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पराक्रमी वाल्मीकि जाति
डॉ. निशांत सिंह –
हमारे देश में एक जाति ऐसी भी है जिसने हमेशा सनातन धर्म की रक्षा की, जो मुगलों से भी भिड़े और जिन्होंने आज़ादी की जंग में भी अपनी वीरता का लोहा मनवा दिया लेकिन आज वही शूरवीर जाति, अछूत का बिल्ला अपने सीने पर टांगे समाज में उपेक्षित है।
जी हां, हम बात कर रहे हैं वाल्मीकि यानी मेहतर जाति की।
वाल्मीकि हिन्दू सनातन धर्म को मानने वाली एक जाति है जो दलित समुदाय के अंतर्गत आती है। इनका पारम्परिक काम मल-मूत्र को साफ करना और अन्य सफाई कार्य करना रहा है।
वाल्मीकि नाम महर्षि वाल्मीकि से लिया गया है जिन्हें ये समुदाय अपना गुरू मानता है। वाल्मीकि समुदाय के लोग भगवान वाल्मीकि जी को ईश्वर का अवतार मानते हैं तथा उनके द्वारा रचित श्रीमद रामायण तथा योगवासिष्ठ को पवित्र ग्रन्थ मानते हैं।
ऋषि परंपरा में सर्वाधिक प्रसिद्ध आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी। यह विडंबना ही है कि महर्षि वाल्मीकि को अपना मानने वाला और खुद को उनके नाम से संबोधित करने वाला ‘वाल्मीकि समुदाय’ आज समाज में हाशिये पर पड़ा है।
अपने महाकाव्य “रामायण” में महर्षि वाल्मीकि ने अनेक घटनाओं के समय, सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे। रामायण में भगवान वाल्मीकि ने 24 हज़ार श्लोकों में श्रीराम उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी। अपने वनवास काल के दौरान भगवान”श्रीराम” वाल्मीकि के आश्रम में भी गये थे।
एक सोची-समझी साजिश के तहत वाल्मीकियों के इतिहास को नजर अंदाज कर दिया गया। आजादी के आंदोलन में भी यही हुआ है. कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों ने वाल्मिकियों के योगदान को नजर अंदाज कर इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया।
1857 की क्रांति को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है. भारतीय इतिहासकारों द्वारा इस पूरी क्रांति का श्रेय मंगल पांडे को दिया जाता है, लेकिन असल में इस क्रांति के सूत्रधार मातादीन भंगी थे. माना जाता है कि मातादीन भंगी मूलतः मेरठ के रहने वाले थे. लेकिन रोजी-रोटी के लिए इनके पूर्वज बंगाल में जाकर बस गए. शीघ्र ही मातीदीन को बैरकपुर कारतूस फैक्ट्री में खलासी की नौकरी मिल गई. यहां अंग्रेज सेना के सिपाहियों के लिए कारतूस बनाए जाते थे।
मातादीन और मंगल पाण्डे छावनी में दोस्त थे। मातादीन ने ही मंगल पांडे को बताया था कि तुम जिन कारतूसों को दांत से खोलते हो उनमें गाए और सुअर की चर्बी का इस्तेमाल होता है। धीरे धीरे ये बात एक बटालियन से दूसरी बटालियन, एक छावनी से दूसरी छावनी तक फैलती चली गई. मातादीन के शब्दों ने ही सेना में विद्रोह की स्थिति बना दी. 1 मार्च, 1857 को मंगल पाण्डे परेड मैदान में लाईन से बाहर निकल आये और उन्होंने एक अधिकारी को गोली मार दी. इसके बाद विद्रोह बढ़ता चला गया. मातादीन और मंगल पाण्डे को फांसी पर लटका दिया गया.
