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परमाराध्या
लेखक-श्री रामचरण
“परमाराध्या कौन है।”
इस प्रश्न के उत्तर में शाक्त कहता है-“छाया-शक्ति वा महामाया के परमाराध्या है।” “वह कौन?
“नित्यैव सा जगन्मूर्तिः तया सर्वमिदं ततम्”– बह नित्य और सदा एकरूप रहनेवाली एवं जगन्मूर्ति ( जगत् ही है जिसकी मूर्ति अथवा बाह्यरूप) है और उसी से यह सब जो कुछ दृश्यमान् है, उत्पन्न हुआ है !
मेधा ऋषि ने राजा सुरथ के इस प्रश्न के उत्तर में कि आप जिसे महामाया कहते हैं, वह देवी कौन है ( भगवान् का हि सा देवी महा मायेति यां भवान् ब्रवीति ) उसका उपर्युक्तरूप से यह परिचय दिया था। हम भी उसी को दोहरा मात्र सकते हैं। इससे अधिक उसका परिचय देने की सामर्थ्य कौन रखता है ?
वह वहाँ है, जो सब वेदों का वेद्य, देवों का वंद्य और सभी धर्मों का परमुपास्य है।
अर्जुन जिस विराट् रूप को देखकर व्याकुल और भयभीत हुआ था, वह उसकी ही एक झाँकी थी। इसीलिए मेघा ऋषि उसे जगन्मूर्ति कहकर परिचय देते हैं। “जो वैष्णवी शक्ति अनन्त-बोयें है, वह भी नही है, विश्व का बीज (उद्गम) भी वही है और जो सब चेतन प्राणियों को सम्मोहित कर रही है, वह महामाया भी वही है।”
शाक्त इसीलिए देवों की इस दिव्य स्तुति को सदा ह्रदयगत किये रहता है कि
‘या देवी सर्वभूतेषु भाविवेश संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥
जो देवी भूतमात्र में भ्रान्तिरूप से विराजमान है, उसे बारम्बार प्रणाम है। शाक्त जिस आदिशक्ति वा महामाया की उपासना करता है, उसके सम्बन्ध में यदि कोई भ्रम हो सकता है तो वह केवल शाब्दिक–तात्विक नहीं, यह बात ऊपर स्पष्ट हो चुकी है। फिर भी भ्रम भ्रम ही है। सहज में उसका निराकरण नहीं होता है। यह भ्रम की खूबी है !
‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्म व नापरः’ इस वेदान्त सिद्धान्त के परम सत्य होने पर भी जगत् मिथ्या होकर हवा में उड़ नहीं जाता और परमानन्दरूप ब्रह्म से जीव का अभेद होने पर भी तुलसीदास जैसे मक्त-शिरोमणि को कहना पड़ता है कि-
‘व्यापक ब्रह्म ईश अविनाशी, सत चेतन घन आनन्द रासी।
अस प्रभु हृदय रहत अविकारी, सकल जीव जग होंहि दुखारी ॥
ऐसी अमोघ त्रिकाल अबाधित मायाशक्ति जिसकी है, उसे महामाया रूप से वंदन करने में कौन-सा दोष हो सकता है?
