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रामराज्य में पर्यावरण-निति
श्री बालकृष्ण कुमावत एम्. कॉम. ,साहित्यरत्न
‘पर्यावरण’ दो शब्दों का संयोजन है-‘परि’ तथा ‘आवरण’। ‘परि’ का आशय चारों ओर तथा ‘आवरण’ का ढकना या आच्छादन करना है। आकाश, वायु, जल, अग्नि एवं पृथ्वी – इन पाँचों तत्त्वों की विशुद्धि और पवित्रता से सम्पूर्ण परिवेश परिशुद्ध हो जाता है और इनमें विकार आ जाने से सारा वातावरण दूषित हो जाता है।
हमारी प्राचीन संस्कृति ‘अरण्य-संस्कृति’ या ‘तपोवन संस्कृति’ के नाम से जानी जाती रही, पर आज के विकासवाद से उसका रूप प्रायः अस्तित्व विहीन-सा हो रहा है। जिस प्रकार शरीर में वात-पित्त-कफ का असंतुलन हमें रुग्ण कर देता है, उसी प्रकार भूमि, जल, वायु आदि में असंतुलन होने पर प्रत्येक जीव-जन्तु, पेड़-पौधे तथा मानव पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदूषित पर्यावरण अनेक संक्रामक रोगों को जन्म देता है। इसे नियति न समझकर मानव द्वारा प्रसूत विकृति कहना अधिक ठीक होगा। इसके का लिये सचेष्ट रहने की आवश्यकता है।
‘श्रीरामचरितमानस’ में गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गये एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गयी। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिये कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।
राम राज बैठें त्रैलोका । हरषित भए गए सब सोका ॥
बयरु न कर काहू सन कोई । राम प्रताप बिषमता खोई ॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन होना ।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी । सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहि
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।
(रा०च०मा०] ७।२०१७-८:२११५-६, ८.२१)
श्रीभरतजी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं
राघव! आपके राज्यपर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग नीरोग दिखायी देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती हैं। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखायी देते हैं। राजन्! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन्! नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिये चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।
पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिये दुःख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबन्धन के लिये रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगन्धित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था-
सुमन बाटिका सर्वाहि लगाई। विविध भाँति करि जतन बनाई।
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा वसंत कि नाई॥
(उ०च०मा० ७।२८।१-२)
बापीं तड़ाग अनूप कृप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारही।
आराम रम्य पिकादि खग रख जनु पथिक हंकारहीं ॥
मानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाड़ ॥
(रा०च०मा०] ७१२९ । ७० २९)
अर्थात् सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखी हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसन्त की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यन्त रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफी ऊपर था तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुन्दर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुण्ड, विद्या-कुण्ड, सीता-कुण्ड, हनुमान् कुण्ड, वसिष्ठ-कुण्ड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे; जो प्रदूषण से पूर्णतः मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मन्दार, पारिजात, चन्दन, चम्पक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदम्ब एवं ताल-वृक्षों से सम्पन्न अनेक वन थे। ‘गीतावली’ में भी सुन्दर वनों उपवनों के मनोहारी दृश्य का वर्णन मिलता है-
बन उपबन नव किसलय, कुसुमित ताना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग पिकबर, गुंजत भृंग ॥
(उत्तरकाण्ड २१३) अर्थात् अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और । कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पक्षी और । सुन्दर कोकिल सुमधुर बोली बोलते और भर गुंजार करते रहते थे।
रामराज्य में जल अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक्-पृथक् घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिये राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे-
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ॥
दूरि फराक रुचिर सो घाटा ।
जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ।।
पनिघट परम मनोहर नाना ।
तहाँ न पुरुष करहिं अस्त्राना ॥
(रा०च०मा०] ७ २८ २९।१-२)
रामराज्य में शीतल, मन्द तथा सुगन्धित वायु सदैव बहती रहती थी-
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर मारुत त्रिबिधि सदा वह सुंदर। (रा०च०मा० ७।२८।३)
पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था-
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक ॥
(रा०च०मा० ७१२८।७)
रामराज्यकी बाजार व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान् रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करने वाले कुबेर के समान सम्पन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दूकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे-
बाजार रुचिर न बनइ बरनत वस्तु बिनु गथ पाइए।
(रा०च०मा० ७ १२८)
रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिये। पर्यावरण विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिये उपयोगी है वहाँ चरित्र निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे-
तीर तीर तुलसिका सुहाई बूंद बूंद बहु मुनिन्छ लगाई।
(रा०च०मा०] ७१२९/६)
रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्र और संस्कारवान् थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी पालन पुत्रवत् करता हो वहाँ का समाज, हो सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-सम्पदाका वर्णन हजार शेषजी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचन्द्रजी हैं-
सब के गृह गृह होहिं पुराना । रामचरित पावन विधि नाना ॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं ।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ।।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज ।
सहस सेव नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥
(रा०च०मा०] ७२६७-८२६)
इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामञ्जस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं-परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुण्ड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं। रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चन्द्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी जरूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ठ और सुख देने वाला जल बहाती थीं। जब जितनी जरूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन ।
रहहिं एक सँग गज पंचानन ॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई ।
सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ।।
कुजहिं खग मृग नाना वृंदा ।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ।।
लता बिटप मार्गे मधु चवहीं मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ॥
विधु महि पूर मयूखन्हि रवि तप जेतनेहि काज ।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥
(रा०च०मा०] [७] २३१-३, ५२३)
रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि समाज के पर्यावरण संतुलन तथा पर्यावरण प्रबन्धन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामञ्जस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिये। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे-यही रामराज्य का संदेश है।
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