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाले बल्लू मेहतर को भी इतिहासकारों ने भुला दिया. उन्होंने आजादी के लिए न केवल फिरंगियों से टक्कर ली बल्कि देश की आन-बान और शान के लिए कुर्बान हो गए. क्रांति का बिगुल बजते ही देशभक्त बल्लू मेहतर भी 26 मई 1857 को एटा के सोरों की क्रांति में कूद पड़े. फिरंगियों ने बल्लू मेहतर को पेड़ में बांधकर गोलियों से उड़ा दिया।
दलित समाज की महाबीरी देवी भंगी को तो आज भी बहुत कम लोग जानते हैं. मुजफ्फरपुर की रहने वाली महाबीरी को अंग्रेजों की नाइंसाफी बिलकुल पसंद नहीं थी. महाबीरी ने 22 महिलाओं की टोली बनाकर अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया. अंग्रेजों को गांव देहात में रहने वाली दलित महिलाओं की इस टोली से ऐसी उम्मीद नहीं थी. अंग्रेज महाबीरी के साहस को देखकर घबरा गए थे. महाबीरी ने दर्जनों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया और उनसे घिरने के बाद खुद को भी शहीद कर लिया था.
इतिहासकार श्री. डी सी दिनकर ने अपनी पुस्तक “स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान” में उल्लेख किया है कि- “अंग्रेजो ने इस काण्ड में सैंकड़ो दलितों को गिरफ्तार किया ।
अगर वाल्मीकि योद्धाओं की बात की जाए तो पंजाब के वीर सपूत भाई जैता उर्फ़ जीवन सिंह चूड़ा के बलिदान को कोई नहीं भूल सकता। जैता ही थे जो गुरु तेगबहादुर का कटा शीष उठाकर लाये थे।
अगर आप वाल्मीकि वीरांगनाओ की बात करें तो कानपुर के कालपी में जन्मी वीरांगना महावीरा देवी का नाम सुनते ही सर सम्मान में झुक जाएगा। उन्होंने 1857 में फिरंगियों को देश से भगाने के लिए 22 सदस्यीय महिलाओं की टीम बनाकर हजारों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की जान बचाते हुए कालपी के रास्ते से निकाला।
दिल्ली निवासी अमर शहीद रामचन्द्र और राम किशन ने साहस का परिचय देते हुए चतुर युक्ति से अनेकों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा और 10 मार्च 1919 को दोनों वाल्मीकि देश भक्तों ने रोलेक्ट एक्ट का विरोध किया, जिसमे दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ब्रिटिश सेना द्वारा फायरिंग शूरू की गयी, परिणाम स्वरुप दोनों देश भक्त रामचंद्र भंगी और राम किशन वीरगति को प्राप्त हुए।
इलाहाबाद के अमर शहीद ननकाऊ भंगी ने अपने साथियों मैकूलाल जाटव, शिवधन जाटव, दिखाई लाल धोबी ,अवतारी पांसी, कन्हैया लाल वाल्मीकि, दयानंद ब्यास, बैजू धोबी और कल्लू खटीक के साथ मिलकर
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान चौरा-चोरी में क्रांति की शुरुवात की। चौरा-चौरी की घटना, इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित है। इस मामले में 19 क्रांतिकारियों को फांसी और 14 क्रांतिकारियों को कालापानी की सजा हुई।
भारत छोड़ो आंदोलन के समय कहीं भी सार्वजनिक स्थान पर तिरंगा झण्डा फहराना अपराध था किन्तु 12 अगस्त 1942 को इलाहाबाद में ननकाऊ भंगी ने कोतवाली पर चढ़कर तिरंगा झण्डा फहरा दिया और तिरंगा झण्डा फहराते हुए ही ननकाऊ बलूच सैनिकों की गोलियों से शहीद हो गए।
आज अगर देश आजाद है तो इसमें बहुत बड़ा योगदान वाल्मीकि योद्धाओं का भी है, आज अगर सनातन हिन्दू धर्म सुरक्षित है तो इसका एक कारण वाल्मीकि शूरवीर भी हैं। आज भी जब कहीं साम्प्रदायिक दंगा होता है तो वाल्मीकि भाई पूरे हिन्दू धर्म की ढाल बन जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिन्दू धर्म की इस पराक्रमी कौम को समाज की मुख्यधारा में लाया जाए और उन्हें आगे बढ़ने के समान अवसर दिए जाएं।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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