गृहस्थजनों, विरक्तों तथा साधुओंकी जीवनचर्या कैसी हो ?
( संत श्री उड़िया बाबा जी महाराज के सदुपदेश )
Mystic Power– परम विरक्त तथा ब्रह्मनिष्ठ सन्त पूज्य उड़ियाबाबाजी महाराज अपने सत्संग में, उपदेशोंमें सन्त-महात्माओं तथा गृहस्थजनोंको अपना एक-एक क्षण भगवद्भक्ति तथा सत्कर्मोंमें लगानेकी प्रेरणा दिया करते थे। वे कहा करते थे कि मानव योनि अनेक जन्मोंके संचित पुण्योंसे प्राप्त होती है। अतः मानवको एक-एक पल, एक-एक क्षण शास्त्रानुसार व्यतीत करके अपने जीवनको सार्थक करना चाहिये।
देशके शीर्षस्थ सन्त-महात्मा समय-समयपर पूज्य बाबा का सत्संग करने, उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने कर्णवास (बुलन्दशहर) में श्रीगंगाजी के किनारे स्थित उनकी कुटिया में पधारा करते थे। वे सन्तों अथवा गृहस्थजनकि बीच प्रवचन करते थे और उनको जिज्ञासाओं का समाधान करते थे।
पूज्य श्रीउड़िया बाबाजी महाराज प्राय: कहा करते थे कि जो अभ्यासमय जीवन बिताता है, जिसकी जीवनचर्या शास्त्रोक्त है, उसका लोक-परलोक में कल्याण होता है।
एक दिन उन्होंने प्रवचन में कहा-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥
गीता ८८)
जिसने अभ्यासमय जीवन विताया, उसीने परम दिव्य पुरुषकी प्राप्ति की है।
अतः सन्त महात्मा हो या गृहस्थ सभीको आदर्श
जीवन-यापन करनेका अभ्यास करना चाहिये। श्रद्धा, भक्ति, नम्रता, उत्साह, धैर्य, मिताहार, आचार, शरीर, वस्त्र और गृह आदिकी पवित्रता, इन्द्रियसंयम और सदाचरणका सेवन तथा कुसंगका सर्वथा परित्याग—ये सब सत्त्वगुणकी वृद्धि करनेवाले हैं। मानव जीवन, जीवनका प्रत्येक पल भगवान्की सम्पत्ति है, ऐसा दृढ़ विश्वास
रखना चाहिये। भगवान्की सम्पत्तिका अपव्यय करनामहापाप है।
भगवच्चिन्तनमें समयका सदुपयोग करना चाहिये। सर्वथा नियम-निष्ठामें तत्पर रहना चाहिये। भगवान्को सर्वव्यापक समझकर ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, शत्रुता और कुत्सित भावका त्याग करना चाहिये। ‘भगवान् सर्वदा मेरे समीप हैं’ ऐसा दृढ विश्वास रखकर अनावश्यक तथा निन्दित कर्मोसे बचना चाहिये। सरलता तथा श्रद्धा भक्तिमार्गका सोपान है तथा सन्देह और कपट अवनतिका चिह्न है। प्रतिदिन सबेरे- विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करनी चाहिये-—
‘हे परमपिता। मेरी वाणी आपके गुण कीर्तनमें, कर्ण महिमा-श्रवणमें, हाथ युगल चरण सेवामें, चित्त चरण- चिन्तनमें, मस्तक प्रणाममें और दृष्टि आपके स्वरूपभूत साधुओंके दर्शनोंमें नियुक्त रहे।’
भगवान्का नित्य स्मरण ही ज्ञान, भक्ति और वैराग्यका उपाय है।
मौन, चेष्टाहीनता और प्राणायामसे शरीर, मन और वाणी वशीभूत होते हैं। गार्हस्थ्य सम्बन्धी कार्य यथासमय नियमानुकूल सम्पादन करनेसे भजनमें सहायता मिलती है। जबतक क्रोध, द्वेष, कपट, स्वार्थपरता एवं अभिमान हमारे हृदयमें विद्यमान रहेगा, तबतक कठोर तप करनेपर भी भक्तिलाभ करना दुष्कर है।
सद्भाषण, सद्विचार, सद्भावना और न्यायनिष्ठाका परित्यागकर बाह्य आडम्बर से कोई भी धर्मात्मा नहीं बन सकता। रसास्वादके लोभसे भोजन करनेसे तमोगुण बढ़ता है। रसनेन्द्रिय वशीभूत न होनेसे अन्य इन्द्रियाँ वशीभूत नहीं होती।
