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नाथ-पन्थीय तत्त्व-ज्ञान
श्री अनिल गोविन्द बोकील
(नाथसंप्रदाय मे पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग मे काली कुल मे पूर्णाभिषिक्त के बाद साम्राज्याभिषिक्त।)-
mystic power – निवेदन : ‘शाबर – मन्त्र – संग्रह’, ७ वें तथा ६ वें भागों में कुछ गोपनय साधनाएँ रहस्यों – सहित दी गई हैं। साथ ही कुछ विशेष बातों का विस्तृत विवरण है। इस भाग में ‘नाथ-पन्थ’ का तत्त्व-ज्ञान, गुरुदेव परम पूज्य १००५ श्री योगेन्द्रनाथ जी की कृपा से प्रस्तुत है। तत्त्वों को समझ कर साधना करना शीघ्र फल-प्रद होता है। अतः पाठक बन्धु इस पर अवश्य मनन करें।
नव-नाथों के पूर्व-काल में सांख्य-मार्ग, कौल-मार्ग; कापालिक-मार्ग आदि अनेक़ मार्ग प्रचलित ये। उसके बाद श्री शंकराचार्य जी ने महत्त्व-पूर्ण “अद्वैत तत्व-ज्ञान” प्रस्तुत किया । इन्हीं तत्त्व – विचारों को अपना कर कुछ अलग ढंग से श्रीगोरक्षनाथ जी ने “द्वैताद्वैत-विलक्षण” के नाम से तत्त्व-प्रतिपादन किया है।
नाथ-पन्थीय तत्त्व-ज्ञान में “शिव-शक्ति” का विवेचन प्रधान है। “शक्ति-युक्त शिव” ही नाथ-पन्थ का अन्तिम सत्य है । यह तत्त्व स्वयं-
प्रकाशी, स्व-संवेद्य, अविनाशी, अनन्त तथा व्यक्ताब्यक्त-विवर्जित है । इसमें “शक्ति” – तत्त्व “शिव – तत्त्व” से अलग कदापि नहीं है। जिस प्रकार कपूर व सुगन्ध, शक्कर व मीठेपन आदि का एक दूसरे से अलग विचार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार इन तत्त्वों की अभिन्नता जानें। आगे रूपकात्मकता से विवेचन इस प्रकार है कि शिव ने शक्ति – द्वारा चराचर – सृष्टि का खेल शुरू किया। इसी को श्रीगोरक्षनाथ जी “शिव की आत्म – रति” नाम से सम्बोधित करते हैं। जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में है-ऐसा भी उनका सिद्धान्त है।
इसी के अनुसार ब्रह्माण्ड की शक्ति “कुण्डलिनी” के रूप में हमारे पिण्ड में भी कार्य-रत है। इसका स्थान है-मूलाधार-चक्र तथा शिव हैं हमारे ‘सह्स्र्रार-चक्र’ में । इन दोनों का मिलाप “शिव-शक्ति-साम-रस्य” कहलाता है। ऐसी अवस्था ही “परमानन्द-मय सहज समाधि” है । यह स्वयं-सिद्ध समाधि है। यह न लगाई जाती है, न उतारी जाती है। शैव – सिद्धान्त इसे ही ‘जीव-शिव-मिलन’ कहता है, परन्तु इसमें जो शिव की शक्ति है, वह सांख्यों की प्रकृति कदापि नहीं है–यह बात ध्यान में रखें।
शैव तथा शाक्तों का झुकाव ‘जीव’ की ओर है और श्रीशंकराचार्य जी का तात्त्विक दृष्टिकोण पारमार्थिकता की ओर है। ‘नाथ-पन्थ’ ने भी यही स्वीकार कर देह को भी महत्त्व-पूर्ण माना है। शिव की शक्ति ‘कुण्डलिनी’ हैं- ऐसा सर्वथा भिन्न विचार ‘नाथ-पन्थ’ में किया है । वेदों में वर्णित ब्रह्मा की शक्ति ‘माया’ कुण्डलिनी नहीं है-
यह महत्त्व – पूर्ण विचार नाथों ने हमारे सामने रखा है।यह ‘शिव- शक्ति’ ही चित्-शक्ति, चिद-रूपिणी, अनन्त-रूपा, जगदम्बा आदि नामों से ‘नाथ-पन्थ’ में सुविखयात है। इसी के सहारे शिव सृष्टि-नियन्त्रण में समर्थ होते हैं। यह शक्ति धीरे – धीरे सूक्ष्म हो जाती है। इसी का स्फुरण ‘सदा-शिव’ है । सृष्टि-ब्यापार-हेतु सदा-शिव अहन्तावस्था को प्राप्त होते हैं। वही ५ प्रकार का आनन्द है–१ परमानन्द, २ प्रबोध, 3 चिद्रम, ४ प्रकाश तथा ५ सो5हं । इस आनन्द में से ही जीव-रूप की धारणा होती है। पहले पिण्ड, फिर आद्य-पिण्ड, साकार-पिण्ड, महा- साकार-पिण्ड, प्राकृत – पिण्ड ओर अन्त में गर्भ – पिण्ड- इस क्रम से स्थूल होते-होते शरीर-धारणा हो जाती है। यह ‘नाथ – पन्थी तत्त्व-ज्ञान! श्रुति से अलग नहीं है। आनन्द से जीव उत्पन्न होता है- उसी में रहता है-उसी में वापस जाता है-यह श्रुति-सिद्धान्त ‘नाथ-पन्थ’ में ज्यों-का-त्यों स्वीकार किया जाता है।
