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सरस्वती के विभिन्न रूप
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
१. ज्ञान रूप-
सृष्टि के मूल तत्त्व का विस्तार ३ प्रकार से देखा जाता है-आकाश का विस्तार अव्यक्त पदार्थ महाकाली, व्यक्त पदार्थ महालक्ष्मी, उसकी वाक् या सलिल् (तरङ्ग) रूप ऊर्जा महा सरस्वती। वाक् द्वारा ही दूरस्थ पिण्ड का अनुभव या ज्ञान वाक् तरङ्ग द्वारा ही पहुंचता है, अतः यह ज्ञान या वेद रूप है। यह मार्कण्डेय पुराण के चण्डी पाठ में है। इनको वेद में इळा, सरस्वती, मही या भारती, इळा, सरस्वती कहा गया है।
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयो भुवः।
बर्हिः सीदन्त्वस्त्रिधः ॥ (ऋक्, १/१३/९)
भारतीळे सरस्वति या वः सर्वा उपब्रुवे।
ता नश्चोदयत श्रिये॥ (ऋक्, १/१८८/८)
ज्ञान की प्रेरक शक्ति भी सरस्वती है जिसे यहां ’चोदयत’ लिखा है। प्रेरित हो कर ही सभी कर्म या यज्ञ होते हैं, मनुष्य पवित्र और शक्तिशाली होता है। ऐसा ही भागवत पुराण में है-
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती, वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः, स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम्॥
(श्रीमद् भागवत पुराण, २/४/२२)
पावका नः सरस्वती, वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धिया वसुः॥ (ऋक्, १/३/१०)
चोदयित्री सूनृतीनां चेतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती॥ (ऋक्, १/३/११)
महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना। श्रियो विश्वा विराजति॥ (ऋक्, १/३/१२)
अर्णः या अर्णव का सामान्य अर्थ जल या उसका विस्तार समुद्र है, किन्तु यहां चेतना और प्रेरणा प्रसङ्ग में प्रयोग है। ज्ञान दो प्रकार के हैं। जिन वस्तुओं को गिना जा सके उनका ज्ञान गणेश है। कण = १ पिण्ड, गण = कण का समूह जिसकी गणना हो सके। पदार्थ अलग अलग (चिकेत) दीखते हैं तो उनको गिना जा सकता है, जल विन्दुओं की तरह मिले जुले हों तो किसी अलग विदु के बारे में कोई ज्ञान नहीं होगा। यह जल या रस जैसा फैलाव है अतः इसे रसवती या सरस्वती कहते हैं। ज्ञान के २ रूप रामचरितमानस के मङ्गलाचरण में हैं-
वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ, वन्दे वाणी विनायकौ॥
ज्ञान स्वरूप होने के कारण सरस्वती का बीजमन्त्र ऐं है जो त्रयी (ऋक्-साम-यजु) के प्रथम वर्णों का मिलन है (दुर्वासा कृत त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र, ३)।
ऐ = अ + (अ + इ)।
अ से-अग्निमीळे पुरोहितं (ऋक् का आरम्भ),
इ से-इषे त्वा ऊर्जे त्वा वायवस्थः (यजु),
पुनः अ से-अग्न आयाहि वीतये (सामवेद)।
इसी अर्थ में –
ऋक्सामे वै सारस्वतावुत्सौ। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/४/४/९)
दूसरे पिण्ड से अग्नि रूप ऊर्जा आने से ही उसका ज्ञान होगा, अतः – वेदानां सामवेदोऽस्मि (गीता, १०/२२)
२. ब्रह्माण्ड रूप-
