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सप्तर्षि संवत्
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
१. बाली जी के ३ मत-
श्री चन्द्रकान्त बाली के लेख को कई लोग इस सम्बन्ध में उद्धृत करते हैं। उन्होंने अपने किसी उद्धरण का स्रोत नहीं दिया है, तथा इसे ९ कालमानों में कहा है। सूर्य सिद्धान्त (१४/१) के अनुसार ९ प्रकार के काल हैं, जिनमें सप्तर्षि संवत् का उल्लेख नहीं है-
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम्।
सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥
बड़े मान से आरम्भ कर इनका क्रम है-ब्राह्म, प्राजापत्य, दिव्य, गुरु, चान्द्र, सौर, सावन, नाक्षत्र।
२७०० दिव्य वर्ष या ३०३० मनुष्य वर्ष का सप्तर्षि युग होता है-
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषेण प्रमाणतः ।
त्रिंशदधिकानि तु मे मतः सप्तर्षि वत्सरः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१६, वायुपुराण, ५७/१७)
सप्तविंशति पर्यन्ते कृत्स्ने नक्षत्र मण्डले ।
सप्तर्षयस्तु तिष्ठन्ते पर्यायेण शतं शतम्॥ (वायु पुराण, ९९/४१९, ब्रह्माण्ड पुराण २/३/७४/२३१)
यहां, मानुष वर्ष = चन्द्र परिक्रमा वर्ष = २७.३ दिन चन्द्र परिक्रमा x १२ = ३२७.५३६४ दिन।
३०३० मानुष वर्ष = २७१७.१४ सौर वर्ष (३६५.२५ दिन का)
चन्द्रकान्त जी ने ३ प्रकार सप्तर्षि वर्ष की परम्परा मानी है जिसका कोई प्रमाण नहीं दिया है-
(१) मुल्तान मत (२) कश्मीर मत (३) पाटलिपुत्र मत
पाटलिपुत्र के ज्योतिषी आर्यभट तथा उसके बाद मुंजाल या मंजुल थे। किसी ने सप्तर्षि वर्ष की चर्चा नहीं की है। कश्मीर के कल्हण की राजतरंगिणी में सप्तर्षि वर्ष की चर्चा है जो वराहमिहिर वर्णन के अनुसार है। राजतरंगिणी में बुह्लर ने प्रथम अध्याय में एक काल्पनिक श्लोक जोड़ कर भ्रम उत्पन्न किया था, पर उसी पुस्तक की बाद की गणनाओं से यह स्पष्ट है कि उनका वही मत था जो वराहमिहिर का है तथा कश्मीर के ही उत्पल भट्ट ने वराहमिहिर के पञ्चसिद्धान्तिका की टीका में वही गणना लिखी है। मुल्तान मत का कहीं उल्लेख नहीं है। बाली जी के जन्म स्थान के निकट था किन्तु मेगास्थनीज वहां आया था या नहीं, इसमें सन्देह है।
एक जैन ग्रन्थ चन्द्रावदान कालतन्त्रम् के सन्दर्भ से उन्हों ने कहा है (अज्ञात स्रोत) कि सौर वर्ष से समन्वय के लिए २७,०० वर्षों के चक्र में १८ वर्ष जोड़ने की बात कही है। किन्तु वास्तविक पंचांग में इसका प्रयोग कहीं नहीं है। ऊपर पुराण अनुसार गणना में ३०३० मानुष चर्ष २७१७.१४ सौर वर्ष के बराबर दिखाया गया है, इसके अनुसार २७००वर्ष में १७.१४ या १८ वर्ष जोड़ सकते हैं।
बाली जी ने ३ चक्रों के उदाहरण दिये हैं तथा उसके लिए २ श्लोक उद्धृत किए हैं-
आभरताभिषेकान्तु यावज्जन्य परीक्षित:।
एतद् वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम्॥
(यह श्लोक किसी पुराण में नहीं है)
आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।
एतद् वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम्॥
(यह भागवत पुराण, १२/२/२६ में है किन्तु मूल श्लोक को अपनी सुविधानुसार बदल दिया है। विष्णु पुराण ४/२४/१०४-१०८ में पूर्ण वर्णन है=
यावत् परीक्षितो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम्।
एतद् वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चशतोत्तरम्॥१०४॥
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वे दृश्येते ह्युदितो दिवि।
तयोऽस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्येते यत्समं निशि॥१०५॥
तेन सप्तर्षयो युक्तास्तिष्ठत्यब्द शतं नृणाम्।
ते तु पारीक्षिते काले मघास्वासन् द्विजोत्तम॥१०६।
तदा प्रवृत्तश्च कलिर्द्वादशाब्द शतात्मकः॥१०७॥
यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज।
वसुदेव कुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः॥१०८॥
अर्थात् परीक्षित जन्म के समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे। उसके १५०० वर्ष बाद नन्द का अभिषेक हुआ। परीक्षित अभिषेक के कुछ पूर्व जब भगवान् श्रीकृष्ण द्युलोक गये तब १२०० वर्ष के कलि का आरम्भ हुआ।
भागवत पुराण के पाठ में पञ्चशतोत्तरम् को पञ्चाशतोत्तरम् कर दिया है, अर्थात् एक मात्रा के अन्तर से ५०० वर्ष को ५० वर्ष कर ४५० वर्ष कम कर दिया है। महापद्मनन्द के पूर्व एक राजा नन्दिवर्धन से इसे जोड़ कर १०५० मत को भी उचित माना है, किन्तु पुराण गणना के अनुसार नन्दिवर्धन का राज्य महापद्मनन्द के केवल ८५ वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ, ४५० वर्ष पूर्व नहीं। बाली जी ने थोड़ा और कम कर पञ्चदशोत्तरम् अर्थात् मात्र १५ वर्ष कर दिया है, जो किसी पाठ में नहीं है।)
बाली जी के अनुसार ये काल्पनिक पौराणिक सन्दर्भ तीन शासनकालों को सूचित करते हैं-
(क) भरताभिषेक (सप्तर्षि संवत्-१०१५)
(ख) परीक्षित का जन्म (सप्तर्षि संवत्-१०१५)
(ग) राजा नन्द का अभिषेक (सप्तर्षि संवत्-१०१५)
इन तीनों अंकों को इस प्रकार ई.पूर्व में पलट सकते हैं-
(क) ६८८१-१०१५ = ५८६६ ई.पूर्व में शकुन्तला पुत्र भरत का अभिषेक
(ख) ४१६३-१०१५ = ३१४८ ईपू में राजा परीक्षित का जन्म हुआ। इसी आधार पर उन्होंने ३१४८ ईपू. में महाभारत युद्ध का होना माना है।
(ग) १४४५-१०१५ = ४३० ईपू में नवम नन्द का अभिषेक हुआ। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ४३० ई.पू. में नवम नन्द का अभिषेक होना पुराण सम्मत भी है और मेगास्थनीज सम्मत भी। यह हर मत से गलत गणना है। सिकन्दर आक्रमण के समय गुप्त काल का आरम्भ हुआ था जिसका कई प्रकार से समकालीन ग्रीक लेखकों ने वर्णन किया है-
(१) बाक्कस आक्रमण (जिसमें सूर्यवंश राजा सगर के पिता बाहु मारे गये) के १५४ पीढ़ी या ६४५१ वर्ष ३ मास बाद सिकन्दर का आक्रमण।
(२) अन्तिम आन्ध्र वंश राजा, उसके सेनापति घटोत्कच गुप्त (नाम का अनुवाद नाई), चन्द्रगुप्त प्रथम (साण्ड्रोकोट्टस), समुद्रगुप्त (साण्ड्रोक्रिप्टस), चन्द्रगुप्त द्वितीय (अमित्रोच्छेदस = मित्र उच्छेदक या दिगिजयी)।
(३) उसके पूर्व ३०० वर्ष के गणतन्त्र का उल्लेख (शूद्रक शक ७५६ ईपू से श्रीहर्ष शक ४५६ ईपू तक)
यदि सिकन्दर आक्रमण के साथ चन्द्रगुप्त मौर्य का भी आरम्भ मानें तो उसके १०० वर्ष पूर्व ही महापद्मनन्द का शासन ४२७ में आरम्भ हुआ। उसके ८८ वर्ष शासन के बाद ३३९-३२७ ईपू उसके ८ पुत्रों का शासन था। अन्तिम पुत्र प्रायः नवम नन्द ३२९ या ३२८ ईपू में राजा बना होगा।
बाली जी ने सप्तर्षि की केवल सीधी गति मानी है, विलोम गति नहीं। वास्तव में सीधी या विलोम कोई भी गति नहीं है।
२. पुराण मत-
तारा प्रायः स्थिर होते हैं अतः उन्हें नक्षत्र (क्षत्र = चलना) कहा जाता है। किन्तु सप्तर्षि मण्डल के पूर्व भाग में स्थित पुलस्त्य, क्रतु तारों को मिलाने वाली रेखा विपरीत गति से नक्षत्र को १०० वर्षों में पार करती है-
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वो दृश्येते ह्युदितौ दिवि।
तयोऽस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यस्तमं निशि॥१०५॥
तेन सप्तर्षयो युक्ता तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्॥
(विष्णु पुराण ४/२४/१०५, वायु पुराण, ९९/४२१, ४१२, ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/७३/२३३, २३४)
इस गति की माप कब और कैसे हुई, इसका कहीं उल्लेख नहीं है। किन्तु यह गति होती है और किसी काल में प्रायः १०० वर्ष में एक नक्षत्र रही होगी। ठीक १०० वर्ष किसी काल में रही होगी।
एक और भ्रम फैलाया गया है कि महापद्मनन्द के अभिषेक के समय सप्तर्षि पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में थे। इसका कहीं उल्लेख नहीं है। सम्भवतः नन्द काल परीक्षित के १०५० वर्ष बाद करने के लिए मघा के १० नक्षत्र बाद पूर्वाषाढ़ मान लिया है।
कलियुग राजवृत्तान्त भाग ३, अध्याय ३ के अनुसार सप्तर्षि गति (Astronomical Dating of Mahabharata, E. Vedavyasa, IAS Retd, Vedavyasa Bharati, Hyderabad, 1995, Chapters 3, 14, 15, Appendix II)-
यस्मिन् कृष्णो दिवं यातसतस्मिन्नेव हि वत्सरे।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥
यावत् स भगवान् विष्णुः पस्पर्शेमां वसुन्धराम्।
तावत् पृथ्वीं पराक्रान्तुं समर्थो नाभवत् कलिः॥
(भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम गमन से कलि का आरम्भ प्रायः सभी पुराणों ने माना है)
यदा मघायात् यांस्यन्ति पूर्वाषाढ़ा महर्षयः।
तदा प्रभृत्येव कलिवृद्धिं यास्यति निश्चितम्॥
(कलि वृद्धि का अर्थ यह नहीं है कि नन्द शासन आरम्भ हुआ। कलि की १२०० वर्ष अवधि का १००० वर्ष से अधिक बीतने पर वह वृद्ध हो गया अर्थात् समाप्ति के निकट पहुंचा।)।
यदा युधिष्ठिरो राजा शक्रप्रस्थे (इन्द्रप्रस्थ) प्रतिष्ठितः।
तदा सप्तर्षयः प्रापुर्मघाः पितृहिते रताः॥