सत्त्व-रज-तम की साम्यावस्था में प्रकृति द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है- यह ‘सांख्य’-सिद्धान्त है। उसके अनुसार ऐन्द्रिय सृष्टि के ११ व निरिन्द्रिय सृष्टि के ५ सूक्ष्म तत्त्व हैं। श्रीशदूराचार्य जी तथा “गीता’ के अनुसार स्थूल व सूक्ष्म मिलाकर कुट ३६ तत्त्व हैं। श्री गोर॑क्षनाथ जी भी यही स्वीकार करते हैं। इन्द्रिय – गम्य जगत् का अधिष्ठान ‘ब्रह्म’ है । यहां तक हम जान सकते हैं, लेकिन अनन्त काल से सप्त – जगों का निर्माण किस तरह हुआ-यह तक द्वारा जानना असम्भव है। ऐसा श्री शंकराचार्य जी का कथन है।जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि “नाथ – सम्प्रदाय द्वेताद्वैत-विलक्षण’ है अर्थात् द्वैत व अद्वेत से परे है। ‘संख्या’ को केवल उपाधि मानकर उसके बाद के अखण्ड ज्ञान-रूपी “निरज्जन’ तत्त्व का ‘नाथ-पर्थ’ पुरस्कार करता है। शक्ति-विस्फोट से जगत् प्रतीत होने लगता है। अतः शक्ति ‘कर्ता’ है। ‘शिव’ ज्ञेय सृष्टि का “आदि – तत्त्व’ है। शिव-शक्ति निर्वाहिका है। फिर भी वह “उपास्या’ इसीलिए है कि उसके बिना जगत् का निर्माण असम्भव है। “नाथ – पंथ’ के अनुसार “शक्ति’ चेतन ही है। केवल व्यवहार की सुविधा – हेतु उसका अलग विचार करना है क्योंकि ‘शिव” गुणातीत हैं, परातीत हैं। उनके स्वरूप का निर्धारण करना सम्भव नहीं। उपासना-हेतु सदा – शिव” स्वीकार्य नहीं हैं। अत: उनसे अभिन्न (फिर भी सुविधा के लिए भिन्न समझ कर) ‘शक्ति’ ही उपास्या हो सकती है। इसी से ‘परम – शिव’ का ज्ञान होता है।
(विशेष : सभी शक्ति-साधनाएँ उक्त सूक्ष्म तत्त्व को ध्यान में रखते हुए ही करनी चाहिए।)
“शक्ति-उपासना का साधन हमारा शरीर है। उसके १६ आधार,२ लक्ष्य, ५ ब्योम आदि का ज्ञान होने पर ही सिद्धि सम्भव है। दूसरे शब्दों में-सहज समाधि द्वारा मन से ही मन को जानना’-इस अवस्था को मोक्ष कहते हैं। इस विवेव॒त से स्पष्ट है कि शाक्तों का तन्त्र ‘नाथ-सम्प्रदाय’ ने अधिक व्यापक रूप में स्वीकार किया है।
बौद्धों के ‘शून्य’ के बजाय नव-नाथों ने ‘शिव-शक्ति-ज्योति’ का प्रति- पादन किया है । द्वैत-मत के क्रिया-ब्रह्म तथा अद्वेत – मत के निष्क्रिय ब्रह्म आदि से ‘नाथ-तत्त्व’ इस प्रकार भिन्न है, व्यापक भी है क्योंकि यह निरुषाधिक, अवाच्य, चित्-स्वभावी माना गया है। इसी के अनुसार शिव ही शक्ति – युक्त होकर स्फुरित होता है। यह जगत् चित्-शक्ति के विकास और विलास का ही परिणाम है। इस प्रकार सभी ‘नाथ-सिद्धान्त’ तत्त्व-सपेक्ष हैं, व्यक्ति-सपेक्ष नहीं ।
‘नाथ-पन्थ’ की ‘हठ-योग-साधना’ भी स्वतन्त्र तथा मन्त्र-शुद्ध है। उस युग में योग-साधना के अन्तर्गत ‘हठ-योग’ के तन्त्र शुद्ध वैचारिक शोध का प्रत्यक्षीकरण करनेवाला एकमात्र पंथ ‘नाथसाधना का सम्बन्ध ‘अवधूत’-साधना से है। द्वैत, अद्वेत, विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वेत आदि सभी का ऐक्य-समन्वय जिस ‘नाथ – ब्रह्म’ में होता है, वही ‘नाथ-पंथीय अवधूत-सिद्धान्त’ है। श्रीदत्तात्रेय जी को नवननाथ ‘गुरु’ कहते हैं-इसका रहस्य यही है कि ‘हठ – योग’ के गूड़ विधान