आकाश के सबसे बड़े पिण्ड ब्रह्माण्ड का विस्तार सरस्वान् समुद्र है। असंख्य ब्रह्माण्डों में फैला पदार्थ निर्माण का मूल स्रोत नियति है, उसका ज्ञान ब्रह्माण्ड से आरम्भ हुआ, वह सरस्वती है। ब्रह्माण्ड के १०० अरब कणों में १ हमारा सूर्य है, जिसके द्वारा अपने क्षेत्र में पृथ्वी तथा उस पर जीवन का निर्माण हो रहा है। अतः सूर्य सविता है तथा उसका क्षेत्र या ऊर्जा सावित्री है। हमारा भौतिक शरीर या गात्र पृथ्वी पर बन रहा है, अतः वह गायत्री है। अन्य प्रकार से गायत्री के ३ रूप गायत्री, सावित्री, सरस्वती हैं। गायत्री २४ अक्षर का छन्द है जिससे लोकों की माप होती है। मनुष्य के आकार को २४ बार २ गुणा (प्रायः १ कोटि गुणा) करेंगे तो पृथ्वी का आकार होगा, जो गायत्री है। पुनः १ कोटि या गायत्री गुणा सौर मण्डल का आकार होगा, जो सावित्री है। पुनः गायत्री गुणा ब्रह्माण्ड का आकार होगा, जिसका विस्तार सरस्वती है।
चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री (कौषीतकि ब्राह्मण, १२/३, ऐतरेय ब्राह्मण, ३/३९)
गायत्र्या वै देवान् इमान् लोकान् व्याप्नुवन्। (ताण्ड्य महा ब्राह्मण, १६/१४/४)
गायत्रो वै पुरुषः (ऐतरेय ब्राह्मण, ४/३)
या वै सा गायत्र्यासीदियं वै सा पृथिवी (शतपथ ब्राह्मण, १/४/१/३४, ताण्ड्य महाब्राह्मण, ७/३/११)
एष वाव स सावित्रः। य एष (सूर्य्यः) तपति (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१०/९/१५)
द्यौः सावित्री (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/३३)
सरस्वान् मण्डल में ब्रह्माण्ड रूपी बालक का जन्म हुआ। इसे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में गोलोक तथा वेद में सरस्वान् कहा है। क्रिया रूप में वेद में इसे कूर्म कहा है।
दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्।
अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि॥ (ऋक्, १/१६४/५२)
जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानवः। सरस्वन्तं हवामहे॥४॥
ये ते सरस्व ऊर्मयो मधुमन्तो घृतश्चुतः। तेभिर्नोऽविता भव॥५॥
पीपिवांसं सरस्वतः स्तनं यो विश्वदर्शतः। भक्षीमहि प्रजामिषम्॥६॥ (ऋक्, ७/९६/४-६)
तां पृथिवीं (परमेष्ठी) संक्लिश्याप्सु प्राविध्यत् तस्यै यः पराङ् रसोऽत्यक्षरत्-स कूर्मोऽभवत् । (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१२)
स यत् कूर्मो नाम-एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत । यदसृजत-अकरोत्-तत् । यदकरोत्-तस्मात् कूर्मः। कश्यपो वै कूर्मः । तस्मादाहुः-सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः-इति । (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/५)
मानेन तस्य कूर्मस्य कथयामि प्रयत्नतः ।
शङ्कोः शत सहस्राणि योजनानि वपुः स्थितम् ॥ (नरपति जयचर्या, स्वरोदय, कूर्मचक्र)
ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३-अथाण्डं तजलेऽतिष्टद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
अमावास्या में ब्रह्माण्ड के तारे पूरी तरह दीखते हैं अतः अमावास्या को सरस्वती कहा गया है। इसके विपरीत पूर्णिमा रात्रि पुल्लिंग में सरस्वान् है। ऋग्वेद (२/३२/४-५ राका, ६-७ सिनीवाली)
राकामहं सुहवां सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना।
सीव्यत्वपः सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम्॥४॥
यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा॥५॥
सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः॥६॥
या सुबाहुः स्वङ्गुरिः सुषूमा बहुसूवरी। तस्यै विश्पत्न्यै हविः सिनीवाल्यै जुहोतन॥७॥
या गुङ्गूर्या सिनीवाली या राका या सरस्वती। इन्द्राणीमह्व ऊतये वरुणानी स्वस्तये॥८॥
अमावास्या वै सरस्वती, पौर्णमासः सरस्वान् (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, १/१२)
३. नदी रूप-
कई महाद्वीपों में बड़ी नदियों को सरस्वती कहते थे। शाल्मलि द्वीप की भी एक नदी सरस्वती थी।
ऋग्वेद (२/४१/१६-१८)
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि॥१६॥
त्वे विश्वा सरस्वति श्रितायूंषि देव्याम्।
शुनहोत्रेषु मत्स्व प्रजां देवि दिदिड्ढि नः॥१७॥
इमा ब्रह्मं सरस्वति जुषस्वं वाजिनीवति।
या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरि प्रिया देवेषु जुह्वति॥१८॥
देवीभागवत पुराण, स्कन्ध ८, अध्याय १२-
शाल्मलाख्यस्ततो द्वीपश्चास्माद्द्विगुणविस्तरः॥१७॥
एते च पर्वताः सप्त नदीनामानि चोच्यते॥२३॥
अनुमतिः सिनीवाली सरस्वती कुहूस्तथा।
रजनी चैव नन्दा च राकेति परिकीर्तिता॥२४॥
भागवत पुराण (५/२२) में भी-
शाल्मलो द्विगुण विशालः समानेन सुरोदेन अवृतः परिवृङ्क्ते॥७॥
अनुमतिः सिनीवाली सरस्वती कुहू, रजनी, नन्दा, राकेति ॥१०॥
इन नदियों के नाम रात्रि अर्थ के शब्दों पर हैं।
भारत में हिमालय से निकल कर कच्छ में सरस्वती गिरती थी, जिससे कच्छ उसका एक द्वीप बनता था। इससे थोड़ा दक्षिण नर्मदा सागर सङ्गम था। कुरुक्षेत्र से होते हुए यह राजस्थान को पार करती थी जिसके मार्ग की भूगर्भीय पुष्टि हो गयी है। किन्तु कुरुक्षेत्र से हो कर एक पूर्ववाहिनी धारा भी थी, जो प्रयाग में गङ्गा-यमुना के साथ मिलती थी। अब सरस्वती लुप्त हो गयी है किन्तु आज भी यह त्रिवेणी (३ नदियों का) सङ्गम के नाम से प्रसिद्ध है।
पद्म पुराण (१/१८) पुष्कर से प्राची वाहिनी सरस्वती
एवमेषा सरिच्छ्रेष्ठा पुष्करेषु सरस्वती।॥१२६॥
पुण्यस्य पुण्यताकारि पञ्चस्रोता सरस्वती॥१२८॥
पुष्करे तु विशेषेण पूतात् पूततमा हि सा।
नदी सरस्वती पुण्या सुलभा जगति स्थिता॥२३३॥
दुर्लभा सा कुरुक्षेत्रे प्रभासे पुष्करे तथा॥२३४॥
प्राची सरस्वतीं प्राप्य योयोऽन्यं तीर्थं हि मार्ग ते॥२३५॥
पुष्करारण्यमासाद्य पुनस्तस्मात् सरस्वती॥२४७॥
अन्तर्धानं गता गन्तुं प्रवृत्ता पश्चिमा मुखी।
नाति दूरे ततस्तस्य पुष्करस्य सुशोभना॥२४८॥
नन्दा नाम सरिच्छ्रेष्ठा त्रिषु लोकेषु विश्रुता॥२५०॥
वामन पुराण, अध्याय ४२-रन्तुकस्याश्रमात्तावद् यावत्तीर्थं सचक्रकम्।
ब्राह्मणैः परिपूर्णं तु दृष्ट्वा देवी सरस्वती॥५॥
हितार्थं सर्वविप्राणां कृत्वा कुञ्जानि सा नदी।
प्रयाता पश्चिमं मार्गं सर्वभूतहिते स्थिता॥६॥
पूर्व प्रवाहे यः स्नाति गङ्गास्नानफलं लभेत्।
प्रवाहे दक्षिणे तस्या नर्मदा सरितां वरा॥७॥
पश्चिमे तु दिशाभागे यमुना संश्रिता नदी।
यदा उत्तरतो याति सिन्धुर्भवति सा नदी॥८॥
स्कन्द पुराण, ५ अवन्ति खण्ड, भाग २-अध्याय ७१-
प्राची त्वमेव विख्याता पुण्यदेहा सरस्वती।
या प्राची कौरवक्षेत्रे पुष्करे या महालये।
सा त्वं शिप्रा प्रसिद्धा च सर्वपातकनाशिनी॥६९॥
महाभारत, शल्य पर्व, अध्याय ३७-बलराम जी की तीर्थयात्रा-