विश्व को मिथ्या करें, प्रकृति को माया या भ्रमजाल करें, ब्रह्म को सत्य, निराकार चाहे जो कुछ मानें, यह याद रखने की वस्तु है कि यह सब कुछ ‘माया के आवरण से घिरे’, मिथ्या जगत् के जीव के भ्रमपूर्ण मस्तिष्क की ही बात है। हम जो कुछ कहेंगे, कहते हैं या कह सकते हैं, वह वही होगा जो माया के भीतर है-हमारा अनिर्वचनीय भी माया के दायरे के भीतर की वस्तु है। हम इस तरह माया के समुद्र में डूबे हुए हैं। वह माया सार्वदेशिक है, वह भ्रान्ति सर्वकालिक है, जगत् उसके भीतर से निकला है-इसीलिए वह माया नहीं महामाया है और आद्याशक्ति भी ।
माया ब्रह्म की शक्ति वा प्रकृति है और है उससे अभिन्न | शक्ति-शक्तिमान् का भेद किया ही नहीं जा सकता। उसे शक्ति कहो वा शक्तिमान् बात एक ही रहती है। माया कहो वा मायिन् कहो, द्वैत की गुंजाइश है ही नहीं।
स्थूल जगत् में जब हम शक्ति से रहित शक्तिमान् की कल्पना नहीं कर सकते तो सूक्ष्म जगत् की क्या बात ! सूक्ष्म जगत् तो शक्तिरूप है ही। जल और उसकी आद्रता को कल्पना में हम भले अलग-अलग मानें पर वास्तव में आता रहित जल किसी ने देखा है क्या? शायद यह सम्भव भी हो पर आत्मा और आत्मा की शक्ति का भेद कौन बता सकता है ? आत्मा यदि स्थूल शरीर से भिन्न कोई अस्तित्व रखती हो तो वह अवश्य ही शक्तिरूप होगा।
परब्रह्म का सबसे सुन्दर, सबसे प्रसिद्ध यह “सत्-चित्-आनन्द” यदि शक्तिरूप नहीं है तो क्या है, कोई बता सकता है वह शक्तिरूप है और अपनी शक्तियों का स्वयं नियामक भी है। यह अपनी ही इच्छा से अपनी निस्सीमता को ससीमता के घेरे में लाता है और जिस शक्ति के द्वारा वह ऐसा करता है, वही शक्ति ‘माया’ है और वह दूसरी आगे पैदा होने वाली समस्त माया की मूलभूता है इसलिए वह महामाया है और सब शक्तियों की जड़ में नहीं है। इसीलिये वह आद्यशक्ति भी कहलाती है । वह स्वयं उससे भिन्न है, इस प्रकार निस्सीम से ससीम और निर्गुण से सगुण बनाती सी प्रतीत होती है ।
जितने भी धर्म इस संसार में है, सबमें उसी की आराधना होती है, जो इस सृष्टि का कर्ता। इसलिए सबका ही परमाराध्य वही महामाया वा आद्याशक्ति है, जिसके भीतर से यह सारा विश्व का पसारा फैला है।
अपनी-अपनी रुचि है। कोई उसे शक्तिरूपिणी मानने में सन्तोष मानता है तो किसी को उसे शक्तिमान् कहने में प्रसन्नता होती है। कोई उसे परमाराध्य मानता है तो कोई उसे परमाराच्या मानता है। न तो उसका कोई विशिष्टरूप है और न उसके रूपों की कमी है। बह भक्तों के लिए विष्णु और लक्ष्मी रूप से प्रकट होता है अथवा सीताराम या राधाकृष्ण के लोलावतार धारण करता है तो उधर शिव-शक्ति का अभेद दिखाने के लिए अर्धनारीश्वर रूप से भी लोक-लोक में प्रसिद्ध है। भक्त की भावना है। उस भावना का ही यह इच्छुक है। इसीलिए नानारूपों में होता है जैसा इस वाक्य में कहा गया है
‘भक्तानामनुप्रहार्थाय ब्रह्मणो रूपकल्पना ।
इसी बात को भगवान कृष्ण ने दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा है –
“यो यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्वदेव भजाम्यहम् ।
उसी ‘माम” की आराधना शाक्त “माँ” रूप से करता है। यही उसकी परमाराच्या देवी है। तुलसीदास ने उसका वंदन रामवल्लभा रूप में इस प्रकार किया है—-
‘उद्भवस्थितिसंहारकारिणी के शहारिणीम् ।
सर्वश्रेयस्करी सीतां नवोऽहं रामवल्लभाम् ॥’
यहाँ इतना ही याद रखने को बात है कि राम और रामवल्लभा का भेद हमारे द्वैत-सृष्टि के भीतर की बात है, नहीं तो राम और रामवल्लभा का चिर अभेद है। इसीलिए दूसरी जगह तुलसीदास ने बड़ी मार्मिकता से गाया है-
‘गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न वन्दौ सीताराम पद…………
ये हमारे मस्तिष्क की द्वैत कल्पना की बातें है अन्यथा उसका कौन कैसे आकलन कर सकता है
‘विशुद्धा परा चिन्मयी स्वप्रकाशा
ऽमृतानन्दरूप जगद्व्यापिका न विधा या निराकारमूर्तिः
किमस्माभिरन्तहर दिध्यायियत्व्या?
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