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प्रार्थना का प्रभाव
(पूज्यपाद महात्मा स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज)
Mystic Power- भगवान की आराधना और प्रार्थना ऐसी वस्तु है कि वह यदि शुद्ध श्रद्धा-भक्ति से की जाय तो कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसकी सिद्धि न हो सके। परन्तु उस प्रकार का विश्वास और भगवत्परायणता हुए बिना उसकी नाट्यरचना सचमुच उपहासास्पद है। भगवान् ने कहा है कि जो प्राणी अनन्य भावना से मेरा चिन्तन करते हुए सम्यक् उपासना करते हैं. उन योगयुक्त के योग और क्षेम का निर्वाह में ही चलाता हूँ। जो वस्तु मिली नहीं है, उसका प्राप्त होना ‘योग’ है और मिली हुई की रक्षा करना ‘क्षेम’ कहलाता है। भगवान् सर्वान्तरात्मा ही भगवतारायण प्राणियों के योग-क्षेम का निर्वाह करते हैं.
मनीषिणो हि ये केचिद् यतयो मोक्षधर्मिणः । तेषां विच्छिन्नतृष्णानां योगक्षेमवहो हरिः ॥
जैसे अप्राप्त लोकव्यवहारोपयुक्त वस्तुओं की प्राप्ति योग है, वैसे ही मोक्ष आदि के उपयोगी ज्ञान, समाधि आदि की प्राप्ति भी योग ही है। शरणागति का भाव महानुभावनि ऐसा वर्णन किया है कि जैसे गौ, अश्व आदि का विक्रय करने वाला पुनः उनके भरण-पोषण की चिन्ता में नहीं पड़ता, उसी तरह अपने सर्वस्वसहित अपने-आपको भगवान् में समर्पण कर देने वाले प्राणी को अपने लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की चिन्ता नहीं रहनी चाहिये।
परन्तु क्या यह सब ऊपर के भावों के समान बनावटी हो सकता है? प्राणियों में देखा जाता है कि ऊपर से भगवान् की शरणागति की बात ‘त्राहि मां शरणागतम्’ आदि शब्दों में की जाती है; परन्तु हर समय अपने भोजन, पान, धन, पुत्र, प्रतिष्ठा के अर्जन में व्यग्रता दिखायी देती है। यह प्राणियों से हो ही नहीं सकता कि घर में आग लगी हो और वह अव्यग्रता से भगवान् के ध्यान या जप में लगा रहे। यदि किसी सौभाग्यशाली की यह स्थिति हो जाय तो अवश्य ही भगवान् उसके घर की आग बुझा देते हैं। आलस्य और अकर्मण्यतावश अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करना-यह एक बात है, भगवत्परायणता में विश्वविस्मरण होने से वैसा हो – यह दूसरी बात है । अपने यहाँ के कितने ही भक्तों के उदाहरण हैं कि उनके भगवद्धजन में तन्मय होने पर भगवान् ने हो उनके कर्तव्यों का पालन किया है। रावण, मेघनाद आदि राक्षसों की कथाओं में भी ऐसी बातें आती हैं कि वे लोग युद्ध के अवसरों में जिस समय अपने यज्ञ या देवाराधन में बैठते थे, उस समय किसी बात की परवा नहीं करते थे। तब उनका ध्यान-आराधन आदि भंग करने के लिये सुग्रीव के सैनिकों की ओर से विघ्न किया जाता था। उस समय लोगों की यह धारणा थी कि यदि इनके निर्विघ्न देवाराधन सम्पन्न हो गये तो फिर इन पर विजय प्राप्त करना असम्भव हो जायगा। वे लोग भी घोर अपमान और कष्ट सहन करके भी अपने आराधन से नहीं उठते थे और यदि किसी प्रकार से उन्हें उठना पड़ता तो वे उसे अपनी सफलता में बाधक समझते थे