सन्ध्या समय भोजन नहीं करना चाहिये। भोजनके समय बोलना नहीं चाहिये। भोजनसे पहले हाथ पैर धोना चाहिये। पवित्र आसनपर बैठकर उत्तर अथवा पूर्वमुख होकर भगवान्को भोग लगाकर भोजन करना चाहिये।भोजनमें कोई भी तामसिक वस्तु जैसे— प्याज, लहसुन आदि नहीं होनी चाहिये।
सत्य, दया, संयम, शिष्टाचार, सदाचारये गुण नशी भगवान्को भक्तिमें सहायक होते हैं। हास-परिहास करना हैं। मनोरंजन के नामपर तमाशा तथा सिनेमा देखना, अश्लील है। उपन्यास पढ़ना, अन्यायसे दूसरोंका धन हरण करना- भी अभक्तोंका लक्षण है। समय-समयपर विधिवत् श्रद्धापूर्वक नशा तीर्थ-भ्रमण करनेसे चित्त शुद्धि होती है। तीथोंमें रहकर अप परनिन्दा करनेसे, कुभावनाके उदय होनेसे संचित पुण्य ब्रह्म क्षीण होते हैं, पाप-संग्रह होता है।
या
काम, क्रोध, लोभपर नियन्त्रण करनेका अभ्यास भगन करना चाहिये। क्रोधादि मनकी तरंगें हैं। मन शान्त हो है जानेसे हृदयमें भक्ति भावना बलवती होती है।
भजन, भोजन और निद्रा प्रतिदिन नियत समयमें ही कर होना चाहिये। आलस्य सबसे अधिक विघ्नकारक है। किस आलस्यसे प्रतिदिनकी जीवनचयमें विघ्न पड़ता है। मान आलस्यसे शरीर और मन दोनों ही दुर्बल होते हैं।
समय अमूल्य तथा दुर्लभ होता है। समय व्यर्थ कदापि नहीं बिताना चाहिये। जिस समय कोई काम न हो, त उस समय जप, मानस पूजा अथवा सदग्रन्थोंका पाठ युग करना चाहिये। भगवान् तथा भोंका जीवनचरित्र पढ़ना महा चाहिये। निद्रा, घृणा, द्वेष और अभिमान जीवके लिये महा बन्धनकी श्रृंखला है।
प्रभु
जो परमात्मा के दर्शन करना चाहे, उसे शास्त्रानुसार कर जीवन बिताना चाहिये। गो-ब्राह्मणों तथा साधु-सन्तोंकि प्रति ला श्रद्धा-भावना रखनी चाहिये। कामिनी और कांचन में सर आसक्ति नहीं रखनी चाहिये जो सांसारिक सुख-सुविधाओंमें सत्म मन लगाये रखते हैं वे न मनको शान्ति पा सकते हैं और महा न भगवान्को कृपाके अधिकारी बन पाते हैं। जगत्का कोई विर पदार्थ नित्य नहीं है। धन, विद्या, बुद्धि, गुण, गौरव आदि सभी मृत्युके साथ भूलमें मिल जाते हैं। अपने जीवन में हो सांसारिक वस्तुओंको महत्त्व नहीं देना चाहिये। भगवान्का दे भजन, असहायों की सेवा सहायता करनेवाला तथा शास्त्रानुसार करे सरल सात्विक जीवन जीनेवाला ही अपना मानव-जीवन सफल कर पाता है।
लहसुन
नशा पतनका कारण – शराब, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, भाँग मदि
गुण नशीली वस्तुएँ भजन तथा सदाचारमें सबसे बड़ी बाधाएँ करना हैं। गृहस्थ ही नहीं साधुओंको भी नशेकी लत पड़ जाती श्लील है। कुछ साधु तम्बाकू आदि पीने लगे हैं, अपने पास पैसे रना भी रखने लगे हैं। अगर कोई कहता है कि साधु-सन्तोंको पूर्वक नशा नहीं करना चाहिये, धन नहीं रखना चाहिये तो झटसे रहकर अपनेको वेदान्ती, ब्रह्मज्ञानी बताने लगते हैं और ‘अहं पुण्य ब्रह्मारिम’ कहने लगते हैं। यह कितना बुरा है। साधु-सन्त या सद्गृहस्थको यदि सच्चे नरोमें डूबनेकी इच्छा है तो नभ्यास भगवान् के नामके नशेमें डूबे नानकदेवजीने ठीक कहा न्त हो है-‘नाम खुमारी नानका चड़ी रहे दिन रात।’ मांस, मंदिरा तथा नशेके सेवनने बड़े-बड़े राजा शासकोंका फतन ही कर डाला। साधना तथा भक्तिको कामना रखनेवालोंको क है। किसी भी तरहका नशा कदापि नहीं करना चाहिये। है। मानवमात्रको नशेसे सर्वथा बचना चाहिये।
साधु-संन्यासीकी जीवनचर्या कैसी हो?
