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परमक्षेत्र सुखावती क्षेत्र जन्मग्रहण-प्रणिधान
(आचार्य चोंखापा )-mystic power
( आचार्य चोंखापा द्वारा विरचित सुप्रसिद्ध एवं अत्यधिक अधिष्ठान से युक्त प्रस्तुत “संक्षिप्त प्रणिधान’आचार्य द्वारा विरचित ‘परमक्षेत्रद्रोद्घाटन नाम सुखावतक्षेत्र जन्मग्रहण-प्रणिधान’ इस विस्तृत ग्रन्थ का अंश है, जिसे उन्होंने ‘ल्ह-ल्दन्-स्मोन्-लम्-छेन्-मो’ नामक महाप्रणिधानोत्सव के अवसर पर उसकी आवश्यकता को देखकर वक्त विस्तृत ग्रन्थ से कई भागों को अलग करके तैयार किया था। इस ग्रन्थ में अमिताभ बुद्ध के सुखावती क्षेत्र के सत्त्वों और भाजनलोक के व्यूह का स्वरूप और उनके अचिन्त्य विशिष्ट गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है तथा इन गुणों पर आलम्बत दृढ् श्रद्धा के माध्यम से उस क्षेत्र में जन्मग्रहण आदि के लिए लगभग चौंतीस (34) प्रणिधानों के मर्मस्थलों का साम्नोपाड़ निरूपण किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ और आ5य मैज्रेयनाथ स्तोत्र “रलप्रकाशप्रदीष’ इन दोनों ग्रन्थों को पहले रचने के लिए.आर्य मज्लुश्री ने उन्हें प्रेरित किया तथा बाद में उनके अभिषेयों के स्वरूप एवं क्रम आदि का भी (उन्होंने) साक्षात् निर्देश किया। फलत: आचार्य चोंखापा ने समुचित शब्दसंयोजन द्वारा उन्हें रचनाबद्ध किया। अत: इन ग्रन्थों का वास्तव में अत्यधिक महत्त्व प्रमाणित होता है। यहाँ उक्त प्रणिधान ग्रन्थ के अनुवाद, सम्पादन एवं संक्षिप्त परिचय आदि कार्य सम्पन्न करके प्रस्तुत किये जा रहे हैं। |
यह संक्षिप्त प्रणिधान ग्रन्थ आचार्य चोंखापा द्वारा विरचित ‘परमक्षेत्रद्वारोद्घाटन नामक सुखावती क्षेत्र जन्मग्रहण-प्रणिधान’ नाम से प्रसिद्ध विस्तृत ग्रन्थ का अंश है, जिसे उन्होंने पृथक् ढद्ज से व्यवस्थापित किया है। इसे भी आचार्य चोंखापा ने स्वयं “ल्ह-दन्-स्मोन्-लम्-छेन्-मो’ नामक महाप्रणिधान उत्सव के अवसर पर पूर्व निर्मित उक्त विस्तृत ग्रन्थ से कई भागों को अलग करके सामान्य पूजा-पाठ के लिए तैयार किया है।
विस्तृत ग्रन्थ में तो सुखावती क्षेत्र के सत्व्लोक और भाजनलोक के व्यूह का प्रारूप और किन अचिन्तनीय विशिष्ट गुणों से यह क्षेत्र युक्त है-इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन है। इसके बाद इन गुणों पर अवलम्बित दृढ़ श्रद्धा के माध्यम से किन प्रणिधान योग्य मर्मस्थलों को सिद्ध करने के लिए किस प्रकार प्रणिधान किया जाता है–इसकी प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। इसके बाद आचार्य चोंखापा ने स्वयं किस प्रकार के बुद्धक्षेत्र में बुद्धत्व प्राप्त करना है और अपने भावी बुद्धक्षेत्र का व्यूहन किस प्रकार होना है-इन सब पर प्रकाश डाला है।
