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सृष्टि में सृजन
श्री सुशील जालान
mystic power – श्रीमद्भगवद्गीता ब्रह्मविद्या का योग शास्त्र है, जिसमें श्री भगवान् अपनी विशिष्ट अचिंत्य शक्ति का वर्णन करते हैं। ध्यान-योगी सक्षम साधक शिष्य किसी ब्रह्मयोगी गुरु के सान्निध्य में रहकर उनके अनुग्रह से इस अतुलनीय विद्या का अभ्यास कर इस शक्ति विशेष को धारण करने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है।
दशम् अध्याय में श्री भगवान् अपनी विभूतियों का वर्णन करते हैं। तैंतिसवें श्लोक के तृतीय चतुर्थांश में सृष्टि में किसी भाव विशेष को कैसे फलित किया जाता है, इसका सूत्र दर्शाया गया है।
सामान्य अर्थ है कि श्री भगवान् अक्षय काल हैं, अर्थात् महाकाल स्वरूप हैं। वस्तुत: यह हृदय के समीप अनाहत चक्र में आदिकाल से स्थित महर्लोक है, जिसका उद्घाटन योग की विधि से ऊर्ध्वरेता योगी करता है, सृष्टि में सृजन करने के उद्देश्य से।
महाकाल इसलिए माना गया है कि यहां की गई कामना काल से बाधित नहीं होती है, अर्थात् काल का उल्लंघन कर पात्र (योनि विशेष) में/के रूप में निर्दिष्ट स्थान में फलीभूत होती है, अपने गुण धर्म के निर्वाहन हेतु।
इस कामना विशेष को दीर्घ काल तक भी स्थिति किया जा सकता है, अर्थात् कालावधि तय करना भी सक्षम योगी पुरुष के अधिकार में होता है।
इसका लौकिक प्रमाण है कि ग्रहण के समय उज्जैन स्थित भगवान् श्रीमहाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर खुला रहता है, जबकि अन्य सारे सनातन धर्म के मंदिरों के कपाट हर जगह बंद कर दिए जाते हैं। अर्थात्, बाह्य पूजा पाठ नहीं, ध्यान-योग से अनाहत चक्र में प्रकट आंतरिक प्रकाश पुंज बिन्दु में की गई धारणा पृथ्वी पर फलित होती है।
श्लोक चतुर्थांश है –
“अहमेवऽक्षयं कालो”
– श्रीमद्भगवद्गीता (10.33)
अन्वय है,
अहं एव अक्षयं कालो।
अहं, पदच्छेद है, अ + ह् (विसर्ग – 🙂 + अं (अनुस्वार – ं),
– अ, है आदि काल से,
– ह् (विसर्ग – :), है कर्म के संदर्भ में,
– अं (अनुस्वार – ं), है बिन्दु, अव्यक्त ब्रह्म।
अर्थ हुआ,
आदिकाल से वह बिन्दु अव्यक्त है जिसमें सृष्टि के सृजन की क्षमता है।
एव, पदच्छेद है, ए (अ + इ) + व् + अ,
– अ, है प्रकट होने के संदर्भ में,
– इ, है कामना स्वरूप,
– व्, है स्वाधिष्ठान चक्र का कूट बीज वर्ण, भावसागर
का द्योतक,
– अ, है भावना को स्थिर करने के लिए।
अर्थ हुआ,
स्वाधिष्ठान चक्र से किसी भावना को प्रकट करने के उद्देश्य से कामना (धारणा) करना।
अक्षयं, पदच्छेद है, अ + क्ष + य् + अनुस्वार (ं – बिन्दु)
– अ, है सृजन करने के संदर्भ में,
– क्ष, है शुक्राणु जो ऊर्ध्वगमन करता है,
– य्, है (प्राण) वायु तत्त्व, कूट बीज वर्ण अनाहत चक्र/
महर्लोक का,
– अनुस्वार (ं – बिन्दु), है अनाहत चक्र में स्थित बिन्दु,
अव्यक्त ब्रह्म।
अर्थ हुआ,
सूक्ष्म प्राण के साथ शुक्राणु ऊर्ध्व हो कर अनाहत चक्र में प्रकट होता है बिन्दु के स्वरूप में, जिससे सृष्टि में सृजन किया जा सकता है।
कालो, पदच्छेद है, क् + आ + ल् + ओ ( अ + उ),
– क, है प्रथम व्यंजन, सृजनात्मक उद्देश्य के लिए,
– आ, है दीर्घ काल तक के लिए,
– ल्, है कूट बीज वर्ण, पृथ्वी तत्त्व, मूलाधार चक्र में,
– ओ (अ + उ), अ है स्थिर करने के लिए, उ है ऊर्ध्व
लोक से।
अर्थ हुआ,
ऊर्ध्व लोक (अनाहत चक्र) से पृथ्वी में स्थिर रूप से सृजन के लिए जो दीर्घ काल तक भी रह सकता है।
श्लोक चतुर्थांश का अर्थ हुआ,
आदिकाल से वह बिन्दु (शुक्राणु), जिसमें सृष्टि के सृजन की क्षमता है, अव्यक्त है। स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित भावना के समुद्र से किसी भाव को धारण कर ऊर्ध्वरेता पुरुष शुक्राणु को ऊर्ध्व कर अनाहत चक्र में प्रकट करता है बिन्दु के स्वरूप में सूक्ष्म प्राण (प्राणायाम) की सहायता से। बिन्दु में वह धारण की हुई भावना दीर्घ कालावधि के लिए भी पृथ्वी (जगत्) में स्थित होती है।
श्री भगवान् अपनी अचिंत्य शक्ति का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार, विधि से वह सृष्टि में किसी भावना विशेष को फलीभूत करते हैं जो दीर्घ काल तक भी स्थित होती है।
महाकाल अनंत काल नहीं है। अनंत है परमं, जिसे निर्गुण ब्रह्म कहा गया है,
“अक्षरं परमं ब्रह्म” (8.3),
श्रीमद्भगवद्गीता में ही। महाकालेश्वर से वर्तमान पृथ्वी लोक में ही नवीन सृजन किया जा सकता है।
अनंत/परमं का बोध सहस्रार में होता है ब्रह्मयोगी पुरुष को। सहस्रार – आज्ञा चक्र से नवीन सृष्टियों का सृजन संभव है और वर्तमान सृष्टियों में सृजन भी। भगवान् श्रीराम ने साकेत धाम लोक और भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक धाम नवीन लोकों की रचना की थी, सहस्रार में निहित परा शक्ति से।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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