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साधना का अनुचित शब्द… नर बलि
श्री सुशील जालान–
mysticpower- नर-बलि आध्यात्मिक ज्ञान के संदर्भ में जानना आवश्यक है, क्योंकि व्यक्ति आध्यात्मिक साधना के माध्यम से ही अतीन्द्रिय चक्रों को जगाने की चेष्टा करता है।
नर शब्द दो वर्णों, ‘न’ और ‘र’ से बना है। ‘न’ अनंत और ‘र’ अग्नि तत्व के क्रमशः द्योतक हैं। बली का अर्थ है वह जिसके पास उपयोग के लिए ‘अनंत-अग्नि’ की आध्यात्मिक शक्ति है।
अनंत महर्लोक से शुरू होता है, हृदयस्थ अनाहत चक्र से और शिर में स्थित सहस्रार के ऊपर तक इसका बोध होता है, ध्यान-योगी को। ध्यान-योगी अपने जीव भाव का महर्लोक में त्याग कर देता है और उसका चैतन्य आत्मा, भावनाओं और भौतिक जगत, काल और स्थान के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।
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महर्लोक तक पहुँचने के लिए, योगी किसी सक्षम आध्यात्मिक गुरु के सक्रिय मार्गदर्शन में निरंतर विभिन्न योग क्रियाएँ व साधना करता है। इस दीक्षा की समयावधि लगभग 12 वर्षों की होती है, जो कि राशि चक्र में बृहस्पति ग्रह के एक चक्कर के बराबर है। बृहस्पति मोक्ष के ज्ञान का कारक ग्रह है।
अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र में स्थित है। अधिकांश साधक इसे सक्रिय करने में असमर्थ होते हैं और केवल मूलाधार तथा स्वाधिष्ठान चक्रों में ही उलझे रहते हैं। भागीरथ प्रयत्न की आवश्यकता होती है मणिपुर चक्र में प्रवेश करने और उसकी अग्नि का उपयोग अनाहत चक्र, महर्लोक में आगे बढ़ने के लिए।
मणिपुर से अनाहत चक्र की ओर जाने वाली सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करने के लिए भौतिक विषयों से मानसिक त्याग और वैराग्य के साथ दृढ़ इच्छाशक्ति ही एकमात्र उपाय है।
सुषुम्ना नाड़ी में मांस से बनी बहुत सी रुकावटें हैं, जिन्हें मणिपुर चक्र की आंतरिक अग्नि से ‘जला’ देना पड़ता है। यह जीवित मानव मांस को जलाने के समान है और इस प्रक्रिया में योगी को अपने भीतर उसी मांस के जलने की गंध आती है।
यह सुषुम्ना नाड़ी को अवरुद्ध करने वाली रीढ़ की हड्डी के भीतर स्वयं के मांस को जलाने के लिए नर-बलि का भौतिक रूप है। एक बार जब नर-बलि की जाती है और सुषुम्ना खुल जाती है, ध्यान-योगी की चेतना अनाहत चक्र में प्रवेश करती है। यह चक्र मुंड में अग्नि के पारदर्शी लाल रंग के रूप में दिखाई देता है।
सभी आध्यात्मिक सिद्धियाँ ध्यान-योगी के लिए उपलब्ध होती हैं, जब उसकी चेतना, सभी भावों से मुक्त हो जाती है और चैतन्य आत्मा प्रकट होता है। इसे शास्त्रों में भवसागर का अतिक्रमण भी कहा गया है।
नर ही नारायण बन जाता है। पुरुष स्वयं प्रकृति का स्वामी बन जाता है। स्व-आत्मा को परम-आत्मा बनने की क्षमता प्राप्त होती है, अगर यह निष्काम भाव की स्थिति में सहस्त्रार की यात्रा जारी रखता है।
इस प्रकार, नर-बलि आध्यात्मिक ज्ञान के आयाम में प्रवेश करने और अग्नि-अनंत की आध्यात्मिक शक्ति, तथा नारायण की उपाधि का लाभ उठाने के लिए आध्यात्मिक योग की एक अनिवार्य क्रिया है।
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गूढ़ रहस्य, सरल शब्दों में बताने को आभार