उक्त (सुखावती) क्षेत्र के गुणों के विषय में वर्णन करते समय उसके बाह्य भाजन के व्यूहन गुणों एवं अभ्यन्तर स्त्वों के सामान्य गुणों का और विशेष रूप से उस परम क्षेत्र के भाजन और सत्त्वों के हृदयगर्भ स्वरूप उस क्षेत्र के मध्य में स्थित महाबोधिवृक्षराज के स्वरूप का वर्णन है, जिसकी ऊँचाई अनेक शतयोजन होना तथा शाखा और पार्श्व का ‘परिमाण सौ योजन पर्यन्त चारों ओर फैला हुआ होना एवं अचिन्त्य, आश्चर्यजनक विशेषणों से अलड्कृत होना आदि का वर्णन है। उस प्रकार के महाबोधिवृक्ष के समक्ष भगवान् तथागत सम्यक्सम्बुद्ध अमिताभ बुद्ध अपने दो प्रमुख शिष्यों और अपरिमित परिवार मण्डल के मध्य स्थित होकर परम गम्भीर और उदार सद्धर्म कौ देशना करते हुए विराजमान है-ऐसा वर्णन किया गया है।
इस प्रकार उस अद्भुत एवं पवित्र क्षेत्र के गुणों एवं व्यूहों का साक्षात् स्मरण करते हुए, विशेषत: सपरिवार तथागत अमिताभ बुद्ध के प्रति तीब्र एवं दृढ़ श्रद्धा से उस क्षेत्र में शीघ्रातिशीघ्र उत्पाद हो और उस महानायक अमिताभ बुद्ध के साक्षात् कल्याणमित्र होने से उनका कभी भी (सदा) वियोग न हो, इत्यादि ऐहिक और पारलौकिक अनेकविध गम्भीर एवं उदार प्रणिधानों के मर्मस्थलों के सम्यक्तया सिद्ध हो पाने के लिए विशाल प्रार्थना एवं प्रणिधान की प्रक्रिया का ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक प्रदर्शन किया गया है।
ग्रन्थरचना की प्रक्रिया
आचार्य चोंखापा जी ने वोलू-खा प्रान्त के ‘वोल्-खा-जिड्र:जी’ नामक स्थान में जाकर ‘जिड्-जी-जो-वो-जम्पा’ अर्थात् उस स्थान के विहार में विराजमान आर्य मैत्रेयनाथ के प्रति जब महापूजा की और अनेक प्रणिधान किये, उस समय भट्टारक मज्श्री ने जैसा आचार्य चोंखापा को निर्देश दिया, तदनुसार उन्होंने जिड्-जी विहार अर्थात् आश्रय और उसमें स्थित आश्रित (अर्थात् देवताओं की मूर्ति, थड्भा आदि) कौ मरम्मत की और उस विहार में विद्यमान इष्ट देवताओं की पूजा की तो उनमें से अनेक देवताओं का साक्षात्कार आदि अनेक विशिष्ट आभास अनुभूत हुए तथा स्वकीय आध्यात्मिक सन्तति मेंअनेकानेक अधिगम गुणों के उदय का अनुभव हुआ। उसी समय भट्टारक मज्श्री ने आचार्य चोंखापा को आर्य मैत्रेयनाथ के स्तोत्र एवं सुखावती क्षेत्र के प्रणिधान नामक दो ग्रन्थों को रचने के लिए प्रेस्त किया।
जैसे कि ‘खस्-डुब्-जे’ द्वारा विरचित आचार्य चोंखापा जी के गुढ्म वृत्तान्त में कहा गया है! –““उस समय आर्य भट्टारक (मजझुश्री) के वचन के अनुसार दश दिगवस्थित बुद्धों द्वारा महाप्रभा-अभिषेक देने की प्रक्रिया को आधार बनाकर (आचार्य चोंखापा को) आर्य मैत्रेयनाथ के स्तोत्र रचने के लिए कहा गया। तदनुसार उन्होंने आर्य मैत्रेयनाथ के
