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श्रीयंत्र के दो मुख्य आयाम बिन्दु तथा त्रिभुज।
श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-
Mystic Power- श्रीविद्या के उपासक के लिए उसकी देह ही यंत्र है, नाड़ी समूह तंत्र है, सूक्ष्म प्राण का प्रवाह मंत्र है। लेकिन इसके दो प्रकार लौकिक दृष्टि से आचार्यों ने ज्यामितीय रूप में ढाले हैं। प्रथम है द्विआयामी पटल तथा द्वितीय है त्रिआयामी पिरामिड के रूप में।
द्विआयामी मुख्यतया स्वर्ण पटल पर अंकित किया जाता है, वहीं पिरामिड क्रिस्टल से बनाया जाता है। दोनों में कोई भेद नहीं है, मात्र अभियोजना है, समझने के उद्देश्य से। श्रीयंत्र यंत्रराज है, सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
श्रीयंत्र के दो मुख्य आयाम हैं, बिन्दु तथा त्रिभुज। बिन्दु अद्वैत का द्योतक है, परमशिव तथा कुंडलिनी शक्ति का ऐक्य है, केन्द्र है, अक्षर है, स्थिर है, चैतन्य तत्त्व है, सहस्रार है। त्रिभुज दर्शाता है एक चैतन्य केन्द्र बिन्दु से तीन शक्ति बिंदुओं में प्रकट होना।
यह तीनों बिंदु परस्पर जुड़े हुए हैं, इसलिए त्रिकोण के ज्यामितीय आकार में बनाए गए हैं। त्रिकोण का ऊर्ध्व बिन्दु शिवतत्त्व सहस्रार तथा निम्न दो बिन्दु शक्तितत्त्व आज्ञा चक्र के रूप में दिखाए गए हैं।
चैतन्य तत्त्व अत्यंत तेजस्वी तथा प्रकाशवान है, सक्षम ध्यान-योगी अपने भाल पर इसे देखता है ध्यान में, मार्तण्ड का प्रखर, तप्त एवं दग्ध करने वाला प्रकाश पुंज है यह बिन्दु जिसे श्रीयन्त्र के केन्द्र में दर्शाया जाता है। इस चैतन्य तत्त्व में 33 करोड़ भावना स्वरूप देवी देवता तथा उन्हें धारण करने के लिए 84 लाख योनियां सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता (11.12) में योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण अपने ब्रह्म चैतन्य स्वरूप का वर्णन सहस्त्र सूर्यों की चमक की तुलना से करते हैं,
“दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥”
– इसी चैतन्य केन्द्र सूर्य जैसे प्रकाशवान बिन्दु से सुदर्शन चक्र अस्त्र [ सूर्यसहस्त्रस्य – सूर्य + स: + अस्त्र + स्य ] भी प्रकट होता है जिसे श्रीविष्णु धारण करते हैं।
– सभी दिव्य अस्त्रों का स्त्रोत है यह चैतन्य बिन्दु। षडङ्ग न्यास के अंतर्गत इस चैतन्य बिन्दु का आवाहन किया जाता है, जब किसी दिव्य कामना/अस्त्र का अभियोजन करना होता है,
“सां हृदयाय नमः, सीं शिरसे स्वाहा, सूं शिखायै वषट्,
सैं कवचाय हुम्, सौं नेत्रत्रयाय वौषट्, सः अस्त्राय फट्”
इस चैतन्य बिन्दु से तीन बिन्दु प्रकट होते हैं, क्रमशः इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया स्वरूप, रक्तवर्ण रजोगुण, नीलवर्ण तमोगुण एवं पीतवर्ण सतोगुण, जिन्हें ज्यामितीय त्रिकोण में दर्शाया जाता है श्रीयंत्र में। त्रिकोण पुरुष तथा प्रकृति को दर्शाते हैं, शिव पुरुष है, जीवन्मुक्त है, द्रष्टा, साक्षी, निर्लिप्त है तथा प्रकृति शक्ति, सृष्टि, कर्म है, बंधन है।
– ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण ऊर्ध्व चेतन शिव का परिचायक है, जहां नील बिंदु ऊर्ध्व है, ज्ञान का द्योतक है तथा अन्य दो बिन्दु त्रिकोण के दो निम्न छोर हैं, इच्छा तथा क्रिया के द्योतक। शिव निष्काम है, ज्ञान स्वरूप है।
– अधोमुखी त्रिकोण अधो चेतना शक्ति का परिचायक है, जहां रक्त बिन्दु, इच्छा तथा नील बिन्दु, ज्ञान, ऊर्ध्व दो छोर हैं त्रिकोण के और अधोमुख पीत बिन्दु है क्रिया स्वरूप।
– श्रीविद्या के उपयोग की दृष्टि से रक्तवर्ण बिंदु को ऊर्ध्व तथा अन्य दो बिन्दुओं को त्रिकोण के निम्न में किया जाता है, ध्यान में। तीनों बिन्दु अनुस्वार तथा विसर्ग में गृहीत हैं। श्रीविद्या के त्रिअंग, त्रिमणि, त्रयीविद्या है साधि, काधि, हाधि, क्रमशः लालमणि, नीलमणि, पीतमणि हैं।