पूज्य उडियाबाबाजी महाराज ग्राम: गंगाके पावन न हो, तटपर किसी कुटियामें रहकर साधना किया करते थे। उस पाठ युगके महान् सन्त स्वामी उग्रानन्दजी महाराज, हीरादासजी पढ़ना महाराज, स्वामी शास्त्रानन्दजी महाराज, पूज्य श्रीहरिबाबाजी के लिये महाराज आदि पूज्य बाबाके अनन्य श्रद्धालुजनों में थे। सन्त प्रभुदत बयचारीजीपर उनकी अनूठी कृपा थी। स्वामी अनुसार करपात्रीजी महाराज प्रायः नरवरमें पढ़ते समय पूज्य के प्रति बाबाका सत्संग किया करते थे। स्वामी अखण्डानन्द कांचनमें सरस्वतीजी प्रायः पूज्य बाबाके साथ महीनों महीनों रहकर चाओंमें सत्संग किया करते थे। पूज्य स्वामी अखण्डानन्दजी हैं और महाराजने एक लेखमें लिखा है कि पूज्य उहियाबाबाने का कोई विरों-सन्तोंकी जीवनचयक विषयमें कहा था-
व्यर्थ
आदि रोटी के सिवा कुछ न माँगे, चाहे मर जाय जितना जीवनमें हो सके तितिक्षा करे, सहन करे। कोई कितना ही दुःख वानका दे, आनन्दपूर्वक सहे। संसारसे वैराग्य और साधनसे प्रेम बानुसार करे किसीको औषध आदि बताये। कितना भी -जीवन चमत्कार हो अपने लक्ष्यसे न हटे। कामिनी और कंचनका सम्बन्ध न करे। किसी प्रकारका नशा न करे। व्यर्थप्रलापका सर्वथा त्याग करे।
साधुको न तो भिक्षाकी चिन्ता करनी चाहिये और न संकल्प करके किसी खास दरवाजेपर ही जाना चाहिये। भिक्षान्न सोम-अन्न है। इसके बराबर शुद्ध कोई अन्न नहीं है।
वस्तुएँ कभी नहीं मिलेंगी।
रुपया-पैसा लेनेसे साधुका तप क्षीण हो जाता है, तपका नाश हो जाता है। अगर रुपये-पैसेकी ही इच्छा है जायगा । तो गृहस्थ में क्यों न रहे तथा कार्य क्यों न करे ? माया, मंदिर, स्त्री, धरती और व्यौहार । ये संतन को तब मिले, कोपे जब करतार ॥ जब भगवान्का कोप होता है, तभी साधुको ये वस्तुएँ मिलती हैं। जिस साधुपर भगवान्की कृपा हो तो ये संसारी
साधुके तीन लक्षण मुझे बहुत अच्छे लगते हैं- १- जीवनभर कामिनीको कभी स्वीकार न करे। २- कंचनको स्वीकार न करे और रेलयात्राके लिये खानेके लिये, वस्त्रके लिये भी किसीसे कुछ न ले। साधु यदि पैसा अपने पास रखेगा तो वह अपने साधु-धर्मसे गिर
३- साधुको हर पल भगवान्का चिन्तन करते रहना चाहिये। एक जगह न रहकर घूमते रहकर धर्म, भगवान्की भक्ति, सदाचार तथा सेवा, परोपकारका उपदेश देते रहना चाहिये। किसी विशेषके प्रति मोह-ममता नहीं रखनी चाहिये।
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