(मघा के देवता पितृ हैं। महाभारत पूर्व युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्थ बसा कर वहां राज्य किया, वर्तमान दिल्ली में पाण्डवों का किला। महाभारत के बाद वे हस्तिनापुर में रहे जो मेरठ के निकट था। प्रायः ३०० वर्ष बाद यह निचक्षु शासन में डूब गया)
पञ्चसप्ततिवर्षाणि प्राक् कलेः सप्त ते द्विजाः।
मघा खासन् (ख = नक्षत्र) महाराजे शासंत्युर्वीं युधिष्ठिरे॥
पञ्चविंशतिवर्षेषु गतेष्वथ कलौ युगे।
समाप्य पित्र्यं (मघा) आश्लेषां मुनयस्ते शतं समाः॥
(कलि वर्ष २५ तक मघा में रहने के बाद सप्तर्षि १०० वर्ष तक आश्लेषा में रहे। यह मघा से पहले का नक्षत्र है, अर्थात् सप्तर्षि की विलोम गति का उल्लेख है।)
तदैव धर्मपुत्रोऽपि महाप्रस्थानमास्थितः।
भुवं परिभ्रमन्नन्ते स्वर्गमारोक्ष्यति ध्रुवम्॥
(धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने राज्य छोड़ने के बाद तीर्थयात्रा की, २५ वर्ष बाद उनका देहान्त हुआ)
महापद्माभिषेकान्तु यावज्जन्म परीक्षितः।
एवमेव सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चशतोत्तरम्॥
(महापद्म नन्द से परीक्षित जन्म तक का समय १५०० वर्ष है)
आन्ध्र राज्यावसानात्तु यावन्नन्दाभिषेचनम्।
यदा पुनर्वसुं यास्यन् तयेते सप्तर्षयः पुनः॥
तदा श्रीगुप्त वश्यानां राष्ट्र दैन्यं गमिष्यति।
पूर्वभाद्रा यदा ते तु प्रवेक्ष्यन्ति पुनर्द्विजाः॥
(महापद्म अभिषेक के १५०० वर्ष बाद आन्ध्र वंश तथा उनके भृत्य श्रीगुप्त शासन के अन्त समय सप्तर्षि पुनर्वसु में प्रवेश करेंगे। पुनर्वसु के ३ नक्षत्र बाद पुष्य, अश्लेषा, मघा ३०० वर्ष में होगा। उसके बाद २७०० वर्ष में पूर्ण चक्र होगा। परीक्षित जन्म के बाद नन्द अभिषेक और गुप्त काल के अन्त तक १५०० + १५०० = ३००० वर्ष पूर्ण हुए। पूर्वभाद्रपद में उसके ९०० वर्ष पूर्व होंगे, प्रायः १००० ईपू में जब द्विज शासन शुंग वंश का होगा।)
यदा पुनर्वसुं यास्यन् तयेते सप्तर्षयः पुनः।
तदा श्रीगुप्त वश्यानां राष्ट्रं दैन्यं गमिष्यति॥
(गुप्त वंश में स्वर्णयुग नहीं, दैन्य)
पूर्वभाद्रा यदा ते तु प्रवेक्ष्यन्ति पुनर्द्विजाः।
गुप्तेभ्यो मागधं राज्यं तदा पालान् गमिष्यति॥
(विक्रमादित्य के अधीनस्थ पाल राजा)।
३. सप्तर्षि चक्र-
सप्तर्षि को पहले ऋक्ष (भालू) कहते थे। अंग्रेजी में भी उसे Great Bear (बड़ा भालू) Ursa major (ग्रीक में उर्स = ऋषि का अर्थ भालू) कहते हैं।
एकं द्वे त्रीणि चत्वारीति वा अन्यानि नक्षत्राणि। अथैता एव भूयिष्ठा यत् कृत्तिकाः। एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्ते। सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्च्यवन्ते। ऋक्षाणां ह वा एता अग्रे पत्न्य आसुः। सप्तर्षीनु ह स्म पुरर्क्षा इत्याचक्षते। अमी ह्युत्तरा हि सप्तर्षय उद्यन्ति पुर एताः। (शतपथ ब्राह्मण, २/१/२/१-४)
जज्ञानः सप्तमातृभिः मेधामाशासत श्रिये। अयं ध्रुवो रयीणां चिकेतदा। (सामवेद, पूर्वार्चिक, २/१/१०१)