सर्वत्र ही निजी प्रयाससाध्य कार्यों में भी प्राणियों को ईश्वर का सहारा रखना ही पड़ता है। द्रौपदी और गजराज का जब अपना और अपने रक्षकों का सहारा टूट गया, तब फिर भगवान् के बिना उनका और कौन रक्षक हुआ? आलसी एवं अकर्मण्य नहीं, किन्तु भगवान् का भक्त अपनी भक्ति से उन अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायक भगवान् को भी अपने वश में कर लेता है, जिनके भूविलास से माया अपरिगणित ब्रह्माण्डों का सृजन, पालन एवं संहरण करता है। उन भक्तों के आत्मा को कौन सा ऐसा कार्य अवशिष्ट रह सकता है, जो भगवान के कृपाकटाक्ष से न हो सके।। सच्चे भक्तों की प्रार्थना से समाज एवं एक देश का ही नहीं, विश्वभर का कल्याण हो सकता है और हुआ है। परन्तु उस प्रकार की योग्यता और प्रार्थना-तत्परता जब तक नहीं है, तब तक हम अपने अनेक लौकिक स्वार्थमय कमों में प्रवृत्त होते हैं। जब तक प्राणी को भोजन-पानादि नाना व्यवहारों का स्मरण बना रहता है, तब तक के लिये वह ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज का अधिकारी नहीं होता। उस काल में तो ‘मामनुस्मर युध्य च के अनुसार भगवत्स्मरण के साथ कर्तव्यकोटि में उपस्थित समस्त लौकिक-पारलौकिक कर्मो के करने में प्रयत्नशील होना ही चाहिये। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’, ‘कुरु कर्मैव तस्मान्वम्। इत्यादि वचनों से भगवान् ने स्पष्ट ही कहा है कि राग- द्वेष विहीन होकर वैयक्तिक और सामूहिक कल्याणदृष्टि से अपने कर्तव्यकर्म के पालन में शास्त्रानुसार ही सन्नद्ध रहो।
वेद-शास्त्रों पर आस्था और श्रद्धा रखकर उनके आज्ञानुसार चलने से लोक-परलोक, भगवदाराधन, भगवत्प्रसन्नता सब कुछ सुलभ हो जायगा। व्यष्टि समष्टि लौकिक, पारलौकिक ऐसा कोई अभ्युदय या कल्याण नहीं है, जिसका वेद-शास्त्र से सम्बन्ध न हो। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार की सभी हलचलों या चेष्टाओं का औचित्य अनौचित्य, सौष्ठव असौष्ठव, सम्यक्त्व- असम्यक्त्व, वेद-शास्त्र से ही निर्णीत होता है। प्रज्ञापराध से यदि कोई साधारण निषिद्ध कार्य हो जाय, तो इतने से ही दूसरे किसी बड़े निषिद्ध कार्य का अनुमोदन कदापि वाञ्छनीय नहीं हो सकता। सर्वथा शास्त्रों की दृष्टि से चलने पर कुछ भी अप्राप्य नहीं है।
संसार में बहुत-से ग्रन्थों की अच्छाई-बुराई उनके प्रतिपाद्य विषय की अच्छाई-बुराई पर अवलम्बित रही है। परन्तु वेद-शास्त्र की यही विशेषता है कि वहाँ विषय की अच्छाई-बुराई वेद-शास्त्र की सम्मति-असम्मति पर ही निर्भर है। उन शास्त्रों के आधार पर ही यह भी विदित होता है कि बहुत से ऐसे भाव हैं जो स्वयं दूषित वस्तुओं के संसर्ग से नहीं दूषित होते किन्तु दूषित वस्तु ही उनके संसर्ग से भूषित हो जाती है। भगवान् की ठीक आराधना और प्रार्थना समस्त दोष जालों का उन्मूलन करके प्राणी को सन्मार्ग पर ला सकती है और वैयक्तिक, सामूहिक, लौकिक, पारलौकिक- सब प्रकार का कल्याण सम्पादन कर सकती है। यह तो सभी को मान्य है कि सद्बुद्धि से ही सन्मार्ग में प्रवृत्ति और सब प्रकार का कल्याण सम्भव है। परन्तु वह सद्बुद्धि ही कैसे प्राप्त हो। सत्कर्म से सद्बुद्धि और सद्बुद्धि सत्कर्म माना जाय तो फिर अन्योन्याश्रयदोष आता है। सत्प्रेरणा से सत्कर्म का पक्ष यद्यपि ठीक ही है. फिर भी सत्प्रेरणा का आदर करने की सदबुद्धि वहाँ पर भी अपेक्षित रहती है। अतएव हमारे यहाँ सर्वप्रधान गायत्री मन्त्रद्वारा सदबुद्धि और सत्प्रेरणा के लिये भी भगवान को प्रार्थना का हो संकेत मिलता है। समस्त पुरुषार्थों, सभी कर्तव्यों का एक मूल सद्बुद्धि है। अतएव अपने देहदौर्बल्य, प्राणदौर्बल्य, इन्द्रियदौर्बल्य को सुनकर रोष नहीं होता, परन्तु सद्बुद्धि का दौर्बल्य सुनने से असहा क्षोभ उत्पन्न होता है। इसलिये सदबुद्धि, सत्प्रेरणा के लिये भगवान से ही प्रार्थना की जाती है, जिससे समस्त पुरुषार्थ सरलता से अपने-आप सिद्ध हो सके। ‘सिद्धान्त’
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