सृष्टि निर्माण की ऊर्जा… इन्द्र
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- ज्योतिष में १४ संख्या के लिए मनु तथा इन्द्र शब्दों का व्यवहार होता है। अतः ये दोनों सम्बन्धित हैं, तथा इनके कुछ रूप १४ प्रकार के हैं।
१. ब्रह्म इन्द्र-
इन्द्र परब्रह्म का स्वरूप है, जिसे कई अन्य नामों से भी कहते हैं-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
(ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
अव्यक्त ब्रह्म निर्विशेष तथा निराकार है। सृष्टि के लिए उसके कई प्रकार के क्रियात्मक रूप हैं।
(१) इन्द्र सृष्टि निर्माण के लिए ऊर्जा है।
(देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे) इन्द्रियस्य इन्द्रियेण। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/६/५/३)
इन्द्रस्य इन्द्रियेण अभिषिंचामि (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/२/२, ऐतरेय ब्राह्मण, ८/७)
(२) मित्र-वरुण- इनके कई अर्थ हैं। जिस ऊर्जा से निर्माण होता है वह मित्र है, जिससे निर्माण नहीं होता वह वरुण है। वरुण वाः (वारि) का क्षेत्र है जहां जल जैसा बहुत विरल पदार्थ फैला हुआ है। उसके कुछ भाग में निर्माण होता है, वह मित्र है। आकाश में ब्रह्माण्ड के अप् का क्षेत्र वरुण है। सौर मण्डल के भीतर ऊर्जा का प्रसार मित्र है। आकाश के ३ धामों में मूल स्वरूप अन्तरिक्ष में दीखता है। मूल रूप से आदि हुआ था, अतः इनको आदित्य कहते हैं। स्वयम्भू मण्डल १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह है, जिसके भीतर अन्तरिक्ष (ब्रह्माण्डों के बीच खाली स्थान) अर्यमा है। ब्रह्माण्ड में १०० अरब ताराओं के बीच का स्थान वरुण है। सौर मण्डल का आदित्य मित्र है। ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्ड में तारा संख्या की गणना शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५) में है।
ब्रह्मैव मित्रः (शतपथ बाह्मण, ४/१/४/१, ५/३/२/४)
मित्रः (एवैनं) सत्यानां (सुवते(। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/७/४/१)
क्रिया भाग दक्षिण तथा निष्क्रिय भाग वाम हस्त है। अतः मित्र को दक्षिण और वरुण को वाम कहा है।
मैत्रो वै दक्षिणः। वरुणः सव्यः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/७/१०/१)
अप्सु वै वरुणः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/५/६)
आभिर्वा अहमिदं सर्वं आप्स्यामि यदिदं किं चेति। तस्मादापोऽभवन्। तदपामप्त्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१/२)
ता या अमू रेतः समुद्रं वृत्वातिष्ठंस्ताः प्राच्यो दक्षिणाच्यः प्रतीच्य उदीच्यः समवद्रवन्त। तद्यत्समवद्रवन्त तस्मात्समुद्र उच्यते। ता भीता अब्रुवन्। भगवन्तमेव वयं राजानं वृणीमह इति। यच्च वृत्वातिष्ठंस्तद्वरणोऽभवत्। तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१/७)
सबसे ऊपर अर्यमा-एषा वा ऊर्ध्वा बृहस्पतेः दिक् तदेष उपरिष्टाद् अर्यम्णः पन्थाः। (शतपथ ब्राह्मण, ५/५/१/१२)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद, २/२७/८)
(३) अग्नि का उल्लेख २ बार है। एक अग्रि अर्थात् सबसे प्रथम उत्पन्न परब्रह्म है। निर्माण की प्रथम क्रिया है, पिण्डों का निर्माण, जिनको पृथिवी (पृथु = ठोस, सीमाबद्ध) या भूमि (भू = होना, मि = सीमा में मित) कहा गया है।
