प्रमाण-वृत्ति का स्वरूप
स्वामी श्री अडगड़ानन्दजी
Mystic Power- प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।।७।।
प्रमाण तीन हैं- प्रत्यश्त, अनुमान और आगम। प्रत्यश्न (प्रति अश्त) का अर्थ है- आँखों के समक्ष होना। किन्तु इतना ही प्रत्यश्त नहीं है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की अनुभूति ‘प्रत्यक्ष’ है। अनुसुइया आश्रम में एक बार मध्य रात्रि में हम चट्टान पर सोये थे। ठण्डी-ठण्डी एक लकीर पेट के ऊपर चलती प्रतीत हुई। नींद खुल गई। हमने सोचा, इतना ठण्डा ! बर्फ जैसा ! वह भी चलती हुई लकीर! यह सर्प हो सकता है। धीरे-धीरे ठण्डा लगना बन्द हुआ। हमने टार्च जलाया तो सचमुच सर्प था। आँखों ने तो देखा नहीं था किन्तु स्पर्श से वह देखने में आ गया।
वन्यपशु एक किलोमीटर दूर से ही शेर की गंध पहचान जाते हैं, चिक-पिक कर अपनी टोली को सतर्क करने लग जाते हैं। कोल-भोल भी आधा किलोमीटर दूर से ही सिंह को गन्ध पा जाते हैं, अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करने लग जाते हैं। नासिका में गन्ध प्रत्यक्ष होते ही ‘अनुमान’ क्रियाशील हो उठता है।
तीसरा प्रमाण ‘आगम’ है। परमात्मस्वरूप कैवल्य पद की ओर अग्रसर होने के लिये आप्तपुरुषों का दर्शन, उनकी वाणी, उनका सान्निध्य आगम कहलाता है। प्रमाण पाते ही वृत्तियाँ संचालित हो जाती हैं। यदि वे ईश्वरोन्मुखी हैं, वैराग्य, विवेक, कल्याण के भाव, श्रद्धा जगाती हैं तो अक्लिष्ट तथा प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हैं तो क्लिष्ट कहलाती हैं। प्रमाण से वृत्ति संचालित होती है। प्रथम वृत्ति है ‘विपर्यय’-
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ।।८।।
जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है ऐसा मिथ्याज्ञान विपर्यय है। अस्तित्वहीन वस्तुओं में आसक्ति विपर्यय है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “अर्जुन! आसुरी सम्पद् को प्राप्त पुरुष सोचता है कि मेरे पास इतना धन है, उतना होगा! मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ! मेरे द्वारा यह शत्रु मारा गया, उसे मारूँगा, यत्न करूँगा, दान करूँगा, यश को प्राप्त करूँगा और इस प्रकार कभी न पूर्ण होनेवाली अनन्त इच्छाओं, वासनाओं का सदैव आश्रय लिये रहता है। ऐसे पुरुष शनैः शनैः घोर नरक में गिरते हैं, वे अन्धकार की ओर उन्मुख हैं।” यह वृत्ति सम्पूर्ण को सम्पूर्ण क्लिष्ट हैं; किन्तु इसे कहीं प्रमाण मिल गया, जैसे- आप्तपुरुषों का दर्शन; तत्काल यह क्लिष्ट वृत्ति अक्लिष्ट की ओर उन्मुख हो जायेगी। वाल्मीकि, अंगुलिमाल इत्यादि की वृत्ति में सत्पुरुषों के दर्शन से परिवर्तन का सूत्रपात हो गया। पूज्य परमहंस जी महाराज के साहचर्य से सती अनुसुइया क्षेत्र में दस्युओं के एक गिरोह का हृदय-परिवर्तन हो गया। उसका सरदार संत हो गया। दूसरी वृत्ति है ‘विकल्प’ –
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।।९।।
जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञान के साथ-साथ होने वाला है, जिसका विषय- वस्तु वास्तव में नहीं है वह विकल्प है।
इसी पाद के बयालीसवें सूत्र में है ‘तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः।’ अर्थात् शब्द, अर्थ और ज्ञान हन तीनों के विकल्पों से मिली हुई समाधि सवितर्क है। किन्तु किसी शब्द के सुनने या उसका आशय समझ लेने से समाधि तो नहीं लग जाती। विभीषण श्रीराम की शरण में आया, निवेदन किया; किन्तु मंत्रियों ने सन्देह ही व्यक्त किया-‘कामरूप केहि कारन आया।’ (मानस, ५/४२/६) शब्द भी मिला, आशय भी मिला, उसके अनुसार विभीषण को बाँधने की तैयारी भी हो गयी। समाधि तो किसी की नहीं लगी !
