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परकाया प्रवेश सिद्धि
श्री सुशील जालान-
mystic power – द्युलोक विराट पुरुष नारायण के विशिष्ट लोक हैं। इस एक लोक में अनंत लोक स्थित हैं। इन ऊर्ध्व लोकों का दर्शन ध्यान में होता है।
ध्यान-योगी सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत कर अनाहत चक्र में प्रवेश करता है। यह महर्लोक है जहां शरीर से बाहर निकलने के लिए एक कूट द्वार है, जिसे महेन्द्र द्वार कहते हैं।
इन्द्र कहते हैं 10 इन्द्रियों, [5 ज्ञानेन्द्रियां + 5 कर्मेंद्रियां], के स्वामी मन को। मन वश में होने पर, इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति न होने पर, और समर्थ आध्यात्मिक गुरू के अनुग्रह से, विविध योगासनों, प्राणायामों से, महर्लोक में प्रवेश करता है ध्यान-योगी।
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महेन्द्र द्वार से योगी अपने जीवभाव सहित अपने शरीर के बाहर निकल कर परकाया प्रवेश करने में भी सक्षम होता है, महेन्द्र उपाधि से। और यदि चाहे तो पृथ्वी लोक में अगोचर रह कर भी भ्रमण कर सकता है।
आद्य शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी भारती के द्वारा पूछे गए कामशास्त्र संबंधित प्रश्नों के उत्तर के लिए परकाया प्रवेश सिद्धि का उपयोग किया था, इसी महेन्द्र द्वार से स्वयं के जीव-आत्मा को स्थूल शरीर से बाहर निकाल कर एक राजकुमार के मृत शरीर में प्रवेश कर उसे जाग्रत कर रतिक्रिया संबंधित अनुभव के लिए।
यह महेंद्र पर्वत भी कहा जाता है आध्यात्मिक शास्त्रों में, जहां महर्षि गण तपस्या में लीन रहते हैं। यहीं महादेव/ उमा महेश्वर का पावन लोक भी है, जहां से देवभाषा संस्कृत प्रकट हुई 14 महेश्वर सूत्रों में। उमा अधिष्ठात्री देवी हैं चौंसठ योगिनियों की।
सक्षम ध्यान-योगी जीवभाव त्याग कर स्व चैतन्य आत्मा में स्थित होता है। यह स्वात्मा महेंद्र द्वार से बाहर निकल कर 84 लाख योनियों में से कोई भी रूप धारण कर भूलोक में विचरण करने की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
यह जीवन-मुक्त स्थिति है इस ध्यान-योगी की। जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त, कल्प के अंत तक, परकाया प्रवेश से अथवा चैतन्य स्वात्म स्वरूप से यह योगी भूलोक पर रहता है।
द्युलोक के अंतर्गत महर्लोक से ऊपर और लोक भी हैं, जनर्लोक, तपर्लोक और सत्यम् लोक। जनर्लोक में अनेक सिद्धियां हैं, कुछ भी, कहीं भी, कभी भी, प्रकट, स्थिर व लोप करने की सामर्थ्य, आदि।
तपलोक में कल्पांत तक, जब तक ध्यान-योगी चाहे तब तक, सबीज या निर्बीज समाधि में रह सकता है बिना किसी कर्म के, अथवा कोई कर्म विशेष सम्पन्न कर फिर समाधि लगा सकता है।
सत्यम् लोक में प्रविष्ट ध्यान-योगी ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करता है तथा सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ और सर्वात्मा हो जाता है। ब्रह्मर्षि में नवीन ब्रह्माण्ड या लोकों की रचना की सामर्थ्य भी होती है। यह सहस्त्रार – आज्ञा चक्र में स्थित है, सुमेरु शीर्ष पर।
भगवान् श्रीराम ने अलौकिक साकेत धाम लोक और भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक धाम की रचना की स्वयं एवं अपने अनन्य भक्तों के लिए। यह सत्यम् लोक की अचिंत्य अनुपम परा शक्ति से संभव होता है।
इसीलिए कहा गया है श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय, छियालिसवें श्लोक में –
“तस्मात् (ध्यान) योगी भव अर्जुन”।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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