पुण्यं द्वैतवनं राजन्नाजगाम हलायुधः॥२७॥
ततः प्रायाद् बलो राजन् दक्षिणेन सरस्वतीम्।
गत्वा चैवं महाबाहुर्नातिदूरे महायशाः॥२९॥
धर्मात्मा नागधन्वानं तीर्थमागमदच्युतः॥३०॥
प्रायात् प्राची दिशं तत्र तत्र तीर्थान्यनेकशः॥३४॥
उद्दिष्टमार्गः प्रययौ यत्र भूयः सरस्वती॥३६॥
प्राङ्मुखं वै निववृते वृष्टिर्वातहता यथा।
ऋषीणां नैमिषेयाणामवेक्षार्थं महात्मनाम्॥३७॥
४. सरस्वती का सूखना-
आर्यों का सरस्वती से पूर्व की तरफ गमन नहीं हुआ था, वे पूरे भारत वर्ष में पहले से थे जो वियतनाम और इण्डोनेसिया तक था।। हिमालय से निकलने वाली नदियों में सरस्वती-सिन्धु सबसे बड़ी थी। पूर्व वाहिनी गंगा में कम पानी जाता था। सूर्यवंशी राजा सगर का राज्य ६७६२ ई.पू. में आरम्भ हुआ। इससे १५ वर्ष पूर्व बाक्कस का आक्रमण ६७७७ ई.पू. में हुआ था, जिसमें सगर के पिता राजा बाहु मारे गये थे। सगर ने शत्रु तथा उनके समर्थकों को दण्ड दे कर निकाला तथा अश्वमेध यज्ञ किया जिसमें उनके ६०,००० पुत्र कपिल द्वारा मारे गये। सगर ने चक्रवर्ती होने के बाद पूर्व में गंगा की धारा की खुदाई कर उससे गहरा किया पर उसमें मारे गये। यहां गंगा की धारा अश्व है, धारा लुप्त होने के कारण कई योजन की खुदाई हुई। उसमें हिमालय के कुछ हिमनदों का मार्ग मोड़ कर अलकनन्दा में मिलाया गया। नया मार्ग भगीरथ के समय खुला। अतः नयी धारा को भागीरथी कहा गया। अलकनन्दा या विष्णुगंगा का उद्गम सन्तोपन्थ ताल या हिमनद है। तिब्बत सीमा के निकट केशव प्रयाग में इससे सरस्वती नदी मिलती है जिसका उद्गम देवताल झील है। पहले यह पश्चिम वाहिनी सरस्वती में मिलती थी। केशव प्रयाग के बाद बद्रीनाथ में ऋषिगंगा मिलती है जिसका उद्गम नीलकण्ठ पर्वत है। उसके बाद गोविन्द घाट में नक्ष्मण गंगा मिलती है जिसका उद्गम हेमकुण्ड के पास है। विष्णु प्रयाग में धौलागिरि से निकली पश्चिमी धौली मिलती है। नन्द प्रयाग में त्रिशूल पर्वत से निकली नन्दाकिनी मिलती है। कर्ण प्रयाग में पिण्डारी हिमनद से निकली पिण्डर नदी मिलती है। रुद्र प्रयाग में मन्दाकिनी मिलती है जो मन्दराचल श्रेणी से निकली है। देव प्रयाग में भागीरथी नदी मिलती है, जिसके बाद इसे केवल गंगा कहते हैं। मन्दाकिनी के अतिरिक्त बाकी सभी पश्चिम से मिलती हैं तथा इनमें अधिकांश का स्रोत सगर से भगीरथ काल (१०० वर्ष) में सरस्वती से गंगा की तरफ से मोड़ा गया था।
सन्दर्भ-बाक्कस आक्रमण-Indika of Megasthenes-Solin. 52. 5.– Father Bacchus was the first who invaded India, and was the first of all who triumphed over the vanquished Indians. From him to Alexander the Great 6451 years are reckoned with 3 months additional, the calculation being made by counting the, kings who reigned in the intermediate period, to the number of 153. सिकन्दर ३२६ ई,पू. जुलाई में व्यास तट पहुंचा था जब वर्षा ऋतु थी। उससे ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व ६७७७ ई.पू. अप्रैल मास में बाक्कस का आक्रमण हुआ था। राजा बाहु से महाभारत तक सूर्य वंश और उसके बाद आन्ध्र वंश तक मगध के १५३ राजा होते हैं। बाहु पर आक्रमण में हैहय तालजंघ आदि ने सहयोग किया था जिनको सगर तथा बाद में परशुराम ने भगाया।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६३)-