स्तोत्र रत्वप्रकाशकप्रदीप कौ रचना की। उसी प्रकार सुखावती क्षेत्र में जन्मग्रहण- प्रणिधान परम क्षेत्र द्वारोदघाटन की रचना की तथा स्वयं भविष्य में (बुद्ध के) निर्माणकाय के रूप में बुद्धकृत्य प्रदर्शित करने के क्षेत्र के परिग्रहण के प्रणिधान के लिए भी मज्ञुश्री ने प्रेरित किया तथा (स्तोत्र और प्रणिधान) के अर्थ का स्वरूप और क्रम आदि भी जैसे
मजुश्री ने कहा, तदनुरूप मैंने (चोंखापा) ने शब्दरचना की है–ऐसा कहा गया है।’”
इसी प्रकार शाक्यभिक्षु टशी पल्ू-दन (मड्जलश्री) द्वारा विरचित आचार्य चोंखापा के गुह्नवृत्तान्त प्रार्थना नामक ग्रन्थ में भी कहा गया है?, तथा हि–”सुखावती में उत्पाद के लिए प्रणिधान तथा अजितनाथ के सम्यक् स्तोत्र (इन दोनों ग्रन्थों) के अर्थ के स्वरूप एवं क्रम आर्य मज्ञुश्री द्वारा स्पष्ट रूप से कहे जाने पर शब्दसंयोजन द्वारा सम्यक् रूप से रचनाबद्ध (आचार्य चोंखापा द्वारा) किया गया है।” इन बचनों (के प्रमाण) से प्रस्तुत प्रणिधान भट्टारक मञ्श्री की प्रेरणामात्र से ही विरचित नहीं है, अपितु उक्त स्तोत्र और प्रणिधान–इन दोनों (ग्रन्थों) के अभिधेयों के प्रारूप एवं (उनका) क्रम आदि भी साक्षात् रूप से (भट्टारक मज्श्री द्वारा) निर्दिष्ट हैं। आचार्य चोंखापा ने तो अपनी प्रखर प्रतिभा एवं बाक्-श्री के माध्यम से समुचित शब्दसंयोजन द्वारा उन्हें रचनाबद्ध किया है। इससे इन दोनों ग्रन्थों का अत्यधिक महत्त्व प्रमाणित होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का संक्षिप्त अभिधेय
जिन (बुद्ध) अमिताभ एवं उनके परम पतवित् क्षेत्र (सुखावती) के अचिन्त्य गुणों ‘पर आलम्बित इस प्रार्थना एवं प्रणिधान के प्रारम्भ में मनःस्थित प्रणिधानों कौ सिद्धि के साक्षी के रूप में ऋद्धिबल से करुणापूर्वक सपरिवार (अमिताभ बुद्ध को) यहाँ पधारने के लिए प्रार्थना की गई है। प्रत्येक प्राणी का अगले जन्म में परम पवित्र क्षेत्र सुखावती में उत्पाद हो और वहाँ वह तीक्ष्णबुद्धि के रूप में उत्पन्न हो। उस क्षेत्र में उत्पन्न होने के अनन्तर उस आश्रय (जन्म) में अनेक (सूक्ष्म) प्रहेयों का प्रहण हो और अनेक अधिगम गुणों का प्राकटय हो तथा वह अपरिमित परहित करने में सक्षम हो। (-ऐसी प्रार्थना की गयी है)।
सामान्यतः आगम और अधिगम (गुणों) के प्रति विशुद्ध श्रवण, चिन्तन एवं भावना के लिए सदा विशिष्ट आश्रय (जन्म) प्राप्त होता रहे। विशेषत: मोक्षगुणों के प्रति आकृष्ट चित्त से समुत्थित होकर विनय धर्म में प्रत्रजित आश्रय (शरीर) प्राप्त हो और उसी आश्रय में धारणी, प्रतिभान, अभिज्ञ आदि गुणों का उपलम्भ हो। सम्पूर्ण प्रहेय और उपादेय स्थानों का सम्यग् विभाजन करने में सक्षम महाप्रज्ञा, ‘प्रसन्न (विशुद्ध) प्रज्ञा, तीक्षण प्रज्ञा तथा गम्भीर प्रज्ञा से भट्टारक मझुश्री की भाँति योग हो। स्व एवं पर हित (स्वार्थ और परार्थ) करने में हमेशा तत्परता एवं समस्त बोधिचर्याओं में पारड्रतता भट्टारक अवलोकितेश्वर की भाँति हो। स्व एवं पर हित (अर्थ) में प्रवृत्त होते समय मार