सत्संग किसे कहते हैं ?
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-
आपके जीवन में भगवान का संग हो, ईश्वर के साथ आसक्ति हो ! आप को मालूम हो या ना हो संस्कृत भाषा में संग माने साथ नहीं होता। हिंदी में तो संग माने साथ होता है, उनके संग वे जा रहे हैं ,उनके संग वे रह रहे हैं, ऐसा प्रयोग चलता है। पर संस्कृत भाषा में सञ्जनं संगः-आसक्ति का नाम संग होता है ।इस संसार में जितनी भी अच्छाई कहीं किसी में आई है, वह सत्संग से आई है। भगवान के प्रति आसक्ति होने से आई है या सन्तों के प्रति आसक्ति होने से आई है। जो भी भला हुआ है दुनिया में, वह सत्संग से ही हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
मति कीरति गति भूति भलाई। जो जेहि जतन जहां जब पाई ॥
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
(उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।)
लोक या वेद में कहीं भी दूसरा उपाय नहीं है ।आपको बुद्धि चाहिए तो अपने से बड़े बुद्धिमान का संग कीजिए। आपको आरती-कीर्ति चाहिए तो जो बड़े-बड़े कीर्तिमान हैं। उनके जीवन का अध्ययन कीजिए ।आप को सद्गति चाहिए तो संतों का संग कीजिए । वैभव चाहिए है तो जिन्होंने दरिद्र से दरीद्र अवस्था में पैदा होने पर भी अपने परिश्रमसे , पौरुषसे, बुद्धिसे स्वयं को धनवान बनाया है, उनका संग कीजिए। यदि आप किसी भी प्रकार का हित चाहते हैं तो सत्संग कीजिए, इस दुनिया में सत्संग से बड़ी और कोई वस्तु नहीं है ।
भागवत में कहते हैं –
सन्तः संगस्य भेषजं ।
संत आसक्ति की औषधि है। औरों से आसक्ति करोगे तो फँसोगे , बँधोगे, रोना पड़ेगा – ‘प्रियंत्वां रोत्स्यति।’ किसी के साथ बंध जाओगे ,लटके झटके फिरोगे । यह सत्संग ही है जो बंधन से छुड़ाता है। किसी का विरह होगा, कोई विश्वासघात करेगा, किसी से तुम प्रेम करोगे और वह तुमसे नहीं करेगा , तुम्हें रुलाएगा, रोना पड़ेगा । इसलिए जीवन में जो सत् है उसका ही संग करना चाहिए और यह जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।
तो , आप शरीरसे सत् का संग्रह कीजिए, सत् का भोजन कीजिए, सत् कर्म कीजिए, सत् से प्रेम कीजिए , सबके प्रति सद्भाव रखिये , सद्विचार कीजिये, सत् स्थितिमें रहिए और अपने सत्स्वरुप त्रिकालाबाधित आत्माको ब्रह्म रूपमें जानिए । यह सब सत्संग शब्दका अर्थ होता है ।
अब आप अपनी रुचिसे, अपनी योग्यतासे, अपनी प्रवृत्तिसे, तौल लीजिए और आपके लिए जो हितकारी हो, उसीका संग कीजिए। इसीका नाम *सत्संग* है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: