‘प्राचीन भारतीय विज्ञान’ का पुर्नमूल्यांकन
डॉ. म. त्र्य. सहस्त्रबुद्धे (संस्कृत)
श्री. के चितले. (विज्ञान)
दुनिया में जिसे साइन्स (Science) कहा जाता है, उसके लिए भी भारतीय भाषाओं में विज्ञान शब्द का प्रयोग किया जाता है। सायन्स में पदार्थो का यदि ‘विशेष’ ज्ञान’ उद्दिष्ट है, तो विज्ञान शब्द वहां सार्थक भी है।
अनेक पाश्चात्य वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि पुराने धर्मग्रन्थों विशेषकर हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में जो विचार पाए जाते हैं, वे निश्चित ही विस्मय जनक और आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तों से मिलते हैं। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण हम आपके सम्मुख रखना चाहते हैं- ख्रिस्ताब्द 1935 में सर्वश्री डॉ0 अल्बर्ट आईनस्टाईन, पोडोल्स्की और रोझेन ने एक लेख प्रकाशित करवाया था। उन्होंने अपने प्रयोग में सूचित किया कि आण्विक युगलकणिका (Sub – Atomic Twin Particles) को परस्पर दिशा में उत्क्षेपित (Bombarded) किया जाये तो दौड़ते समय उन में से एक अगर दाहिनी और मुड़ जाए तो दूसरी कणिका बायीं और मुड़ेगी। इसी तरह यही एक कणिका ऊपर की ओर चलेगी तो दूसरी निश्चित ही नीचे की ओर घूमेगी। अत: इस प्रयोग से वैज्ञानिकों के सामने समस्या उठी कि एक कणिका की गतिविधि को दूसरी कणिका ने कैसे जाना! वास्तव में यह दो कणिकायें (Particles) अन्तराल में परस्पर विरूद्ध दिशा में दौड़ रही थीं।
इस समस्या को ध्यान में रखते हुए श्री जे. सरफही ने सुझाव दिया कि यद्यपि अन्तराल में yah दोनों कणिकायें पृथक हुई थीं तथापि उनमें संबध शेष था। इन्होंने इस संपर्क को परिभाषित संज्ञा दी। जिसका मतलब है- सूचक चिन्ह के बिना ही एक-दूसरे को अपने बारे में जानकारी देना (Super terminal transfer of negentrophy without signals) इससे स्पष्ट होता है कि एक चैतन्य सर्वत्र व्याप्त है। जो अपने विस्तीर्ण प्रदेश में घटने वाली सब प्रतिक्रियाओं को जानता है। यही बात एक श्रुति वाक्य में भी है-“यत्-किचित् प्राणीजंगम”-च पतत्री च यच्च स्थावर सर्वतत् प्रज्ञानेत्रं प्रज्ञाने प्रतिष्ठितम।
अर्थात श्वांस-प्रश्वांस करने वाले सभी जीव पशु-पक्षी तथा जड़ पदार्थ चैतन्य के बल पर ही व्यवहार करतें हैं। चैतन्य भी सब में प्रतिष्ठित हैं। यह विचारसाम्य देखकर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को प्रेरणा मिली और उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि पुराने धर्मग्रन्थों में परिभाषा भले ही भिन्न हो, उन्होंने जिस संकल्पना की उद्भावना की वह आज के विज्ञान की संकल्पनाओं से भिन्न नहीं है। तेजी से प्रगति के पथ की ओर बढ़ते हुए विज्ञान शास्त्री भी वैदिक वांग्मय की ओर आकृष्ट हुए हैं। – –
टिण्डल नामक वैज्ञानिक ने कहा कि पृथ्वी की प्रारंभिक अवस्था द्रवरूप में तथा चंचल थी, काठक संहिता कहती है कि पृथ्वी चंचल थी-“अहोलेदं वा इयं पृथिवी आसीत इयं तर्हि शिथिल आसीत” अन्यत्र भी ऐसे उल्लेख देखे जा सकते हैं। लिंकन बार्नेट नामक वैज्ञानिक का विचार है कि ग्रहलोक पृथ्वी से दूर जा रहे हैं, तथा एक दूसरे से भी दूर जा रहे हैं। अत: यह तर्कसंगत अनुमान है कि किसी सुदूर अतीतकाल में अंतरिक्षजगत, ग्रहमंडल एवं पृथ्वी एक साथ एकत्रित थे। कम से कम 12 स्थानों पर वैदिक वांग्मय में इस तरह के विषयों का प्रतिपादन है। जैमिनीय ब्राह्मण और भी निश्चित विधान करता है- “इमौ वौ लेको सह आस्ताम तौ सह संतौ कि एताम” अर्थात आकाशीय ग्रह सृष्टि तथा पृथ्वीलोक एक साथ अवस्थित थे। बाद में वे पृथक हुए। इसी बात को आगे बढ़ाकर शतपथ ब्राह्मण कहता है कि “आकाशमंडल इतना समीप था कि उसको स्पर्श किया जा सके।
“समन्तिकमीव हवा इमे (धावापृथिवी) अग्रे असुः उन्मृश्या ह इव धौ: स्पर्शयोग्य था। अर्थात उसे स्पर्श किया जा सकता था। विख्यात भूतत्वज्ञ जार्ज गेमो कहते हैं-It is obvious that the moon must have been revolving almost within touch of Earth’s surface, immediately after seperationपृथ्वी से अलग होने से कुछ काल तक चन्द्रमा इतने समीप भ्रमण करता था कि उसको स्पर्श किया जा. सके। ऐसा प्रतीत होता है कि शतपथ के प्रवक्ता महर्षि याज्ञवल्क्य जार्ज गेमो के मुख से सृष्टि का रहस्य बता रहे हों। मैत्रायणी संहिता में यह वाक्य है- ‘तस्माद ऋपु अय: प्रतिथुक क्षीरं विदहती (ताम्बे का पात्र अगर ऋपु(कस्हई) से रहित हो तो उसमें दूध फट जाता है) काठक संहिता में भी इसी प्रकार का एक वाक्य मिलता है। अर्थात वेदकाल में बर्तनों की कस्हई करने की बात सर्वविदित थी जो धातु विज्ञान (Metallurgy) के अस्तित्व को सिद्ध करती है। कई विद्वानों का मंतव्य अभी भी ऐसा है, कि +