चार त्रिकोण, शिवतत्त्व तथा पांच त्रिकोण, शक्तितत्त्व परस्पर एक दूसरे पर आरोपित किए गए हैं श्रीयंत्र संरचना में। चार त्रिकोण चार अंत:करण का प्रतिनिधित्व करते हैं, पांच त्रिकोण पांच बाह्यकरण के प्रतीक हैं।
चार अंत:करण सूक्ष्म हैं,
– मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त,
एक एक ऊर्ध्व त्रिकोण के रूप में, जिनमें सर्वोच्च है चित्त तथा अन्य तीन क्रमशः निम्न हैं, अहंकार, बुद्धि तथा मन।
पांच बाह्यकरण हैं,
– पंच तन्मात्र, स्वर, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध,
– पंच प्राण, प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान,
– पंच ज्ञानेन्द्रियां, कर्ण, त्वचा, चक्षु , जिह्वा, नासिका,
– पंच कर्मेंद्रियां, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, पायु,
– पांच महाभूत, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी,
प्रकृति के यह 25 तत्त्व पंच अधोमुखी त्रिकोण हैं, सृष्टि है।
केन्द्र बिन्दु, शिव त्रिकोण तथा शक्ति त्रिकोण एक चक्र में स्थित किए जाते हैं जिसके बाह्य भाग में अष्ट पद्म दल हैं। यह अष्टमहासिद्धियों के द्योतक हैं, यथा –
अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा,
प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
अष्टपद्मदल चक्र के बाह्यभाग में एक अन्य चक्र है जिसमें बाह्य में षोडश पद्म दल उकेरे जाते हैं। यह षोडश पद्म दल देवभाषा संस्कृत के षोडश स्वरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। षोडश स्वर हैं,
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ ऌ ॡ ऋ ॠ अं अः।
षोडश पद्म दल चक्र के बाह्यभाग में एक तीन रेखाओं का चतुर्भुज बनाया जाता है, जिसके चा द्वार हैं, एक एक दिशा में एक एक द्वार। इसे भूपुर कहा गया है,
– भूपुर का अर्थ है, भू + पुर, अर्थात्, भू, भूलोक, पृथ्वी तत्त्व, मूलाधार चक्र, देवी कुंडलिनी शक्ति का आदि विश्रामास्थल।
– पुर, है तीन रेखाओं से पूरित देहयष्टि, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर के अर्थ में।
– चार द्वार हैं चार पुरुषार्थ के द्योतक, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष साधक चारों पुरुषार्थों में रमण करता है, भगवती कुंडलिनी शक्ति का बोध से।
✓ श्रीविद्या के परमाचार्य हैं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण तथा अनुपम ग्रंथ है श्रीमद्भगवद्गीता, जिसके अंतिम श्लोक में फलश्रुति दी गई है,
“श्रीर्विजयो भूतिर्”, अर्थात् श्री: विजय: विभूति:,
श्रीभगवान् की अनुकंपा से श्रीविद्या उपासक को श्रीशक्ति के उपयोग से विजय तथा विभूतियां (सिद्धियां) उपलब्ध होती हैं।
✓ देवी के वरदान से ही श्रीविद्या में प्रवीण होता है ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष साधक जब नि:संकल्पित भाव से, निष्काम भक्ति में योगारूढ़ होता है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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सूर्यसहस्रस्य इस शब्द का विग्रह करके दिखाया है उसका संधिनियमोंमें आधार कहाॅं है ?
सूर्यसहस्रस्य = सूर्य + स: + अस्त्र + स्य।
स् है मूलाधार चक्र में स्थित उष्ण वर्ण, स्त्रीलिंग, धारण करने के संदर्भ में।
उष्ण का अर्थ है मणिपुर चक्र के अग्नि तत्त्व से संपृक्त।
विसर्ग (:), ह्, है कर्म, उपयोग करने के संदर्भ में, “विसर्ग: कर्म संज्ञित:”
– श्रीमद्भगवद्गीता।
स्य पद में स् का अर्थ धारण करना है तथा य है वायु तत्त्व, अनाहतचक्र , सूक्ष्म प्राण, जो प्रण, कामना से प्रकट होता है।
दिव्य अस्त्र को धारण कर उपयोग करना ” स: अस्त्र स्य”, सहस्रस्य पद का प्रयोजन है।
संदर्भ देखें,
पुरुष सूक्त, ऋग्वेद,
“सहस्रशीर्षा पुरुष:”।
यह ध्यान-योग से सहस्रार में, चैतन्य तत्त्व में, सूर्य कोटिसम में, प्रकट होता है, जो श्रीयंत्र के मध्य में बिन्दु के रूप में दर्शाया जाता है।
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