एवं तैथिंक आदि प्रतिवादियों का धर्षण और दमन करने में उपायकौशल्य शक्ति से सुसम्पन्नता भट्टारक गुह्माधिपति के सदृश हो। सभी जन्मों में महान् वीर्य के माध्यम से महाबोधि की प्राप्त अतुलनीय शाक्यराज (महामुनि सम्यक्सम्बुद्ध) की भाँति हो। बोधि की सिद्धि में विष्नभूत काय और चित्त के सभी प्रकार के रोगों का विनाश करने में सामर्थ्य सम्पन्नता सुगत भिषग्राज के तुल्य हो तथा सभी प्रकार की अकाल मृत्युओं का विनाश करने में सामर्थ्य जिन (बुद्ध) अमितायु अर्थात् अमिताभ की भाँति हो-ऐसा प्रणिधान करने के लिए कहा गया है।
संक्षेप में कर्म और उसके फल पर विश्वास, निर्याण (चित), बोधिचित्त तथा विशुद्ध दृष्टि का अवबोध होते हुए उनका अनुभव अनायास निरन्तर प्रवृत्त होता रहे। काय,वाक् और चित्त के माध्यम से जितने कुशलमूल संचित किये गये हैं, वे सभी परार्थ और विशुद्ध बोधि के हेतु के रूप में परिणत हों–ऐसी परिणामना करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार लगभग 34 प्रणिधानों के मर्म स्थलों का प्रतिपादन किया गया है। उन सबका इस ग्रन्थ में पद्य (श्लोक) एवं गद्य मिश्रित रूप में रचना की गई है।
महत्त्वपूर्ण एवं महाप्रसाद गुण से सम्पन्न इस प्रणिधान (ग्रन्थ) के हिन्दी अनुवाद में बौद्ध विद्याओं के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् प्रो० रामशड्जूर त्रिपाठी (शोध-आचार्य) ने अमूल्यसहयोग प्रदान किया है, एतदर्थ मैं उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
ग्रन्थ का सम्पादन एवं अनुवाद के माध्यम से उसे प्रस्तुत करने के इस परम पवित्र कार्य से उपार्जित पुण्य से “सभी सत्त्व (प्राणी) सुखावती क्षेत्र में उत्पन्न होकर शीघ्रातिशीघ्र बुद्धत्व
प्राप्त करें ‘–ऐसी परिणामना करता हूँ।
सुखावती क्षेत्र जन्मग्रहण-प्रणिधान अद्भुत कर्मों के द्वारा (जो) (अशेष) जगत् को अक्षयश्री प्रदान करते हैं। एक बार स्मरण मात्र से वे मृत्युपति (यमराज) के भय को दूर कर देते हैं। अविच्छिन्न करुणा के द्वारा वे जगत् के समस्त सत्त्वों को इकलौते पुत्र के समान समझते हैं। (ऐसे) देव और मनुष्यों के (यथार्थ) शास्ता उन अमितायु की मैं (हृदय से) वन्दना करता हूँ॥ ॥
मुनीन्द्र (शाक्यमुनि) द्वारा अनेक अवसरों पर सम्यक्तया और पूर्णतया प्रशंसित परमश्रेष्ठ सुखावती क्षेत्र में उत्पन्न होने के लिए करुणा से प्रेरित होकर यथाशक्ति कुछ प्रणिधान (मैं चोंखापा) कहने जा रहा हूँ॥ 2॥
(जागतिक प्राणी) उपादेय और प्रहेय स्थलों में घनीभूत अविद्या से आवृत (ग्रस्त) हैं। द्वेषरूपी शस्त्र के द्वारा (हम) स्वर्ग (अभ्युदय और निःश्रेयस) के प्राण (मूल) को काटने वाले हैं तथा कामतृष्णा रूपी पाश से संसार-चारक (कारावास) में आबद्ध हैं। (अपि च) कर्मनदी के (वेगवान् प्रवाह) द्वारा (द्ुत गति से) भवसागर की ओर ले जाए.
