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सनातन धर्म की रक्षा
नमन कृष्ण भागवत(धर्मज्ञ )-
राष्ट्र-निर्माण से बात निकलकर अब राष्ट्र अर्थात सनातन धर्म, की रक्षा पर आ गई है। राष्ट्र कोई भूभाग मात्र नहीं है अपितु धर्म का निरंतर उत्सव है। आततायी, इनवेडर्स, लुटेरे, चोर, डकैत, आतंकवादी, परधर्मी, विधर्मी, कुधर्मी इस राष्ट्र के भूभाग या सीमाओं को जितना संकुचित कर सकते थे वे कर चुके हैं, अब उनके निशाने पर इस जीवंत राष्ट्र की उत्सवधर्मिता है। इसीलिए वे रणनीति के तहत हमारे उत्सवों, उत्सवधर्मिता को, रीति-रिवाजों, रवायतों, परम्पराओं को अनेक प्रतिबंध लादकर नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। छापामार पद्धति की तरह दशों दिशाओं से उत्सवहीन कुधर्मियों ने सनातनी त्यौहार परम्पराओं पर विगत कुछ वर्षों से आक्रमण करना शुरू किया और अब लगभग सफल होते दिख रहे हैं। मीडिया, कई-कई एडवर्टाइज-फिल्मों के बेरोक-टोक प्रसारण से लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख छापकर, साथ में इस देश के कथित संवैधानिक व्यवस्था के पैरोकार ज्यूडिशियल सिस्टम के मीडिआकर्स/, दलालों के मन-मुताबिक एकतरफा निर्णयों को सनातन विरोधियों ने हथियार बना लिया है। कथित लिबरल, सहूलियत के सिक्यूलर हिंदू नामधारी भी धूर्ततापूर्ण मुखौटे धारण कर विधर्मियों के ही पाले में खड़े हैं। ये छापामार युद्ध निश्चित ही घातक है और प्रत्येक आस्थावान, धार्मिक, उत्सवधर्मी, परम्पराओं के प्रति श्रद्धावनत लोगों को इस युद्ध को न केवल लड़ना है वरन् विजयी भी होना है। तो ऐसी क्या साधना करें, कुछ धार्मिक उपाय, यंत्र, मंत्र, तंत्र आदि का वरण करें कि हम शक्ति-सम्पन्न हो सकें, बलवान, चरित्रवान हो सकें, दूसरा गत दो वर्षों से कोविड 19 बीमारी से भी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक तौर पर हम अशक्य हुए हैं, तो पंच दिवसीय दीपोत्सव पर्व के अवसर पर हम ऐसा क्या उपाय करें कि, हम पुनः बल, सामर्थ्य, उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकें?
हे आस्थावान मित्रों, बंधुओं, बहनों, मुझे जो उपाय गुरू कृपा से श्रेष्ठ लगा वो है – “धन्वंतरि जयंती/धनत्रयोदशी से से लेकर भैयादूज पर्यंत ऋग्वेद में वर्णित ‘अग्नि सूक्तं’ द्वारा अग्निदेव की स्तुति। भगवान धन्वंतरि, कुबेर, श्रीगणेश, माता लक्ष्मी, शंखदेव, श्रीगोवर्धनलाल, यम, यमुना और अपने भइया का पूजन तो आप करेंगे ही, साथ में अग्निदेव की स्तुति भी अग्नि-सूक्तं के पाठ से करें।
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो।
पंचदिवसीय दीपोत्सव पर्व की आप सभी पाठकों, मेरे श्रोताओं, शिष्यों को ढेरों शुभकामनाएं, मंगलकामनाएं।।
भवदीय-
Naman Krishna Bhagwat Kinker
अग्नि सूक्त(ऋग्वेद संहिता १.१.१)
[ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता अग्नि । छंद गायत्री।]
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥
हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले ), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले हैं ॥१॥
२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥
३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥
हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥७॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९॥
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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