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शास्त्रों का सेंसर
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
१९६२ में पहली बार हिन्दू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष पण्डित रामव्यास पाण्डेय जी से सुना कि राधाकृष्णन् के अनुसार गीता के लेखक का पता नहीं है तथा किसी काल्पनिक व्यास को उसका लेखक मानते हैं। उनके अनुसार मूल गीता में केवल ६८ श्लोक थे (१५०० ईपू) में, जिसमें १५०० वर्षों में लोगों ने जोड़-जोड़ कर ७०० श्लोक कर दिये। तब से राधाकृष्णन् के शिष्यों से पूछ रहा हूं कि किसी मूल श्लोक का उदाहरण दें जिसका पाठ भक्तिभाव से कर सकें। पर अभी तक ऐसे श्लोक की पहचान नहीं हुई है। पता नहीं उनको गिना कैसे था। २००४ में एक वेद भक्त पत्रिका के लिए लेख लिखा था-गीता में ३ प्रकार के कालों की परिभाषा। भूल से भूमिका में लिख दिया-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुख पंकजविनिर्गता॥
वेद भक्तों ने इसे कुफ्र माना क्योंकि केवल वेद परमेश्वर की वाणी है, और मुझे प्रतिबन्धित कर दिया।
महाभारत के बारे में भी प्रचार है कि मूल श्लोक केवल ८,८०० थे जिसे जय कहा गया। उसमें किसी ने जोड़ कर २४,००० श्लोक बना कर उसे भारत कर दिया। बाद में १५०० वर्षों तक जोड़ जोड़ कर १ लाख श्लोक कर उसे महाभारत नाम दिया। वास्तव में मूल श्लोक १ लाख ही थे, जिनमें अवान्तर कथा हटा कर २४,००० श्लोक थे। उनमें ८८०० कूट श्लोक थे जो महाभारत में स्पष्ट लिखा है। महाभारत के लेखक गणेश जी थे। लेखन का एक अर्थ किया जाता है कि उस समय हर भाग में समझने के लिए अक्षरों का स्वरूप समान किया गया, जिसके कर्त्ता गणेश थे। ऋग्वेद में भी कहा है कि ब्रह्मा ने गणपति को लिपि बनाने के लिए अधिकृत किया था। ऋग्वेद (२/२३)-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत्साम्नः साम्नः कविः।
स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि॥१७॥
ऋण चिह्न (-) तथा चिद्-ऋण (उसका सूक्ष्म भाग विदु) से अक्षरों का रूप बना। इससे ऋत संकलन (ज्ञान या साहित्य) का धारण हुआ तथा संशय दूर हुआ (द्रुहो हन्ता)। यदि अधिकारी द्वारा आदेश हो तभी लोग उसका पालन करते हैं।
गणेश जी के पास समय कम था, अतः उन्हों ने कहा कि व्यास जी लगातार बोलें तभी लिख सकते हैं। व्यास जी ने भी शर्त्त रखी कि बिना समझे नहीं लिखेंगे। अतः बीच बीच में कूट श्लोक रचते गये जिसे समझने के लिए गणेश जी को रुकना पड़ता था। सनातन ग्रन्थों में कूट श्लोक रखना पड़ता है क्योंकि बहुत से लोग इस वर्णन में अपनी हानि या निन्दा देख कर नष्ट करते हैं। नोस्ट्रेडामस ने भी ऐसा किया था। व्यास जी के ८८०० कूट श्लोकों का अर्थ केवल वे स्वयं या शुकदेव जी जानते थे। आज भी उनका अर्थ स्पष्ट नहीं है।
आदि पर्व, अध्याय १-
लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक। मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च॥७७॥
श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्। लिखतो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम्॥७८॥
व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित्। ओमित्युक्त्वा गणेशोऽपि बभूव किल लेखकः॥७९॥
ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूढ़ं कुतूहलात्। यस्मिन् प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्वैपायनस्त्विदम्॥८०॥
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोक शतानि च। अहं वेद्मि शुको वेत्ति सञ्जयो वेत्ति वा न वा॥८१॥
