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संगीतियों और महायान की उत्पत्ति
श्री नागेंद्रनाथ उपाध्याय, एम. ए., रिसर्च फेलो, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय।
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के समय के विषय में बहुत मतभेद है। विंटरनित्स ने उनका जीवनकाल ई० पू० ४८५ के लगभग माना है। सांप्रदायिक परंपरा के अनुसार, जिसमें विंटरनित्स महोदय को संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती, बुद्ध, ८० वर्ष की अवस्था तक जीवित थे। उन्होंने बुद्ध के समय को ई० पू० ५३५ से ई० पू० ४८५ तक माना है। तात्पर्य यह कि बुद्ध का अधिक से अधिक समय ई०पू० ४८५ तक माना जा सकता है। बुद्ध जैसे महापुरुष का विरोध उनके शिष्यों में से भी कुछ ने किया था । बुद्ध की शिष्यमडली में ही देवदत्त उनका विरोधी ही नहीं पडयन्त्रकारी भी था। महापरिनिर्वाण पर बूढे सुभद्र ने कहा या—“ग्रच मत रोश्रो, हमें छुट्टी मिल गई । उस महाश्रमण से तंग ही रहा करते थे। अब हम जो चाहेंगे, करेंगे। कोई कहनेवाला नहीं है कि यह तुम्हें करना चाहिए, यह नहीं।” उस समय आचार संबंधी नियम बहुत कठोर थे । वैयक्तिक संपत्ति रखना अनुचित समझा जाता था। महापरिनिर्वाण के सौ वर्ष बाद कितने ही बौद्ध धन के पीछे दौड़ने लगे। उन लोगों ने अपना एक दल बना लिया । धीरे धीरे बुद्ध के वचनों और उनके अर्थो में, उनके आचार सबंधी विचारों के संबंध में, मतभेद उत्पन्न होने लगे। बौद्ध धर्म और साहित्य के इतिहास में संगीतियों की घटनाएँ मूल उपदेशों के संग्रह, संरक्षण और धार्मिक दार्शनिक विवादों को दूर करने के लिये हुई। इस प्रकार संगीतियों का संबंध जहाँ एक और साहित्य की व्यवस्था, सरक्षण आदि से है, वहीं दूसरी ओर अनेक सप्रदायो, मत मतातरों का प्रकाशन भी उन्हीं के माध्यम से हुआ ।
संगीतियों के विषय में डा० विनयतोष भट्टाचार्य का मत है कि बौद्ध साहित्य के विकास और नवीन सप्रदार्थों के उद्भव के अध्ययन में इनका विशेष महत्व है। बुद्ध के समय में ही उनके उपदेशो को दुहराया जाता था, उनका गायन किया जाता था। बुद्ध ने बोधि प्राप्त करने के बाद अपना सपूर्ण जीवन उपदेश देकर ही बिताया था। बाद में उनकी शिक्षाएँ सुरक्षित रहें, इस ध्येय से, बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, उनके कट्टर शिष्यों ने अनेक संगीतियाँ ( सभायें ) कीं। वे उन संगीतियों में बुद्ध की शिक्षाओं का गायन, उद्धरण, श्रावृत्ति, सरक्षण करते रहे। यद्यपि प्रथम संगीति का संबंध शुद्ध रूप से बुद्ध के वचनों से ही था किंतु बाद में जो नवीन विचार तथा मतभेद उत्पन्न हुए, वे भी संगीतियों में प्रकाशित होने लगे। अनतर या परंपरा बन गई कि कोई भी नवीन विचार तब तक मान्य न होगा जब तक वह बौद्धों को संगीति (गायन, संरक्षण, उद्धरण और श्रावृत्ति की सभा ) में मान्य न हो जाय । बौद्ध साहित्य में संगीतियों या सभाओं का जो वर्णन मिलता है, वह इसी का सूचक है। उदाहरण के लिये भट्टाचार्य महोदय ने गुहयसमान तंत्र को उपस्थित किया है।
बौद्ध साहित्य में यद्यपि अनेक संगीतियों का वर्णन मिलता है तथापि उनमें पाँच प्रधान है । बौद्ध परंपरा के अनुसार प्रथम संगीति बुद्ध के महा परिनिर्वाण के कुछ सप्ताह बाद हुई। महाकाश्यप की अध्यक्षता में बुद्ध के पाँच सौ वीतराग शिष्य राजगढ़ (धुनिक राजगिरि) में वैभार पर्वत की सतपर्णी गुह्य में एकत्रित हुए। यह सभा धर्म और विनय के वचनों को व्यवस्थित करने के लिये हुई थी । ऊपर बताया जा चुका है कि बुद्ध के समय से ही विनय और नैतिक नियमो का विरोध आरंभ हो गया था। प्रथम संगीति के सौ वर्ष के भीतर ही लिपिबद्ध और व्यवस्थित कठोर नैतिक नियमो का भी विरोध प्रारंभ हो गया । इस विरोध को ऊँचा स्वर देनेवाले भिक्षु बजिदेश के थे। वजिदेश की राजधानी वैशाली थी जिसे ग्रामफल मुजफ्फरपुर जिले का वसाट ग्राम कहते हैं। इन