जाते हैं॥ 3॥
जरा, व्याधि (आदि) की (अनवरत दुर्दान्त) अनेक दुःख तरज्जों के द्वारा हम सदा (भवार्णव में) परिभ्रमण करते रहते हैं। भयंकर मकररूपी मृत्युपति के मुख में प्रविष्ट होने से अनिष्ट दुःखों के भार से दबे हुए (हम), अनाथों के लिए मेरे सकरुण आर्तस्वर से॥4॥
मनःस्थित प्रणिधानों की सिद्धि के साक्षी, विपत्तियों से ग्रस्त (सांसारिक प्राणियों) के एकमात्र मित्र (बन्धु), नायक अमिताभ बुद्ध, और अवलोकितेश्वर, जिनपुत्र महास्थाम-प्राप्त आदि सपरिवार की आदरपूर्वक प्रार्थना करने पर॥ 5॥
(उन्होंने) अपरिमित कल्पों तक हम लोगों के लिए (जो अनन्त) परम चित्तोत्पाद की प्रतिज्ञा की हैं, (उन्हें) विस्मृत किये बिना गरुडराज के आकाश मार्ग से उड़कर आनेकी भाँति (आप अमिताभ बुद्ध, अवलोकितेश्वर, महास्थामप्राप्त जिनपुत्र सपरिवार) करुणापूर्वक ऋद्धिबल से यहाँ (मनुष्य भूमि में) पधारें॥ 6॥
स्व और पर के त्रैकालिक दो सम्भार सागरों को युगपद् (एक-साथ) संकलित करने के प्रभाव (बल) से मुझे मृत्यु-काल के निकट पहुँचते समय (महा-)नायक अमिताभ बुद्ध को दो प्रमुख शिष्य आदि परिवार से साक्षात् परिवृत देखकर उस समय सपरिवार जिन (अमिताभ) पर आलम्बित तीत्र श्रद्धा उत्पन्न होकर, मर्मान््तक दुःखों से रहित, सविषयक श्रद्धा की अविस्मृत (जागरूक) स्मृति विद्यमान रहते हुए मृत्यु (च्युति) होते ही आठ जिनपुत्रों द्वारा ऋद्धि-बल से उपस्थित होकर सुखावती-क्षेत्र कौ ओर जानेवाले मार्ग का यथायथ (सही-सही) निर्देश करने के कारण सुखावती-क्षेत्र में रत्रूपी पद्म से महायान गोत्रीय (और) सर्वदा तीक्ष्णबुद्धि के रूप में ही उत्पाद हो।
(वहाँ) उत्पन्न होते ही धारणी, समाधि, निरालम्ब बोधिचित्त, अक्षय प्रतिभा आदि अपरिमित गुणसमूह की प्राप्ति तथा दश दिशाओं के पुत्रों सहित अनुत्तर शास्ता अमिताभ आदि जिन तथागतों को प्रसन्न करके (उनसे) महायान से सम्बद्ध वचनों की आगम- परम्परा का सम्यक्तया प्रतिग्रहण हो।
उन बचनों के अर्थ का यथावत् अवबोध कर प्रत्येक क्षण में बुद्ध के अनन्त क्षेत्रों में ऋद्धि के द्वारा अप्रतिहत गमन होकर बोधिसत्त्वों की समस्त विपुल चर्याओं को (मैं) सुसम्पन्न कर सकूँ।
विशुद्ध क्षेत्र में उत्पन्न होने के साथ ही तीव्र करुणा से समुत्थित होकर अप्रतिहत ऋद्धि के द्वारा विशेष रूप से अशुद्ध क्षेत्रों में जाकर समस्त सत्त्वों को अपने-अपने भाग्य के अनुकूल धर्म का प्रतिपादन (देशना) करने कौ वजह से (उन्हें) जिन-तथागतों द्वारा प्रशंसित विशुद्ध मार्ग में आरूढ (प्रतिष्ठित) करने में सक्षम हो सकूँ। इन अद्भुत चर्याओं को शीघ्रता से सम्पन्न करने के माध्यम से अपरिमित जगत्-हित करने के लिए जिन-तथागत के ‘पद को भलीभाँति प्राप्त कर सकूँ।
जब आयु: संस्कार का उत्सर्जन होते समय अपार परिवार-मण्डल से परिवृत अमिताभ बुद्ध का चक्षु-मार्ग से स्पष्ट दर्शन करने से (स्व-सन्तान) श्रद्धा एवं करुणा से परिपूर्ण हो॥ 7॥
