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सनातन परम्परा मे मूर्त्ति पूजा विवेचना
डा दिलीप कुमार नाथाणी (विद्यावाचस्पति)
पुराणों पर विभिन्न विचारकों को पढ़ने के साथ ही यह जानना एवं स्वीकारना भी आवश्यक है कि द्वापर युग की समाप्ति के उपरान्त का कुछ भाग अन्धकारमय है। भारत में बर्बर व आतंकवादी सम्प्रदायों के द्वारा पिछले 1300 वर्षों में व्यवस्थित रूप से बहुत सारा साहित्य जला दिया गया अथवा उसका अपहरण कर लिया गया। इसका परिणाम यह रहा है कि हमारे पुराणों से सम्बन्धित साहित्य तथा वेद की विभिन्न शाखाओं व ब्राह्मण ग्रन्थों तथा आरण्यकों आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण साहित्य या तो नष्ट कर दिया गया है अथवा उपलब्ध भी है तो वह हमारे ग्रन्थालयों में नहीं वरन् पाश्चयात्य जगत् के ग्रन्थालयों में है।
भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में कई प्रमाण व साक्ष्य नष्ट कर दिये गये। विशेष कर म्लेच्छों के काल में बहुत साहित्य नष्ट कर दिया गया। एवं तात्कालिक धर्मविरोधी उन्माद की स्थिति में हमारे विद्वानों ने धर्मशास्त्रीय दर्शन की सुरक्षा को आवश्यक माना इसीलिये उनकी प्रतिलिपियाँ होती रहीं एवं भारत के लगभग सभी आर्य नरेशों के पुस्तकालय में सुरक्षित रही जो वर्तमान में पढने में आ रही हैं। इसी माध्यम से कथमपि अपने साहित्य की अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण साहित्य रचनाओं का सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया। किन्तु जो हम क्षेत्रीय स्तर के साहित्य की चर्चा करें तो बहुत सा ऐसा क्षेत्रिय स्तर पर लिखा गया साहित्य नष्ट ही हो गया।
आप सभी जो नित्य पढ़ रहे हैं इस शृँखला को उनके लिये आज का संवाद किंचित् विषय से हट कर है। किन्तु पूर्व के सारे संवाद में कुछ प्रश्न उठे जिनके उत्तर देने आवश्यक हैं।
1.शंकराचार्य ने भी परापूजा नामक एक ग्रन्थ लिखा जिसमें निराकार ब्रह्म की उपासना का वर्णन मिलता है। अत: शंकराचार्य को तो सनातनी मानते हैं फिर वे मूर्त्तिपूजा क्यों करते हैं?
समाधान:— द्वापर युग के बाद कलियुग में शंकराचार्य प्रथम हुये हैं जिन्होंने तात्कालिक समय में उपलब्ध सम्पूर्ण सनातन आर्ष संस्कृत साहित्य की पुन: स्थापना की। चार धाम की स्थापना करके प्रत्येक धाम में एक वेद की शाखासहित अध्ययन करने की व्यवस्था की है। ऐसे में उन्होंने वेदों में वर्णित निराकार व साकार ब्रह्म देानेां की साधना विधि को प्रकाशित किया। षडविंशब्राह्मण का प्रथम सूत्र ही ये है— ”ब्रह्म च वा इदमग्रे सुब्रह्म चास्ताम्।।1।।” सर्ग के आदि मे ब्रह्म व सुब्रह्म सर्वप्रथम हुये। इसमें ब्रह्म यानि परात्पर ब्रह्म जो अनिर्वचनीय हैं। उसे साकार अथवा निराकार दोनों में से किसी भी शब्द से नहीं बताया जा सकता क्योंकि ये दोनों ही शब्द परस्पर विलोम शब्द है। एवं द्वितीय सुब्रह्म उसी परात्पर का दैवीय स्वरूप जिसकी यज्ञ से पूजा होती है। एवं साकार है इन दोनों में अभेदता है। ये ब्राह्मण ग्रन्थों के वचन हैं। इनमें जो अविश्वास करता है। वह नास्तिक है क्येांकि नास्तिकों वेद निन्दक: ऐसा मनु कहते हैं।
शंकाराचार्य ने इसी षड्विंश ब्राह्मण के प्रथम सूत्र को लेकर साकार व निराकार उपासना को व्याख्यायित किया था।
जगद्गुरू आदि शंकाराचार्य ने न केवल वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की वरन् मनुष्य जीवन के मोक्ष मार्ग के लिये प्रस्थान त्रयी के नाम से उपनिषद, ब्रह्मसूत्र व गीता को स्थापित किया। इसीलिये उनके द्वारा इन तीनो पर भाष्य प्राप्त होते हैं। ब्रह्मसूत्र के भाष्य में उन्होंने कई स्थलों पर प्रमाण के लिये यथा स्मृति: कहा है। वे अपने दर्शन के प्रमाण के रूप में धर्मशास्त्रों को मानते हैं। यथा पुराण व स्मृतियाँ आदि। ऐसे में वे मूर्त्ति पूजा के विरेाधी कैसे हो सकते थे। ईश्वर के जितने भी स्वरूप हैं शिव, विष्णु, सूर्य, गणपति, दैवी आदि इन सभी पर उन्होंने कई स्तोत्रों की रचना की है। यही नहीं पंचदेवोपासना की भी पुनर्स्थापना शंकराचार्य ने की है। इनमें शिव, विष्णु, गणपति, सूर्य एवं शक्ति पाँच देवों के रूप में हैं। यही पंचदेवोपासना वर्तमान पर्यन्त अक्षुण्ण चली आ रही है। अत: जगद्गुरू आदिशंकाराचार्य जी ने पुनर्स्थापना की है नवीन परम्परा कोप्रकट नहीं किया है।
