल्लभा आदि।
नामकरण के सन्दर्भ में गृह्यसूत्रों का मत है…
【क】
” नाम चास्मै दद्युः । घोषवदाद्यन्तरन्तः स्थमभिनिष्ठानान्तं द्वयक्षरं चतुरक्षरं वा । युग्मानि त्वेव पुंसाम् । अयुजानि स्त्रीणाम् ।”(आश्वलायन गृहसूत्र १/१५/४-१०)
【 ख】
“दशम्यामुत्थाप्य पिता नाम करोति । द्वयक्षरं चतुरक्षरं वा । घोषवदाद्यन्तः स्वं दीर्घाभिनिष्ठान्तं कृतं कुर्यात् न तद्धितं अयुजाक्षरे -आकारान्तं स्त्रियै ।”
(पारस्कर गृह्यसूत्र १/१७/१-४)
क. नाम च अस्मै दद्युः जातक को नाम देना चाहिये।
घोषवद् -आदि – अन्तः अन्तः थम् अभिनिष्ठा न अन्तम् = आदि और अन्त में घोषवर्ण ( ग घ ङ, जझञ ड ढ ण द ध न ब भ म) तथा अन्तःस्थ वर्ण (य व र ल) हो। अन्त में तथा अभि (भीतर) निष्ठा (क्त, क्तवतु) पद न हों।
द्वि- अक्षरम् चतुः अक्षरम् वा= दो अक्षर वा चार अक्षर का नाम हो।
युग्यानि तु एवं पुंसाम् =पुरुषों नाम युग्मीय (दो पदों वाले) अर्थात् मुख्य नाम एवं उप (जाति बोधक) से युक्त हो।
अयुजानि स्त्रिणाम्= स्त्रियों के नाम अयुग्मीय (एक पद वाले) अर्थात उपनाम विहीन (अजाति) हों।
पुरुषों के युग्म नाम-राम प्रताप, जय शंकर, प्रणव शर्मा, प्रदीप वर्मा, जयन्त गुप्त, विमल दास, शंकर सिंह, प्रफुल्ल यादव, दीप धवन आदि ।
स्त्रियो के अयुज नाम- अम्बिका, सुभद्रा, विमला, जयन्ती, पद्मा, संयोगिता, विद्योत्तमा, ललिता, शिखा, सुलोचना आदि ।
ख- दशम्याम् उत्थाप्य पिता नाम करोति= जन्म से दसवाँ दिन आने पर पिता नवजात का नाम करण संस्कार करता है।
द्वि-यक्षरं चतुरक्षरं वा= दो अक्षर (राम श्याम कृष्ण सभा प्रिया जया आदि ) वाला नाम अथवा चार अक्षर (रमापति, चन्द्रदेव वीरसिंह भानुदत्त, कलावती, मधुमती शशिकला आदि) वाला नाम रखना समीचीन है।
घोषवद् आदि अन्तः स्वं दीर्घ अभि निष्ठा न अन्तं कृतं कुर्यात् तद् धितम् = घोषसंज्ञक वर्णों एवं अन्तः स्य वर्णों से युक्त दीर्घ स्वरान्त नाम रखे तथा कृदन्त एवं तद्धित प्रत्ययान्त नाम न हो ।
अयुजाक्षरम् आकारान्तम् (नाम) स्त्रियै=स्त्रियों के नाम विषमाक्षर (माधुरी, कमला, सुगन्धी शिवानी आदि) एवं आकारान्त (ललिता अपराजिता, शिवालिका, सुस्मिता, आदि) होने चाहिये।
नाम जातक के अनुरूप हो, हास्यास्पद वा विगुणात्मक न हों। जैसे आँख के अन्धे नाम नयनसुख, नाम चीनीप्रसाद लज्जत चोटे की भी नहीं, टका से भेंट नहीं नाम हजारी प्रसाद पास में कौड़ी नहीं नाम लक्खीराम लखपति), भाग्य की मारी नाम भगवती, बुद्धि से पैदल नाम है बुधिया, दुख में डूबी नाम है सुखिया ।
देवी- देवताओं के नामों में दत्त, प्रसाद, चरण, शरण, आश्रय, आधार, ईश, इन्द्र, लाल, पाल, पति, प्रताप, वन्त, जीव, कुमार, स्वरूप, राज, राय, कान्त, प्रिय, नाथ, आनन्द आदि लगाने से भक्ति एवं गौरव झलकता है। जैसे विष्णुदत्त, शिवप्रसाद, देवी चरण, अम्बिका शरण, कृष्णाश्रय, रामाधार, जगदीश, सुरेन्द्र, प्रभुलाल सूर्यपाल उमापति, रविप्रताप बलवन्त, सत्यजीत, अषिकुमार, देवस्वरूप, भक्तराज नादरा, कमलाकान्त, मोक्षप्रिय, मुक्तिनाथ, अभयानन्द आदि ।
पुरुषों के युगल नामों की एक सुष्ठु परम्परा है। यथा गौरीशंकर, सीताराम, जानकीनाथ, गिरिजापति, उमेश्वर, लक्षमीनारायण, श्रीहरि, शचीन्द्र, राधाकृष्ण, सिद्धिविनायक आदि। ये देवदेवी वाचक संयुक्त नाम अर्धनारीश्वर तत्व के पर्याय है। इनमें मृदुता एवं कठोरता का समसमावेश है। इससे व्यक्तित्व बहुआयामी एवं परिपूर्ण होता है।
नामकरण की भाषा संस्कृत होनी चाहिये। संस्कृत संस्कारित भाषा है। नामकरण संस्कार है। संस्कृत के बिना संस्कार कहाँ ?
संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है। अपनी मातृभाषा में नाम रखना चाहिये। स्वभाषा सुखावहः परभाषा दुःखावहः । भारत की मिट्टी से उत्पन्न सभी भाषाएँ एवं बोलियाँ संसकृतज हैं। हिन्दी, पंजाबी, कश्मीरी, असमी, उड़िया, बंगाली, नेपाली, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगू, कन्नड, मलयालम में संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत भाषा हमारी संस्कृति, सभ्यता एवं शक्ति को वाहक एवं द्योतक है। नाम में संस्कृत का स्पर्श होना ही चाहिये। संस्कृत नाम देना, आत्मा का केतन है, परम्परा का पोषण है, राष्ट्र का गौरव है, सभ्यता का सौरभ है, संस्कृति का सम्मान है। अपनी मातृभाषा की अवहेलना कर विदशी भाषा में नाम रखना आत्महत्या है, सांस्कृतिक पाप है, सभ्यता का कलंक है, हीनभावना का द्योतक है, दुर्विचारों का जनन है। जो लोग अपनी मातृभाषा में नामकरण करते हैं, वे धन्य हैं तथा जो नहीं करते वे अज्ञ वा भ्रष्ट हैं।
नक्षत्रचरणाक्षरों से नामकरण की एक ज्योतिषीय पद्धति है। यह प्रामाणिक नहीं है, सर्वमान्य भी नहीं है। इन में सब से बड़ा दोष यह है कि इस में ङ ण से कोई शब्द (नाम) नहीं बनता ।
नाम का मनुष्य के आचरण पर प्रभाव पड़ता है। इस लिये विवेक पूर्वक सोच समझ कर नाम रखना चाहिये। कहा गया है- यथा नाम तथा गुण नाम में मधुरता, नम्रता, शालीनता एवं ऐश्वर्यता की झलक होनी चाहिये। नाम से व्यक्ति की विचारधारा, परम्परा आचार एवं शील का पता चलता है। नाम व्यक्तित्व का दर्पण है। नाम अमर है, क्यों कि व्यक्ति के न रहने पर भी नाम रहता है। पितरों को हम उनके नाम से आवाहित करते हैं।
नाम के साथ गोत्र भी जुड़ा रहता है। संकल्प लेते समय सगोत्र नाम का कथन होता है। नाम के साथ उपनाम (उपाधि) लगाने की प्रथा है। ये उपधियों वर्ण, जाति, उपजाति, स्थान, गोत्र, व्यवसाय, योग्यता, सम्प्रदाय से सम्बन्धित होती हैं। वर्ण- शर्मा, वर्मा, गुप्त जाति-सिंह, यादव, निषाद्। उपजाति-द्विवेदी, पाण्डेय, शुक्ल स्थान- गोरखपुरी, कोल्हापुरी। देहलवी … गोत्र पाराशर, गौतम, कौशिक व्यवसाय कुमभकार, चर्मकार, स्वर्णकार। योग्यता- शास्त्री, मुनि, व्यास, विशारद । सम्प्रदाय- दास, आनन्द, पुरी, सरस्वती, अरण्य, पर्वत, आश्रम, तीर्थ, स्वामी, आचार्य, नाथ अपने नाम के आगे भक्तिमार्गी दास, ज्ञानमार्गी आनन्द, नगरनिवासी पुरी, वेदों के पारंगत विद्वान् सरस्वती, जंगलवासी अरण्य, पहाड़ों पर रहने वाले पर्वत, मठों में रहने वाले आश्रम, पुण्य नदीतटों पर रहने वाले तीर्थ, दण्ड धारण करने वाले संन्यासी स्वामी, शास्त्रीय विषयों पर प्रवचन करने वाले आचार्य, हठयोग का अनुसरण करने वाले नाथ आदि शब्द जोड़ने वाले ये साधु विभिन्न धार्मिक अखाड़ों से सम्बन्ध रखते हैं। नाम से इन की पहचान होती है। जैसे जानकीदास, राम दास, विज्ञानानन्द, सेवापुरी, दयानन्द सरस्वती, विद्यारण्य, शिवशरण पर्वत, कृष्णाश्रम, मोहन तीर्थ, नरेन्द्र स्वामी, शंकराचार्य, गोरखनाथ । नाम से ही प्र-मान मिलता है। अतः नाम रखने में सावधान रहना चाहिये। संस्कृत का शब्द भण्डार विपुल है। इसलिये नाम चुनने में कठिनाई नहीं होती। नाम में नव्यता से आकर्षण उत्पन्न होता है, अजुता से उच्चारण में सरलता होती है। नाम के जितने अधिक आयाम संस्कृत में हैं, उतने अन्य किसी भी भाषा में नहीं है। संस्कृत तो सहस्रनामों की भाषा है।