अन्य नक्षत्रों में १, २, ३, ४ या अन्य नक्षत्र हैं। इनमें श्रेष्ठ कृत्तिका नक्षत्र के ७ तारा सप्त माता रूप हैं। ये प्राची दिशा से नहीं च्युत नहीं होती। अर्थात् कृत्तिका में वसन्त सम्पात होता था। सप्तर्षि सदा उत्तर में रहते हैं, उनकी ये पत्नी हैं। अतः सप्तर्षि पितर हैं। (मघा नक्षत्र के देवता पितर हैं)।
ध्रुव या क्रौञ्च युग-यह सप्तर्षि युग का ३ गुणा या अयन चक्र (२६,०००) वर्ष का प्रायः १/३ भाग है। इसमें ९०९० मानव वर्ष या ८१०० (८१५२) सौर वर्ष होंगे-
नव यानि सहस्राणि वर्षाणां मानुषानि तु।
अन्यानि नवतिश्चैव ध्रुवः सम्वत्सरः स्मृतः॥
(ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१८, वायु पुराण, ५७/१८ में क्रौञ्च सम्वत्सर)
इसका आरम्भ स्वायम्भुव मनु के पौत्र या वंशज राजर्षि ध्रुव के देहान्त से हुआ था जिस समय पृथ्वी का अक्ष ध्रुव तारा की दिशा में था। स्वायम्भुव मनु का काल २९१०२ ईपू था (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१९ के अनुसार कलि आरम्भ में व्यास पुराण काल से २६,००० वर्ष पूर्व)। राजतरंगिणी के अनुसार कलि २५ वर्ष या ३०७७ ईपू में सप्तर्षि चक्र का आरम्भ हुआ। उससे ८१०० के ३ चक्र पूर्व वर्ष लेने पर ३०७७ + ८१०० x ३ = २७३७७ ईपू में ध्रुव का देहान्त हुआ। मानव वर्ष गणना अनुसार ५२ x ३ = १५६ वर्ष पूर्व २७, ५३३ ईपू होगा।
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वया, यत्सूरयो ऽप्राप्य विचक्षते परम्।
आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयो, ग्रहर्क्षताराः परियन्ति दक्षिणम्॥२५॥
निशम्य वैकुण्ठ नियोज्य मुख्ययोः ॥२८॥
(भागवत पुराण, ४/१२/२५)
ध्रुव दिशा में अक्ष पृथ्वी की कक्षा का खूंटा है, अतः यह वैकुण्ठ लोक है।
त्रैलोक्यादधिके स्थाने सर्वताराग्रहाश्रयः।
भविष्यति न सन्देहो मत्प्रसादाद् भवान् ध्रुव॥९०॥
सूर्यात् सोमात् तथा भौमात् सोमपुत्राद् बृहस्पतेः।
सितार्कतनयादीनां सर्वर्क्षाणां तथा ध्रुव॥९१॥
सर्वेषामुपरि स्थानं तव दत्तं मया ध्रुव॥९२॥
केचित् चतुर्युगं तावत्, केचित् मन्वन्तरं सुराः।
तिष्ठन्ति भवतो दत्ता मया वै कल्प संस्थितिः॥९३॥
(विष्णु पुराण, १/१२/९०-९३)
ध्रुव के १ चक्र = ८१०० वर्ष बाद १९,२७७ ईपू में क्रौञ्च द्वीप के असुरों का प्रभुत्व होगा अतः वायु पुराण में इसे क्रौञ्च संवत्सर कहा गया है।
उसके बाद कार्त्तिकेय ने १५,८०० ईपू में क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण कर असुरों को पराजित किया। महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) के अनुसार उस समय अभिजित् का पतन हुआ था, अर्थात् उत्तर अक्ष की दिशा उससे दूर हट रही थी। उसके बाद धनिष्ठा नक्षत्र से संवत्सर आरम्भ हुआ जो उस समय वर्षा आरम्भ का समय (उत्तरायण अन्त) था। वेदाङ्ग ज्योतिष में वर्ष आरम्भ माघ मास से माना गया है। अतः मघा नक्षत्र से सप्तर्षि चक्र का भी आरम्भ होता है और इसके देव पितर हैं।