इसी प्रकार उन्होंने परात्परब्रह्म की साधना के लिये उपनिषदों के प्रमाण दिये वहीं उन्हेांने कई अन्य स्थलो से भी प्रमाण दिये। यही तथ्य परापूजा में प्राप्त होता है। एवं जिस मत की जहाँ स्थापना की जाती है वहाँ उस मत के मण्डन के साथ शेष सारे मतों का खण्डन भी किया जाता है। यही कारण रहा कि वेदपाखण्डीयों को शंकराचार्य के लिये भ्रान्ति उत्पन्न हो गई।
अब उनके कुछ नकली समर्थक उन्हें भी स्वयं की तरह पाखण्डी सिद्ध करने पर तुले हुये हैं। जगद्गुरू आदि शंकराचार्य को शिवावतार मानने में उनको भय लगता है। कि कहीं उनके द्वारा निराकार उपासना को झूठा ढकोसला बनाया हुआ है। वह टूट न जाय। इससे तो अच्छा है कि उन्हें माने ही नहीं। किन्तु ऐसा कहने पर तो पूरा संगठन ही झूठा सिद्द्ध हो जायेगा। इसीलिये अच्छा है हम जगद्गुरू आदि शंकराचार्य को भी अपने संगठन में ही मिला देते हैं। पर हमारे संगठन की स्थापना तो कल हुई है। तो ठीक है जगद्गुरू आदि शंकराचार्य को हमें निराकार सिद्ध कर देते हैं। ये सर्वविदित है इनसे बड़े कुतर्की सम्पूर्ण विश्व में नहीं मिलेंगे। मैं चाहे ये मानूँ मैं चाहे वो मानूँ मेरी इच्छा चाहे जिसे प्रक्षिप्त कह दूँ चाहे जिसे अस्वीकार कर दूँ मेरी इच्छा वाला सिद्धान्त इन संगठनों का है। तथापि ज्ञात हो कि शंकराचार्य ने ही एक अत्यन्त मनोरम चेतावनी परक भजन लिखा है भज गाविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ मते। न हि न हि रक्षति डूकृंकरणे। ऐसे में यदि वे मूर्त्ति पूजा विरोधी होते तो। भज गोविन्दं ही क्यों लिखते?
वेदपाखण्डी :—जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने गीता पर पूरा भाष्य नहीं लिखा उनका प्रथम अध्याय पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं होता है
सनातनी:— शंकराचार्य जी का गीता भाष्य पूरा पढ़ा है?
वेदपाखण्डी :— हाँ पूरा पढ़ा है
सनातनी:—पूरा पढ़ने से तात्पर्य केवल अन्तिम पृष्ठ पढ़ना नहीं है मूर्ख! उसकी प्रथम पंक्तियाँ पढ़ी हैं?
वेदपाखण्डी :— नहीं उसमें ऐसा क्या है?
सनातनी:— उसी में ही प्रथम अध्याय की व्याख्या शंकराचार्य करते हुये कहते हैं कि प्रथम अथ्याय में जो मोह है उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है वह सामान्य रूप से सभी में है अत: अर्जुन को जो विशाद है उसकी भिन्न व्याख्या की आवश्यकता नहीं है इसीलिये द्वितीय अध्याय से ही प्रारम्भ करते हैं—*अत्र च दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्'(1.2 से) इत्यारभ्य ‘न योत्स्य'(2.9तक) इति ‘गोविन्दमुक्त्वा तूष्णी बभूव ह’इति एतदन्त: प्राणिनां शोकमोहादिसंसारबीजभूतदोषोद्भव— कारणप्रदर्शनार्थत्वेन व्याख्येयो ग्रन्थ:
वेदपाखण्डी :— ऐसा लिखा है तो क्या हुआ?
सनातनी:— इसका तात्पर्य है कि जो यह अनर्गल प्रलाप प्रचारित किया हुआ है कि शंकराचार्य जी ने गीता के प्रथम अध्याय को माना ही नहीं है अथवा उस समय था ही नहीं प्रक्षेपित है आदि आदि जो अशास्त्रीय धारणाएँ प्रचारित करके शंकराचार्य का मूर्तिपूजा विरुद्ध बताने का षड्यन्त्र कर रहे हैं वह व्यर्थ है। जगद्गुरु ने जिस समय गीता जी का भाष्य किया था उस समय वह पाठ उपलब्ध था। अत: यहाँ गीता जी में प्रक्षिप्त सम्बन्धी वितण्डा का शमन हुआ। तथा यह प्रमाणित हुआ कि गीता जी में तथा शंकराचार्य मूर्त्तिपूजा के समर्थक थे। अत: आधुनिक संगठनों आदि के द्वारा जो उनके बारे में मिथ्या प्रचारकिया जा रहा है वह व्यर्थ प्रमाद है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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