तच्छ्लोक कूटमद्यापि प्रथितं सुदृढं मुने। भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य गूढत्वात् प्रश्रितस्य च॥८२॥
अपने ३ पुत्रों-धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर के निधन (महाभारत युद्ध के ३ वर्ष बाद) व्यास जी ने १ लाख श्लोकों का महाभारत लिखा।
आदिपर्व, अध्याय १-उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च॥९५॥
तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम्॥९६॥ अब्रवीत् भारतं लोके मानुषेऽस्मिन् महानृषिः॥९७॥
इदं शतसाहस्रं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम्॥१०१॥
उपाख्यानैः सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम्। चतुर्विंशति साहस्रीं चक्रे भारत संहिताम्॥१०२॥
उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः॥ ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः।\१०३॥
अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणम्॥१०४॥ षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्॥१०५॥
त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिष्ठितम्। पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश॥१०६॥
अनुक्रमणिका भी व्यास रचित ही है (१०४)।
महाभारत काल के शौनक शिष्य आश्वलायन गृह्य सूत्र में भारत-महाभारत शब्दों का प्रयोग किया है, अतः स्पष्ट है कि मूल रूप से ही यह विद्यमान था, जय को धीरे धीरे बढ़ा कर १ लाख श्लोक नहीं किये गये। आश्वलायन का समकालीन कात्यायन ने चरणव्यूह परिशिष्ट में भी १ लाख श्लोकों के महाभारत का उल्लेख किया है-लक्षं भारतमेव च (५/१)। पण्डित भगवद्दत की पुस्तक भारतवर्ष का बृहद् इतिहास, भाग १, पृष्ठ ७९-९४ में बहुत से उद्धरण हैं।
स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने महाभारत की समीक्षा कर केवल १६,००० श्लोकों को मूल मान कर उनका प्रकाशन किया है (वेद ऋषि प्रकाशन)। वेदव्यास की भूल सुधार के लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
स्वामी जी ने वाल्मीकि के अज्ञान का भी सुधार कर ६ काण्ड में ६,००० श्लोकों का रामायण प्रकाशित किया है (वेद ऋषि प्रकाशन)। इसमें उत्तरकाण्ड हटा दिया है। कुछ लोगों के अनुसार और संशोधन अपेक्षित है-बालकाण्ड तथा उत्तर काण्ड-दोनों प्रक्षेप हैं। भगवान् राम का न जन्म हुआ, न राजा बने-फिर उनका चरित लिखने की मूर्खता वाल्मीकि ने क्यों की?
मनुस्मृति के कुछ अंशों की निन्दा आरम्भ हुई तो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उसके २५% भाग को निकाल दिया। उससे भी काम नहीँ चला तो गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री सुरेन्द्र कुमार ने ७०% भाग निकाल दिया। मूल लेखक की अनुपस्थिति में यह निर्णय करना कठिन है कि कौन सा भाग उसने नहीं लिखा था। यदि आज के युग के लिए मनुस्मृति में कुछ गलत दीखता है तो उसे मानना जरूरी नहीँ है। हर युग के अनुसार अलग स्मृति बनती है जिसके कारण १८ स्मृतियाँ हैं। भारत के संविधान में ही राजनैतिक स्वार्थ के कारण हर वर्ष संशोधन होते हैं। पर अपने विचार को मनवाने के लिए मूल पुस्तक को नष्ट करना उचित नहीं है। सुरेन्द्र कुमार ने मनुस्मृति नष्ट करने के लिए कहानी बनायी कि चीन की दीवार एक बार टूटी थी तो उसमें उतना ही अंश मिला था। यह ’विशुद्ध मनुस्मृति’ वेद ऋषि द्वारा प्रकाशित है। मैं अतिशुद्ध मनुस्मृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं जो मेक्सिको के किसी पिरामिड के टूटने पर मिलेगी। उसमें केवल १० श्लोक होंगे।