ध्रुव वर्ष का द्वितीय चक्र ११, ०७७ ईपू में पूर्ण हुआ जब वैवस्वत यम का काल था। उसके बाद जल प्रलय हुआ।
तृतीय ध्रुव चक्र का प्रथम सप्तर्षि चक्र ८,३७७ ईपू में पूरा हुआ जब इक्ष्वाकु के पौत्र विकुक्षि का शासन था। उसे ईराक में उकुसी कहा गया है जिसके लेखों का यह समय अनुमानित है।
ध्रुव ३ का सप्तर्षि २ चक्र ५,६७७ ईपू में पूर्ण हुआ। इस चक्र के २ मुख्य काल हैं-
(१) ६,७७७ ईपू में बाक्कस आक्रमण में राजा बाहु की मृत्यु (मेगास्थनीज, इण्डिका में भारतीय गणना के अनुसार सिकन्दर आक्रमण से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व, बाहु की यवन आक्रमण में मृत्यु ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/६/१२० आदि)।
(२) ६१७७ ईपू में परशुराम के बाद कलम्ब संवत् का आरम्भ।
संयोग से ये कश्मीर लौकिक संवत् आरम्भ ३०७७ ईपू से ठीक ३१०० या ३७०० वर्ष पूर्व हैं, किन्तु ये सप्तर्षि चक्र के आरम्भ नहीं हैं, नक्षत्र परिवर्तन का वर्ष हो सकते हैं।
ध्रुव ३ का सप्तर्षि ३ चक्र ३०७७ ईपू में पूरा हुआ जब लौकिक संवत्सर का आरम्भ हुआ।
सप्तर्षि की सीधी गति के अनुसार उनके अश्विनी प्रवेश से ६७७७, ४०७७, १३७७ ईपू तथा १३२५ ई से उनके चक्र की गणना स्वामी कल्याणानन्द भारती ने की है।
ध्रुव चतुर्थ चक्र का प्रथम सप्तर्षि चक्र ३७७ ईपू में पूर्ण हुआ जब आन्ध्र वंश का अन्तिम समय चल रहा था।
पुराणों में परीक्षित जन्म से आन्ध्र वंश के २४वें राजा तक मघा से पुनः मघा तक का चक्र पूर्ण माना है (३७७ ईपू)।
सप्तर्षयः तदा प्राहुः प्रदीप्तेनाग्निना समाः।
सप्तविंशति भाव्यानामान्ध्राणां तु यथा पुनः॥ (मत्स्य पुराण, २७१/४१)
सप्तर्षयो मघायुक्ताः काले पारीक्षिते शतम्।
आन्ध्रांशे स चतुर्विंशे भविष्यन्ति मते मम॥ (वायु पुराण, ९९/४२३)
४. गणित व्याख्या-
सप्तर्षि चक्र की गति की व्याख्या सिद्धान्त दर्पण (१२/४१-५६) में की गयी है। कदम्ब (क्रान्तिवृत्त का ध्रुव) से सप्तर्षि का स्थान वही रहेगा। किन्तु ध्रुव प्रोत वृत्त के अनुसार यह स्थान बदलता रहेगा। इसमें परिवर्तन होगा किन्तु वह २७०० वर्ष के चक्र में नहीं, २६,००० वर्ष के अयन चक्र में होगा। तारा की भी सूक्ष्म गति होती है। सप्तर्षि के पूर्व दिशा के ताराओं को मिलाने वाली रेखा जिस स्थान पर क्रान्ति वृत्त को काटती है, वह सप्तर्षि का नक्षत्र होगा। इसकी विलोम गति होती है, किन्तु ठीक १०० वर्ष नहीं। इसका चक्र भी नहीं होगा।
इसे केवल पञ्चाङ्ग पद्धति मानना उचित लगता है। वेदाङ्ग ज्योतिष में १९ वर्ष के चक्र में चन्द्र-सूर्य पुनः पूर्व स्थान पर आ जाते हैं (प्रभाकर होले-वेदाङ्ग ज्योतिष, १९८५)। ५ वर्ष के चक्र के बाद चन्द्रमा १ नक्षत्र पीछे चला जाता है। १९ x ५ + ५ = १०० वर्ष में भी चन्द्र १ नक्षत्र पीछे होगा। वह उस शताब्दी का सप्तर्षि नक्षत्र कहा जा सकता है। यह अर्थ कहीं नहीं है, किन्तु वेदाङ्ग ज्योतिष गणना से यह ठीक बैठता है।
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