अन्तराभव का आभास उदित होते ही आठ जिनपुत्रों द्वारा सम्यक् (अश्रान्त) मार्ग का निर्देश करा देने से सुखावती ( (क्षेत्र) में उत्पन्न होकर निर्मित (काय) द्वारा अशुद्ध क्षेत्र के प्राणियों का विनयन कर सकूँ॥ 8॥
इस प्रकार के परम पद को जब तक प्राप्त नहीं कर सकूँ तब तक उन सभी जन्मों में भी हमेशा जिन तथागत के आगम और अधिगम रूपी शासन में विशुद्ध श्रवण, चिन्तन और भावना की साधना करने वाला आश्रय (मानव शरीर) ही प्राप्त हो। वह आश्रय भी स्वर्ग (लोक) के सात गुणालझ्जारों से रहित न हो। इस प्रकार सभी अवस्थाओं में भी यथावत् पूर्वनिवास अनुस्मरण करने वाली जन्म (परम्परा) की अनुस्मृति प्राप्त हो। अपिच, सभी जन्मों में सम्पूर्ण भव (संसार) को निःसार (तुच्छ, निरर्थक) समझते हुए मोक्षगुणों से अन्वित मनोहारी मनस् (चित्त) से समुत्थित होकर भगवान् बुद्ध द्वारा सुभाषित विनय धर्म में प्रत्नरजित हो सकूँ। प्रत्रजित हो जाने पर भी सूक्ष्म आपत्तियों (दोषों) से भी अलिप्त रहते हुए शीलस्कन्ध को परिपूर्ण करने के कारण महाबोधि-प्राप्त अक्षोभ्य भिक्षु की भाँति होऊँ।
और भी, सभी जन्मों में संक्लेश और व्यवदान की व्यवस्था का यथावत् अवबोध होकर उसमें पारड़्त होने के अवयवभूत सभी धर्मों के अशेष शब्दों और अर्थों को न भूलते हुए धारण करनेवाली परिसम्पन्न धारणी प्राप्त हो। स्वयं द्वारा जिस प्रकार ग्रहण (या धारण) किया गया है, (उस तत्त्व की) अन्यों को देशना करने में अप्रतिहत विशुद्ध प्रतिभा प्राप्त हो। पुनश्, सभी जन्मों में शूरज्ञम आदि समाधियों के द्वार, मांस चक्षु आदि (पाँच) चक्षु, ऋद्धि के विषयों के ज्ञान आदि अभिज्ञाओं की प्राप्ति से वियोग न हो।
अपि च, सभी जन्मों में प्रहेय और उपादेय स्थानों को स्वबल से विभाजित (बोधित) करने में सक्षम उदार महाप्रज्ञा प्राप्त हो। संक्लेश और व्यवदान धर्मों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंशों को भी यथावत् एवं अमिश्रित रूप से विभाजित (अवबोधित) करने में सक्षम, प्रसन्नप्रज्ञा प्रात हो। अनवबोध, विपरीत बोध एवं विचिकित्सा (संशय) से युक्त चित्त के उत्पन्न होते ही उनका पूर्णतया अवरोध करने में सक्षम तीक्ष्ण-प्रज्ञा तत्काल प्राप्त हो। अन्य (लोगों) के द्वारा (ठीक-ठीक) परिच्छेद (परिमाप) न किये जा सकने योग्य प्रवचनों के शब्द और अर्थ में प्रकर्षपर्यन्त रूप से प्रवृत्त होने वाली गम्भीर प्रज्ञा प्राप्त हो।