वेद के बारे में भी प्रचार हुआ कि बादरायण व्यास को वेद के बारे में पता नहीं था। परमेश्वर से वेद केवल ४ ऋषियों को मिला था अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा। पर व्यास ने ऋग्वेद के १००० सूक्तों के अलग अलग ऋषि लिख दिए। स्वयं परमेश्वर ने बताया कि मैंने ४ ही लोगों को वेद दिये हैं, तब संशोधन हुआ।
वेद व्यास की एक अन्य भूल थी कि वे संहिता तथा शाखा में अन्तर नहीं समझ सके। जैसे यजुर्वेद की वाजसनेयि, काण्व, तैत्तिरीय, मत्रायणी आदि सभी शाखाओं को वेद मानते थे। स्वयं वेद में ऐसा कुछ नहीं लिखा कि कौन सी संहिता परमेश्वर ने ४ ऋषियों को दी थी। भला हो परमेश्वर का जो बुलाते ही उपस्थित हो कर बताया कि केवल वाजसनेयि मूल वेद है, अन्य सभी शाखा हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद होने का भ्रम व्यास को था। मूल संहिता में भी उन्होंने मृत पितरों, उनके श्राद्ध, मूर्ति पूजा आदि से सम्बन्धित कई मन्त्र जोड़ दिये हैं, जो प्रक्षेप है। सातवलेकर जी ने अथर्ववेद के सम्पूर्ण १९वें काण्ड को प्रक्षेप माना है (अथर्ववेद सुबोध भाष्य)। यजुर्वेद ३९ अध्याय भी प्रक्षेप माना है क्योंकि उसमें श्राद्ध वर्णन है। ईशावास्योपनिषद् उपनिषद् है अतः वह यजुर्वेद का बाद में ४०वें अध्याय रूप में जोड़ा गया। केवल ॐ के अतिरिक्त कौन सा मूल वेद मन्त्र है, यह कहना कठिन है।
ज्योतिष और काल निर्धारण में भी स्पष्ट रूप से पागलपन दीखता है। जितने राजाओं ने वर्ष गणना आरम्भ की और उनको शक-कर्ता कहा गया, उनको काल्पनिक घोषित किया। पुरानी वर्ष गणना भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में नहीं थी। पर वे लोग बिना कैलेण्डर के ही तिथि देते थे। भारत में शक और संवत् का बेकार ही प्रचलन हुआ, यहां कोई तिथि नहीं देता था। ग्रीक लोग अद्भुत् थे। सिकन्दर के समय वहां कोई कैलेण्डर नहीं था अतः तिथि देने के लिए उन्होंने भविष्य के इस्वी सन् का प्रयोग कर कहा कि सिकन्दर आक्रमण उससे ३२६ वर्ष पूर्व हुआ। यही कल्पना वराहमिहिर के विषय में हुई जो संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के नव रत्नों में थे। उन्होंने अपनी मृत्यु के ८३ वर्ष बाद आरम्भ होने वाले शालिवाहन शक का प्रयोग किया। विक्रमादित्य कहना चाहते थे (बृहत् संहिता, १३/३) कि युधिष्ठिर शक के २५२६ वर्ष बाद उनके द्वारा प्रयुक्त शक आरम्भ हुआ, पर उनकी बात कोई नहीं सुन रहा है। इस शक को ब्रह्मगुप्त ने चाप शक कहा है जो चपहानि या चाहमान राजा द्वारा आरम्भ हुआ था। भारत में २ प्रकार की वर्ष गणना है-व्रत के लिए तिथि गणना संवत् है, क्रमागत दिनों की गणना शक है। युधिष्ठिर, चाहमान या शालिवाहन-सभी भारतीय थे, कोई भी शक नहीं था। पर शालिवाहन शक को शक जाति का बनाने के लिए उनके शक को कश्मीर के गोनन्द वंशी राजा कनिष्क (१२९२-१२७२ ईपू) के नाम किया गया, तथा उनको विदेशी शक घोषित कर दिया। उन्होंने अपनी मृत्यु के १३०० वर्ष बाद ७८ ई से शक आरम्भ किया। अल बिरूनी की पुस्तक ’प्राचीन देशों की काल गणना’ के अनुसार किसी भी शक राजा ने अपना कैलेण्डर नहीं आरम्भ किया था, वे सुमेरिया या ईरान का कैलेण्डर व्यवहार करते थे। ब्रह्मगुप्त की पुस्तक ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त के अनुसार ६२२ ई. में हिजरी वर्ष गणना आरम्भ हुई, अतः खलीफा अल-मन्सूर के समय इसका अरबी अनुवाद हुआ-अल् जबर उल्-मुकाबला। इससे गणित भाग का नाम अलजबरा हुआ। पर भविष्य के शालिवाहन शक में गणना करने से उनकी पुस्तक का समय ६२६ ई आता है, अर्थात् उसके ४ वर्ष पूर्व ही अरब में उस पुस्तक के अनुसार गणना आरम्भ हो गयी थी।
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