यह साफ बतलाता है कि यह धारणा गलत है। ऋपु का उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। यहाँ उसे ताम्बे के बर्तन पर चढ़ाने की बात है।
सुवर्ण (Gold ) के बारे में वेदों का कहना है वह पार्थिव नहीं तेजोमय है- ‘तेजो वैहिख्यम’। बारहवीं शताब्दी में बना एक ग्रन्थ सोने के बारे में कहता है,- ‘स्वर्ण तैजसम् अंत्यन्तानलसंयोगे इपि अनुच्छिद्यमानद्रवरूपतत्वात’ अर्थात सोना तेजतत्व है। (पृथ्वीतत्व नहीं) सोना कितने ही समय तक आग में रखा जाए वह द्रव रूप में ही रहता है कभी जलता नहीं। सोने का जारेय (oxides) आज भी शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं होता।
महाभारत में कहा है- जिस प्रकार मणि सूर्य की बिखरी हुई किरणों को समेट कर अपने अन्दर ले लेता है उसी तरह योग की प्रक्रिया भी होती है, अर्थात योग द्वारा शरीर की तेजोमय बिखरी हुई शक्ति को एकत्रित किया जाता है।
‘यथा भानुगत तेज: मणि: शुद्ध समाधिना। आदते राजशार्दुल योग: प्रवर्तते।।’
इस श्लोक में आये मणि अर्थ त्रिशंकु (Prism) अथवा भिंग (Lens) है- अथर्ववेद में आता है’तत्वां सीसेन विहयामः’। यह सीसा चोरों को भगाता है। हमारी गति को अवरूद्ध करने वाले को दूर हटाता है। रक्तशोषक लोगों को भगाने का सामर्थ्य इस सीसे में है। डकैत! मेरी गाय-घोड़ा अथवा . संबंधी पुरूष का तू वध करेगा तो मैं तेरे ऊपर सीस (सीसे की गोली) चलाऊँगा। मैंने सीसे की गोली चलाई कि तू हमें सताने के लिए जीवित ही नहीं रहेगा। इस मंत्र को लेकर पं. सातवलेकरजी अपना अभिप्राय प्रकट करते हैं। इस सूक्त में सीसे की गोली का प्रयोग डाकुओं पर करने को कहा गया है। सूक्त में केवल सीसे का प्रयोग किसी प्रकार से संभव नहीं लगता। वध करने का भाव दूर से overwhelming!” ! चांदमारी के समाम निशाना मारना है। फिर भी कुछ अग्निवाण का वर्णन एतरेय ब्राह्मण में आया है। धूप शब्द अग्निपुराण में अग्नि बाण के लिए आया है। पर्शियन ‘तुफांग’ अथवा सुपाङग शब्द धूप से ही साम्य रखता है और तोफ या तोफ इसी का रूपान्तर प्रतीत होता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में एक मंत्र है: ‘तुग्रोह मुज्युमश्विना उदमे घे रविं न- कश्यिन्ममृवा अवाहा:’
‘तुमुह यु नामिरात्मनवती मिरंतरिक्षवृद्वी: आपोदकाभि।’ 1-116-3 ऋग्वेद अर्थात हे अग्निदेव! कोई मृत मनुष्य जैसे पार्थिव धनधान्य को छोड़कर निकल जाता है उसी प्रकार तुग्र ने अपने पुत्र को (मृत्यु) समुद्र में छोड़ दिया था। किन्तु तुम में अंतरिक्ष में उड़ने वाले और जल स्पर्श से वाली नौका में बिठाकर उसे सुरक्षित ले आऔ। अंतरिक्ष में उड़ान करने वाली नौका विमान हवाई जहाज के अतिरिक्त क्या हो सकता है? आगे पुराणों में समरादंगसूत्रधार है। विख्यात लेखक श्री रामचन्द्र दिक्षितारजी इस संदेह के बारे में कहते हैं, “Still some writers have expressed a doubt and asked” Was it-true but evidences in it’s favour is
लेखक संदेह प्रकट करते हैं और पूछते हैं, क्या यह सच था! किन्तु उसके (विमान) अस्तित्व को सिद्ध करने वाले उल्लेख विपुल है।
विमान चालक को उसका भलीभांति ज्ञान होना जरूरी है। भारद्वाज मुनि के ग्रन्थों में विमान चालन के कई रहस्य बतलाये हैं। शत्रु विमान नष्ट करने का रहस्य (शत्रु विमान नाशन्) पर शब्दग्राहकरहस्य (दूसरे विमान पर बैठे लोगों की बातचीत समझना) सार्पागमनरहस्य अर्थात वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके उनको योग्य रूप में नियोजित करके विमान की गति को सांप के समान टेढ़ी करना इत्यादि कई रहस्य हैं।
वृहत्सहिता युवनीकस्पतदा, अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में नौकाओं का निर्माण करने की कला उल्लिखित है। नावों के कई प्रकार (ShipVessals) थे, जैसे-दिर्घिका, प्लविनी धारिणी, चपल पटल, पत्रपुटा, मध्यमा इनका भी जिक्र है। आवश्यकता विषयों पर यथार्थपरक शोध, श्रद्धा-आस्था और आत्मीयता की है।
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