भिक्षुओं को वजिपुत्तक, वजिपुत्तिक तथा वात्सीपुत्तीय इत्यादि कहा गया है। इन्हीं लोगों के विरोध की शांति के लिये वैशाली की द्वितीय संगीति लगभग ई० पू० ३८८३ में हुई। इसी संगीति के बाद स्थविरवादी और महासाधिक नामक दो भेद बौद्ध धर्म के हो गये। यह सगीति आठ मास तक अनवरत चलती रही। इसी सगीति में वजिदेशीय भिक्षुओं ने, भिक्षुओं के लिये जो नियम प्रथम संगीति में उपालि आदि के द्वारा व्यवस्थित किये गये थे, उनके अपवाद खोजकर उनमें सुधार करना चाहा। किंतु इस संगीति तक अपरिवर्तनवादी कट्टर मित्रों की दृढ़ता के कारण वे सफल न हो सके। अतः परिवर्तनवादी वजिदेशीय भिक्षुओं ने कौशाबी (आधुनिक प्रयाग के पास फोसम) में अपनी एक सभा की । कौशाबी की संगीति में दस हजार भिक्षु थे। दस हजार भिक्षुत्रों के महासंघ के कारण ये लोग महासाधिक कहलाये तथा विनय में किसी प्रकार का परिवर्तन न चाहने वाले भिक्षुओं को स्थविरवादी कहा गया ।
तृतीय संगीति अशोक ने पाटलिपुत्र में महास्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में लगभग ई० पू० २५.१ में बुलाई थी । विंटरनिट्स ने इस संगीति का समय बुद्ध के निर्माण के २३६ वर्ष वाद माना है। द्वितीय और तृतीय संगीति के बीच अनेक संप्रदाय खड़े हो गये थे। कथावथ्यु में जिन १८ निकायों का खंडन मिलता है, उनके अतिरिक्त भी अनेक निकाय उस समय वर्तमान थे । महावश के प्रथम परिच्छेद में इन निकायों के विकास का क्रम दिया गया है जिसमें महासाधिक निकाय की भी गणना की गई है। कथावत्यु में, महावश में वर्णित निकायों की आलोचना और खंडन तो है हां, साथ ही अघक, अपरलीय, पूवलीय, राजगिरिक, सिद्धार्थक, वेतुल ( वैपुल्य ), उत्तरापथक और हेतुवादियों की भी आलोचना की गई है। श्री भदत शातिभिक्षु का मत है कि इनमें वैपुल्य, महायान का प्राचीन रूप है। उनका तर्क यह है कि अठठकथा में वैपुल्य को महाशून्यतावादी कहा गया है। और शून्यवाद महायान का ही एक दार्शनिक सिधांत है। इससे वैपुल्य के महायाना मत होने में सदेह नहीं। अधक इत्यादि निकायों के सूत्र भी महायान सूत्र कहलाते हैं । तात्पर्य यह कि महायान इन अधकादि निकायों का एकीकरण है। पूर्व शैल और परशैल आध्रदेशीय पर्वत है कनिकाय नामकरण भी ( श्री शांतिभिक्षु के मत के अनुसार आंध्र के नाम पर ही किया गया है। इस प्रकार महायान की उत्सभूमि आंध्र देश है। आंध्रप्रदेश के धान्यकटक में एक चैत्य है जिसे महाचैत्य कहते हैं। शांतिभिक्षु ने मजु श्री मूलकल्प से एक उदाहरण देकर प्रमाणित किया है कि इस महाचैत्य के नाम पर प्रसिद्ध होने वाले चैत्यवादी भी महासाधिक ही थे ।
तृतीय संगीति में इन अनेक निकायों के परस्पर मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न किया गया। इसी समय स्थविर लोग भिन्न भिन्न देशों में प्रचार के लिये गये । परिणामत: लंका, ब्रह्मा, स्याम में स्थविरबादी बौद्धधर्म प्रसारित हो गया। इस सभा में तिस्स ने सहस्र भिक्षुओं की संगीति की थी। वास्तव में यह स्थविरवादियों की सभा थी। कहा जाता है कि कथावट्टू का निर्माण तिस्स ने ही किया था और उसमें उन्होंने विभजवादियों से भिन्न निकायों का कठोर खंडन किया था । सारनाथ, साँची और भारहुत की स्तंभलिपियों से ज्ञात होता है कि अशोक ने अनाचारपरायण बौद्ध भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र पहनवा कर निकाल देने का आदेश दिया था।(हिंदी साहित्य का इतिहास – प.हज़ारी प्रसाद द्विवेदी प्रष्ठ १९० ) ऐसा मालूम होता है कि इन निष्कासित भिक्षुओं ने अपना आसन नालंदा के पास ही कहीं जमाया होगा। हर्ष के बाद से नालंदा विद्यापीठ हीनयान विरोधी संप्रदाय का केंद्र बना। विज्ञानवाद का उत्कर्ष भी वहीं हुआ । बौद्धधर्म और संप्रदाय के परवर्ती विकास की दृष्टि से नालंदा विशेष महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि बहिष्कृत और तिरस्कृत होने के बाद महासाधिकों का केंद्र नालंदा ही रहा होगा ।