रुरुकस्तनयस्तस्य राजा धर्मार्थ कोविदः।
रुरुकात्तु वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुर्विजज्ञिवान्॥।११९॥
हैहयैस्तालजंघैश्च निरस्तो व्यसनी नृपः।
शकैर्यवन-काम्बोजैः पारदैः पह्लवैस्तथा॥१२०॥
विष्णु पुराण (३/३)-हरितस्य चञ्चुश्चञ्चोर्विजयवसुदेवौ रुरुको विजयाद्रुरुकस्य वृकः॥२५॥ ततो वृकस्य बाहुर्योऽसौ हैहय-तालजङ्घादिभिः पराजितोऽन्तर्वत्न्या महिष्या सह वनं प्रविवेश॥२६॥ तस्यौर्वो जातकर्मादि क्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृ राज्यापहरणादमर्षितो हैहय तालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥ शक-यवन-काम्बोज-पारद-पह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥ यवनान्मुण्डित शिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्छकान् प्रलम्ब केशान् पारदान् पह्लवाञ् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्याय वषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥
विष्णु पुराण(३/४)-केशिनी पुत्रमेकमसमञ्जस नामानं वंशकरमसूत॥५॥ काश्यप तनयायास्तु सुमत्याः षष्टिः पुत्र सहस्राण्यभवन्॥६॥ तस्मादसमञ्जसादंशुमान्नाम कुमारो जज्ञे॥७॥ अत्रान्तरे च सगरो हयमेधमारभत॥१६॥ तस्य पुत्रैरधिष्ठितमस्याश्वं कोऽप्यपहृत्वा भुवो बिलं प्रविवेश॥१७॥ ततस्तत्तनयाश्चाश्वखुर गति निर्बन्धेनावनीमेकैको योजनं चख्नुः॥१८॥ (अश्व खुर चिह्न = प्राचीन धारा के चिह्न) तस्यांशुमतो दिलीपः पुत्रोऽभवत्॥३४॥ दिलीपस्य भगीरथः योऽसौ गङ्गां स्वर्गादिहानीय भागीरथी संज्ञां चकार॥३५॥
सरस्वती थोड़े कम जल के साथ बहती रही पर महाभारत के प्रायः ३०० वर्ष बाद १०० वर्ष तक अनावृष्टि हुयी जिसमें सरस्वती नदी सूख गयी। इसके बदले पूर्वी भाग में अधिक वृष्टि हो गयी जिससे गङ्गा तट पर हस्तिनापुर नगर पूरी तरह नष्ट हो गया। युधिष्ठिर की ८ पीढ़ी बाद पाण्डव राजा निचक्षु को द्वितीय राजधानी कौशाम्बी में जाना पड़ा। इसी उत्तर भाग में दोनों प्रकार के विप्लव में केवल काशी राज्य ही व्यवस्था करने में सक्षम था। अतः वहां के राजा (युधिष्ठिर-२) ने संन्यास लिया और पार्श्वनाथ नाम से २३वें जैन तीर्थङ्कर बने। उस समय २६३४ ई.पू. से जैन युधिष्ठिर शक का आरम्भ हुआ जिसका जिनविजय महाकाव्य में प्रयोग है।
दुर्गा सप्तशती, अध्याय ११ (मार्कण्डेय पुराण, अध्याय ८८)-
भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥
विष्णु पुराण अंश ४, अध्याय -२१-
अतःपरं भविष्यानहं भूपालान्कीर्तयिष्यामि।१। योऽयंसाम्प्रतमवनीपतिः परीक्षित्तस्यापि जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनाश्चत्वारः पुत्राः भविष्यन्ति।२। जनमेजयस्यापि शतानीको भविष्यति।३। योऽसौ याग्यवल्क्याद्वेदमधीत्य कृपादस्त्राण्यवाप्य विषम विषय विरक्त चित्तवृत्तिश्च शौनकोपदेशादात्मज्ञान प्रवीणः परं निर्वाणमवाप्स्यति।४।
शतानीकादश्वमेधदत्तो भविता।५। तस्मादप्यधिसीमकृष्णः।६। अधिसीमकृष्णान्निचक्षुः।७। यो गङ्गायपहते हस्तिनापुरे कौशाम्ब्यां निवत्स्यति।८।
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