विदेशी भाषाएँ भी संस्कृत है, संस्कृतगर्भित है, संस्कृत की विकृति है इन में संस्कृत की प्रविष्टि है। पश्चिम के मूर्धन्य विद्वानों ने इस तथ्य को मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। संस्कृत की गहराई में उतरने पर संस्कृत के महत्व का बोध होता है। वस्तुतः जानने योग्य सर्वज्ञानमयी भाषा संस्कृत ही है। उदाहरणार्थ, नाम के रूप में प्रयुक्त होने वाले अरबी, फारसी, इंगलिश के कुछ शब्दों के संस्कृतत्व को यहाँ देखा जा सकता है। मोहम्मद-मोहंच मदं च यस्मिन् स मोहम्मदः । मोह और मद से युक्त व्यक्ति को मोहम्मद कहा जाता है। अहमद अहः (दिन) + मदः = अहनः मदः = दिन (ज्ञान) का मद है जिसे अपने को ज्ञानी समझने वाला अहमद कहलाता है। अथवा अहम् + अदः = अहमदः नाम अनहंकारी, विनम्र व्यक्ति का । फरीद-फल ईदच् फरीद, रलयोरभेदः । सफल वा सिद्ध पुरुष को फरीद कहते हैं।
डेविड्-दे (व) विद्। जो देव (ईश्वर) को जानता है, वह डेविड् है। जानसन- ज्ञान + सन (सन् सनति, सनोति सनुते + अच्)। ज्ञानग्राहक एवं ज्ञानदाता वा ज्ञानपिपासु एवं ज्ञानी को जानसन कहा जाता है। जेजस क्रिस्ट – ज्यायस् (ज्या जिनाति + ईयसुन) + कृष्ट (कृष कर्षति + तन्) महत्तर एवं आकर्षक वा भव्य महात्मा को जेजस् किस्ट कहते हैं। स्पष्ट है संस्कृत एवं विदेशी भाषा के शब्दों में वही अन्तर है। जो ताजे फलों के रस एवं उससे निर्मित शराब में होता है। संस्कृत में सुगन्ध एवं स्वाद है तो विदेशी भाषा में दुर्गन्ध एवं नशा सभी भाषाओं पर संस्कृत का वर्चस्व है। अमित शब्द सम्पदा वाली ऐसी महान संस्कृत भाषा में नाम न रख कर विधर्मी विदेशी भाषा में नामकरण करना, कराना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ?
नामकरण एक यज्ञ है जिसमें नाम दिया जाता है। जातक का एक नाम होता है, परमात्मा के अनेक नाम हैं। समवेत रूप में सभी जातकों के नाम परमदेव के ही नाम हैं। अषियों ने परमसत्ता का नानाविध नामकरण किया है। इन्हीं नामों में से कोई एक नाम जातक का होता है। ईश्वर का प्रत्येक नाम सुन्दर है। “चारुदेवस्य नाम । “( ऋग्वेद १/२४/१ ।)
देवस्य (ईशस्य) नाम चारुः = ईश का नाम मनोरम है। इस लिये जातक का नाम भी सुन्दर होना चाहिये। नामन क्रिया के समय नामदाता (पिता) निम्नांकित मन्त्र का उच्चार/पाठ/गान करे अथवा इस मन्त्र के भावार्थ का चिन्तन करे…
“नामानि ते शतक्रतो विश्वाभिर् गीर्भिरीमहे ।
इन्द्राभिमाति षाह्ये।।’
(अथर्व २०/१९/३)
देव ! आप शतक्रतु (अनन्तकर्मा) है पाया (बलशाली है, इन्द (स्वामी) हैं हे शतक्रतो हे पाछे । हे इन्द्रः । आप बाह्य एवं अन्तर्जगत् का नित्य अभिमापन (संरक्षण) करते रहते हैं। सम्पूर्ण स्तुतियों / वाक्यों द्वारा हम आपके नामों का कीर्तन करते हैं।
नाम = न + आम (आ + अम् कर्मणि घञ् आम्यते ईषत् पच्यते)। न अपक्वः, न रोगः शोको वा नाम। जो कच्चा (विकृत होने वाला) नहीं है अथवा जिसमें रोग वा शोक का अभाव है, वह नाम है। अर्थात् नाम = पावक, पावन, अरोग, अशोक, अमल नामी मिट जाता है, नाम रहता है। इसलिये नाम अविनाशी है। नाम वही सार्थक है, जिससे अभ्युदय हो, जो प्रकाश करे, अमरत्व दे। नाम से जातक धन्य होता है तो जातक से नाम कृतार्थ होता है। अतएव, नाम्ने नमः । नामिने नमः ॥
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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Good informative article