चतुर्थ संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क ने बुलाई जिसका समय कुछ लोग ७८ ई० मानते हैं। इसमें सर्वास्तिवादी शाखा के ५०० भिक्षु एकत्रित हुए थे । सभास्थान काश्मीर का कुंडलवन था । वसुमित्र और अश्वघोष इसके अध्यक्ष थे। दोनों ही सर्वास्तिवादी थे। इस संगीति के बाद चीन में भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। चीनी साहित्य में हीनयानी श्रौर महायानी दोनो के ग्रंथ अनूदित रूप में प्राप्त होते है किंतु वहाँ का धार्मिक रूप महायानी ही रहा । कनिष्क के समय तक महायान पूर्ण विकसित हो चुका था और उसे राज्याश्रय भी मिलने लगा था, इसका पता कनिष्क के सिक्कों से लगता है। उस समय तक बुद्ध का स्थान देवपरक हो चला था। अनेक बोधिसत्त्वों की कल्पना हो चुकी थी। कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध की प्राकृतियाँ मिलती है। इसी समय से गांधार कला का अभ्युदय भी माना जाता है। साँची और भारहुत में जो अशोकीय तथा स्थविरवादी कला के नमूने मिलते हैं, उनमें बुद्ध सबंधी कहानियों को उत्कीर्ण किया गया है किंतु उनमें बुद्ध की प्रतिमाएँ नहीं मिलती। कनिष्क काल तक आते आते महायान धर्म ने कला में बुद्ध के चरण, वोधिवृक्ष, रिक्त आसन, अथवा छत्र आदि के स्थान पर उनकी मूर्तियों को प्रश्रय दे दिया। तात्पर्य यह कि महायान का पूर्ण प्रकाशित रूप कनिष्क के समय मे आया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग ५०० वर्षो बाद महायान पूर्ण प्रतिष्ठित हो गया ।
इन पाँच सौ वर्षों मे कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आई। इनका प्रकाशन क्रमशः हुआ। ये सभी बातें आगे चलकर ‘महायान’ धर्म और दर्शन का निर्माण करनेवाली सिद्ध हुई । महापरिनिर्वाण के बाद ही भिक्षुओं ने बुद्ध के जीवन और उपदेशों का अध्ययन आरम्भ कर दिया। तृष्णानिरोध उनके उपदेशों में प्रधान था । प्रत्येक मिक्षु अपनी वैयक्तिक उन्नति के लिये तृष्णा निरोध का अभ्यास करता था । वुद्ध ने स्वय तृष्णानिरोध किया ही था, बाद में अस्सी वर्ष की अवस्था तक उन्होंने धूम-घूमकर उसका उपदेश भी दिया था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सभवत. बुद्ध का उद्देश्य केवल अपनी ही तृष्णा के निरोध तक सीमित नहीं था। उनका उद्देश्य सामाजिक था । इसीलिये उन्होंने अपना पूरा जीवन चार आर्यसत्यों के उपदेश में लगा दिया था। बुद्ध के बुद्धत्व के विषय में विचार करते हुए लोगों ने अनुमान किया कि बुद्ध ने अनेक जन्मातरों में अभ्यास के बाद बुद्धत्व प्राप्त किया होगा। अनेक जन्मातरों तक उन्होंने अपनी तृष्णा के निरोध का अभ्यास संसार के दुःखी प्राणियों के उद्धार के लिये किया होगा। किंतु उन जन्मातरों में भी क्रमशः विकास हुआ होगा। अतः पारमिताओं की कल्पना की गई। उनके जन्मातर से संबध अनेक कहानियों गढ़कर उनके व्यक्तित्व से संबद्ध कर दी गई। यह माना जाने लगा कि बुद्धत्व प्राप्त करने के लिये पारमिताओं (मानवीय गुणों की पूर्णता) का अभ्यास करना चाहिए। अनेक अतीत बुद्ध और बोधिसखों की कल्पना की गई। बोधि प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले बोधिसत्व कहलाते थे अनेक अतीत बुद्धों के चरित्र का संग्रह बुद्धवश में मिलता है उन अतीत बुद्धों को शाक्य मुनि से मिलाने के लिये कहा गया कि शाक्य मुनि ने उन अतीत बुद्धों की अपने पूर्व जन्मों में सेवा की थी और भविष्य में भी इसी प्रकार बुद्ध अवतरित होंगे। अवतारवाद ने प्रवेश पाया। उन पर अलौकिकता का आरोप किया गया । इस प्रकार इन पाँच सौ वर्षों में बुद्ध की लौकिकता, तृष्णा निरोध, पारमिताएँ, बौधिसत्व, अतीत बुद्ध, व्यक्तिगत साधना का सामाजिक उद्देश्य इत्यादि सामने आई ।
साभारः तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य
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