वास्तव में यह शब्द-‘अनुभव’ है, जो सक्षम सद्गुरु द्वारा अधिकारी साधक में भजन की जागृति के रूप में प्रस्फुटित होता है। द्रष्टा और दृश्य के संयोग से जो प्रेरणा मिलती है वह शब्द है। जो दृश्य का प्रयोजन है- पुरुष के लिए भोग और मुक्ति प्रदान करना- यह प्रयोजन सिद्ध करके द्रष्टा और दृश्य का संयोग भी शान्त हो जाता है।
(देखें, साधनापाद, सूत्र १७, १८ और १९)
वह चेतन द्रष्टा जिस प्रकार मुक्ति-प्रयोजक दृश्य संचालित करते हैं, समझाते हैं उसका नाम शब्द है। इस शब्द के आश्रित होकर चलने वाली चित्त को प्रवृत्ति विकल्प कहलाती है। यहाँ वस्तु परमात्मा तो नहीं है, लेकिन उसका विकल्प सुदृढ़ हो जाता है। ‘सत्य वस्तु है आत्मा, मिथ्या जगत् पसार।’ सत्य का तीनों कालों में अभाव नहीं है। आत्मा ही सत्य है, सनातन है। इस प्रकार वस्तु परमात्मा तो नहीं है, किन्तु उसका विकल्प भली प्रकार पुष्ट हो जाता है। इसका नाम विकल्प-वृत्ति है। यह सम्पूर्ण वृत्ति अक्लिष्ट है; किन्तु संग-दोष से प्रमाण मिलते ही यह क्लेशों की ओर उन्मुख हो जाती है- ‘श्रृंगी की भृंगी करि डारी, पाराशर के उदर विदार।’
पूज्य परमहंस महाराज जी को अनुभव में दिखायी पड़ा था कि वह पिछले कई जन्मों से साधु थे। पिछले जन्म में आवागमन से निवृत्ति होने हो वाली थी कि एक-दो कुतूहल मन में होने लगे कि यह शादी-विवाह होता क्या है? कुछेक महात्मा गाँजा पीकर झूम क्यों रहे हैं? मन की इतनी-सो फिसलन के कारण एक जन्म और लेना पड़ा। महाराज जी सर्वथा अक्लिष्ट वृत्ति में चल रहे थे, मन में स्फुरण से क्लिष्ट वृत्ति में आ गये।
शब्द पर महापुरुषों ने बहुत वल दिया है-शब्द बिना श्रुति आँधरी, कहो कहाँ लोँ जाय। द्वार न पावे शब्द का, फिर फिर भटका खाय।। (कबीर)
शब्द के बिना चिन्तन में जो सुरति लगायी जाती है, अन्धी है। शब्द के बिना श्रुति का अध्ययन बुद्धिस्तर के अनुसार अटकल लगाना मात्र है। यदि शब्द का द्वार नहीं मिला, भजन जागृत नहीं हुआ; शब्द, अर्थ और उसका ज्ञान समाते हुए आचरण में ढालते नहीं बना तो बार-बार भटकना पड़ता है। अनुभव को भी पढ़ना पड़ता है। भगवान लिंग- अलिंग, प्रतीक या बिना प्रतीक के ही जानकारी देते रहते हैं। यह विद्या पढ़नी पड़ती है। यही है- ‘शब्द- ज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।’ शब्द को समद्दों कि इष्ट द्वारा कहा क्या गया? उसका आशय क्या है? उस शब्द से उत्पन्न ज्ञान के साथ मन में उठनेवाली वृत्ति, जिसका विषय-वस्तु हए नहीं है किन्तु उसका विकल्प अवश्य है। यही विकल्प-वृत्ति है।
भगवान श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण से कहा- माया के दो रूप हैं विद्या और अविद्या। ‘एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव पड़ा भव कूपा।।’ (मानस, ३/१४/५) अविद्या दुष्ट है, अत्यन्त दुःखरूप है। उससे विवश होकर यह जीव भव-कूप में पड़ा है। ‘एक रचइ जग गुन बस जाके। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।।’ (मानस, ३/१४/६) माया का दूसरा रूप विद्या है जो जगत् के तीनों गुणों को नियन्त्रित करने में समर्थ है। ‘गुन बस जाके’- सत्, रज और तम तीनों गुणों को बस में करने वाली है। किन्तु वह विद्यामाया प्रभु-प्रेरित है। यदि भगवान प्रेरणा न करें तो उसके पास कोई बल नहीं है, वह विद्या है ही नहीं। इस प्रकार द्रष्टा के सहारे चलने वाली वृत्ति विकल्प-वृत्ति कहलाती है।
यह विकल्प-वृत्ति जो सर्वथा अक्लिष्ट है, विजातीय दृश्य प्रत्यश्न होते ही यह क्लिष्ए की ओर परावर्त हो सकती है। जैसे- यह साधन-पथ दुर्गम है, कुछ काल के लिये भोग त्याज्य नहीं है। एक कुटिया बना लेना बहुत परिग्रह तो नहीं है!
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