इस त्रिगुणात्मक शक्ति के ही हैं।
प्रत्येक शक्ति की साधना-पद्धति ‘ताथ – पन्च’ में है। श्रीदत्तात्रेय यने ब्रह्मा-विष्णु-महेश का एकीकरण । इस त्रिदेव-मूर्ति से ब्रह्म्म द्वारा ज्ञान-साधना, विष्णु से भक्ति, और शिव से योग-साधना “नव – नाथों’ ने ली है। उस युग में तंत्र-विद्या की कुछ निम्न श्रेणी की साधनाएँ बहुत अधिक प्रचलित थीं । इन्हीं का संस्करण नव-नाथों ने किया है।
शाक्त – मतानुसार सर्वे – श्रेष्ठ ‘कौलाचार’ में वर्णित ज्ञान को भी स्वीकार कर लिया गया है क्योंकि इसमें शिव का शक्ति के साथ सम्बन्ध है तथा यह आचार पूर्णतः सत्कार्यों से भरपूर है।
श्री जालन्धरनाथ जी ने कापालिक तत्त्वों के सभी सुसंस्कृत अंश ग्रहण कर, अपनी साधना में समाविष्ट किए हैं। इसके क्रूरता – पूर्ण अंशों को अहिंसा का बौद्धिक अधिष्ठान देकर, योग-साधना द्वारा यही तत्त्व-ज्ञान उन्होंने शक्ति-रूप में प्रस्तुत किया है । यह अत्यन्त महत्त्व-पूर्ण व कठिन कार्य था। उन्होंने ‘शिव-साधना’ में ‘शक्ति – उपासना/ अन्तर्भूत की है। कापालिकों के क्रूर आचारों का संस्करण करने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया है।
“नाथ-सम्प्रदाय’ में मत्स्येन्द्रनाथ जी व गोरक्षनाथ जी की ‘कौल-साधना’ तथा श्री जालन्धरनाथ जी की ‘कापालिक साधना’—दोनों प्रकार दिखाई देते हैं। एक ने शाक्त-मत-वादियों को अपनाया है और दूसरे ने शक्ति-उपासकों को । पञ्चमकार साधना के गूढ़ार्थ का शास्त्र-शुद्ध विचारों से विवरण तथा तन्त्र-दृष्टि से प्रत्यक्षीकरण ‘नाथ-पन्थ’ में है। शरीर – त्याग के बाद की मुक्ति के बजाय नाथ – प्रणीत साधना द्वारा देह में रहते हुए ही मुक्ति पाने का मार्ग ‘नाथ’ बताते हैं। मोक्ष या मुक्ति मरणोत्तर प्राप्त होनेवाली ‘गति’ ( सदुगति ) नहीं-सम्प्रदाय’ है।
श्री जालन्धरनाथ जी की कथा से इसे जाना जा सकता हैं। इस है, अपितु सभी कर्म करते हुए अनुभव करने की “स्थिति’ है — यह “नाथ-पन्थीय’ दृष्टिकोण सचमुच व्यवहार्य तथा अपने आप में अन्यतम है। नाथों के सभी सिद्धान्त कर्म-व्यापी हैं, कर्मठ नहीं । यह बात अति महत्त्व-पूर्ण है ।
‘सांख्य’ २४ तत्त्वों का है और नाथ २५ तत्त्व मानते हैं. अर्थात् “ईश्वर’ का स्वतन्त्र विचार इसमें है। “सांख्य’ त्रिगुणात्मक प्रकृति को जगत् का कारण बताते हैं, किन्तु ‘नाथ’ इसके साथ ही ईश्वर को भी प्रेरक रूप में स्वीकार करते हैं। ‘नाथ-पंथीय एक और सिद्धान्त’ है- पिण्ड से पिण्ड का ग्रास करना। “श्रीगोरक्ष-पद्धति’ कहती है ‘कि ‘कुण्डलिनी’ ही “अजपा गायत्री’ है। यही ‘महा-विद्या’ है। इसी से जीव-शिव-सामरस्य-सिद्धि की प्राप्ति होती है। यह चर्चा की नही प्रत्यक्षानुभूति की बात हैं। ऐसी अनुभूति केवल ग्रुरु ही दे सकते हैं।
इसी से ‘नाथ-पन्थ’ में गुरु-तत्त्व ईश्वर से भी श्रेष्ठ है।
“नाथ – पंथीय’ तत्वों का अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया गया है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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