संक्षेप में दौष्प्रज्ञा के समस्त दोषों से रहित प्रज्ञा के द्वारा प्रवचनों के शब्द और अर्थों का विभाजन (प्रविचय) करने में उपायकौशल्य प्रज्ञा के माध्यम से (मैं) बोधिसत्त्वों को सभीचर्याओं में पारड्जत भट्टारक मजझ्जुश्री की भाँति होऊँ। इस प्रकार की महाप्रज्ञा, प्रसन्रप्रज्ञा, तीक्ष्णप्रज्ञा और गम्भीरप्रज्ञा को भलीभाँति प्राप्त करे भाग्यशालियों को अनुगृहीत एवं मिथ्यावादियों को निगृहीत करने तथा विद्वानों को सन्तुष्ट करने के अड्ग के रूप में जिन-तथागत के समस्त प्रवचनों पर आलम्बित व्याख्यान, शास्त्रार्थ और (ग्रन्थ-) रचना में पारब्जभत दिद्वत्ता प्राप्त हो। और भी, सभी जन्मों में स्वार्थ को ही प्रधान रूप से ग्रहण करनेवाला मनस्कार और बोधिसत्त्वों कौ उदार चर्याओं के प्रति अकर्मण्यता (कौसीद्य) और लीनता (स्त्यान) से युक्त सभी चित्तों (मनस्) का पूर्णतया निषेध कर (अवरोध कर) परार्थ को अपनाने में तत्पर एवं परम प्रतिभासम्पन्नता में पूर्णता प्राप्त करने के लिए उपायकौशल्य से अन्वित बोधिचित्त के माध्यम से (मैं) समस्त बोधिचर्याओं में पारड्गत भट्टारक अवलोकितेश्वर की भाँति होऊँ।
अपि च, सभी जन्मों में स्वार्थ एवं परार्थ में प्रवृत्त होत समय मार, तैरथिंक तथा सभी प्रतिवादियों का दमन करने में उपायकौशल्य शक्ति के माध्यम से बोधिसत्त्वों की सभी चर्याओं में पारज्गत भट्टारक गुह्माधिपति के सदृश होऊँ। सभी जन्मों में कौसीद्य (आलस्य) के प्रतिपक्ष (विरोधी) वीर्य (कुशल उत्साह) के द्वारा बोधिप्राप्ति की (सभी) चर्याओं को परिनिष्पन्न करने में प्रारम्भिक बोधिचित्तोत्पाद से लैकर एक क्षण के लिए भी तन्द्रा (आलस्य) न करते हुए महान् वीर्य के माध्यम से महाबोधिप्राप्त अतुल शाक्यराज (महामुनि बुद्ध) की भाँति होऊँ। सभी जन्मों में बोधि सिद्ध करने में विष्नभूत काय एवं चित्त के सभी रोगों का विनाश करने में, जिनका नाम लेते ही, जो काय, वाक् एवं चित्त के सभी रोगों को उत्खातमूल कर देने में सामर्थ्यसम्पन्न हैं, उन सुगत भैषज्यराज के तुल्य होऊँ।
तथा च, सभी जन्मों में यथेष्सित आयु परिपूर्ण होने में जिनके नामोच्चारण मात्र से सभी प्रकार की अकाल मृत्यु (आदि सभी मृत्युओं) का विनाश हो जाता है, ऐसे सामर्थ्यसम्पन्न जिन(-तथागत) अमितायु की भाँति होऊँ। आयुष्य के विघ्नों को निकट देखते ही रक्षक अमितायु के चार कर्मों में से जिस (कर्म) के द्वारा (उन विघ्नों का) दमन (प्रशमन) हो सके, उस (कर्म) के अनुकूल काय के आभास का प्रदर्शन हो, जिसका दर्शन करते ही आयुष्य के सभी विघ्न उपशान्त होंऔर जिस कर्म द्वारा विनयन (उपशमन) हो उसके अनुकूल काय आभासित हो तथा उन्हें नाथ अमितायु के रूप में पहचान कर, उनके प्रति अकृत्रिम एवं दृढ़ श्रद्धा का उत्पाद हो और उसके बल पर आश्रित होकर सभी जन्मों में जिन (तथागत) अमितायु की साक्षात् कल्याणमित्रता से वियोग न हो।
और भी, सभी जन्मों में लौकिक एवं लोकोत्तर सभी गुणों के मूलाधार महायान के लाक्षणिक कल्याणमित्र (गुरु) के द्वारा (मैं) आराधन करते हुए अनुगृहीत होऊँ तथा अनुगृहीत होते समय भी उन कल्याणमित्र के प्रति अभेद्य दृढ़ श्रद्धा प्राप्त कर हर प्रकार से (अर्थात् सभी माध्यमों से) उनकी आराधना ही करता रहूँ। आराधना न करनेवाला भाव (आशय) क्षणमात्र के लिए भी सिद्ध (उत्पन्न) न हो। कल्याणमित्र द्वारा उपदिष्ट और अनुशिष्ट सभी (शिक्षाएं या अनुशासन) सम्पूर्णतया अविकल रूप से उपदिष्ट हों। उनके अववाद के सभी अर्थों का यथावंत् अवबोध हो तथा उनकी सिद्धि में पारड्गत होऊँ। अकल्याणमित्र और पापमित्रों के वश में क्षणमात्र भी न चलूँ। सभी जन्मों में कर्म-फल पर विश्वास रखने वाली श्रद्धा और सभी निर्याण (चित्त), बोधिचित्त तथा विशुद्ध दृष्टि का अवबोध होते हुए (उनका) अनुभव अनायास निरन्तर प्रवृत्त होता रहे। सभी जन्मों में काय, वाक् और चित्त के माध्यम से जितने कुशल मूल संचित किये हैं, वे सभी परार्थ एवं विशुद्ध बोधि के हेतु ही हों।
जब तक परम मुनि (बुद्ध) के उस श्रेष्ठ पद को मेरे द्वारा प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक विशुद्ध सुमार्ग को साधने वाले आश्रय (काय) मुझे प्राप्त हों तथा प्रब्नजित होता रहूँ और पूर्वजन्मों का (भी) स्मरण रहे ॥ 9॥
धारणी, प्रतिभान, समाधि, अभिज्ञा एवं ऋद्धि आदि अपरिमित गुणों के कोश को धारण करते हुए अद्वितीय ज्ञान और करुणा तथा शक्ति प्राप्त करके बोधिचर्या में शीघ्र पारड्भत हो सकूँ॥ 1॥
अकाल मृत्यु के निमित्त (चिह्) देखते ही तत्काल जिन (तथागत) अमितायु के काय का सुस्पष्ट दर्शन हो तथा मृत्युपति (यमराज़) को प्रभावहीन करके अमृतविद्याधर अधिगम शीघ्र प्राप्त हो॥ 2॥
सभी जन्मों में अमितायु बुद्ध के परमयान (महायान) के साक्षात् कल्याणमित्र होने के कारण जिन-तथागत द्वारा प्रशंसित उस सुमार्ग से क्षणमात्र के लिए भी (मेरी) निवृत्ति न हो॥
सत्त्वों के अर्थ (हित) की उपेक्षा करके स्वार्थ के प्रति लोलुप बुद्धि का कभी भी उत्पाद न हो, परार्थ साधने कौ प्रक्रिया में असंमूढ उपायकौशल्य के द्वारा सर्वदा परार्थ के लिए तत्पर रहूँ॥ 3॥
मेरे नाम के उच्चारण एवं स्मरण करने मात्र से भी (स्वकीय) पापकर्मों के (अनिष्ट) फल से पीड़ित (लोगों को) सभी जन्मों में परम सुखश्री से सम्पन्नता और समृद्धि प्राप्त हो और वे परमयान कौ ओर जानेवाले सोपानों पर आरुढ हों॥ 4॥
जिनपुत्रों के आंशिक विमोक्ष को ही (यहाँ) परिलक्षित किया गया है। अतःजिनपुत्रों की चर्याओं के अशेष विघ्नों का शमन होकर सभी अनुकूल सामग्रियों कौ मन में सोचते ही सिद्धि हो॥ 5॥
सपरिवार शाक्येन्द्र, नायक अमिताभ, मैत्रेय, मझ्लुश्री, गुह्माधिपति एवं अवलोकितेश्वर आदि सुगतों के अविसंवादी प्रतीत्यसमुत्पादस्वरूप सत्य के (प्रभाव से) ये सभी प्रणिधान शीघ्रतापूर्वक सिद्ध हों॥ 6॥
सुखावती क्षेत्र में जन्म-ग्रहण प्रणिधान परम क्षेत्र द्वारोदघाटन नामक यह ग्रन्थ लोसड्-डक् पाई-पल (सुमतिकोर्तिश्री) द्वारा जिड्-छि (नामक स्थान) के विहार में रचा गया है। इसे ज़ड-क्योडूः (भद्रपाल) ने लिपिबद्ध किया है।
॥ भवतु सर्वमड्गलम्॥
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