स यदस्य सर्वस्य अग्रं असृज्यत तस्माद् अग्रिः, अग्रिः ह वै तं अग्निः इति आचक्षते परोक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/११)
अग्निःवै देवानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः। (शतपथ ब्राह्मण, ३/९/१/६)
इयं पृथिवी अग्निः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/१४, ७/३/१/२२, १४/९/१/१४, बृहदारण्यक उपनिषद्, ६/२/११)
अभूद् वा इदं इति, तद् भूमेः भूमित्वम् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २०/१४/२, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/१/३/७, शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१५)
अग्निः यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव (कठोपनिषद्, ५/९, बृहदारण्यक उपनिषद्, २/१)
(४) सुपर्ण गरुत्मान-दोनों गरुड के नाम हैं। गरुत् = पक्ष (पंख)। पंख युक्त गरुत्मान् है। पर्ण का अर्थ पत्ता या पंख है। सु = इनसे निर्माण। सृष्टि को सुकृत कहा है, क्योंकि निर्माण सामग्री, निर्माण कर्ता, स्थान, उत्पाद-आदि सभी ब्रह्म ही हैं।
असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तदात्मानँ स्वयमकुरुत तस्मात्तत्सुकृतम् उच्यत इति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/१)
गरुत्मान् के २ पक्ष-पुरुष प्रकृति या अग्नि-सोम द्वैत हैं।
सुपर्ण में २ पर्ण समरूपता हैं, ४ शरीर की आयताकार सीमा ४ प्रकार के मूल बल हैं, तथा १ मुख स्रोत है। पुच्छ अगले सृष्टि क्रम के लिए पुच्छ हो जाता है। इसे चित्र रूप में सुपर्ण चिति कहते हैं।
त इद्धाः सप्त नाना पुरुषानसृजन्त। स एतान् सप्त पुरुषानेकं पुरुषमकुर्वन्-यदूर्ध्वं नाभेस्तौ द्वौ समौब्जन्, यदवाङ् नाभेस्तौ द्वौ। पक्षः पुरुषः, पक्षः पुरुषः। प्रतिष्ठैक आसीत्। अथ या एतेषां पुरुषाणां श्रीः, यो रस आसीत्-तमूर्ध्व समुदौहन्। तदस्य शिरोऽभवत्। स एवं पुरुषः प्रजापतिरभवत्। स यः सः पुरुषः-प्रजापतिरभवत्, अयमेव सः, योऽयमग्निश्चीयते (काय रूपेण- शरीर रूपेण- मूर्त्तिपिण्ड रूपेण- भूतपिण्ड रूपेण)। स वै सप्तपुरुषो भवति। सप्तपुरुषो ह्ययं, पुरुषः-यच्चत्वार आत्मा, त्रयः पशुपुच्छानि। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/२-६)
(५) मातरिश्वा-अप् में पदार्थों के मिश्रण के लिए गति आवश्यक है, जिससे नया निर्माण है। इस गति या वायु से माता जैसा निर्माण होता है, अतः इसे मातरिश्वा वायु कहते हैं।
तस्मिन् अपो मातरिश्वा दधाति (वाज. यजु, ४०/४, ईशावास्य उपनिषद्, ४)
यावन् मात्रं उषसो न प्रतीकं सुपर्ण्यो वसते मातरिश्वः (ऋक्, १०/८८/१९)
२. शुनः इन्द्र-
ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां इन्द्र नहीं हो-
नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किञ्चन । (ऋक्, ९/६९/६)
यह शून्य में भी वर्तमान है, अतः इसे शुनः इन्द्र कहते हैं इस इन्द्र से इद्दर, ईथर (Ether) हुआ है, जो शून्य में भी वर्तमान है।
वह मेघ की तरह पूरे आकाश या देश में छाया हुआ है अतः मघवा है। इसका मूल है-महि (मंह) वृद्धौ (धातु पाठ, १/४२२) इसका अन्य अर्थ पूज्य करते हैं (मह पूजायाम्-१/४८५, ११/३२)।
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रम्। (ऋक्, ३/३०/२२)।
जैसे इन्द्र शून्य में भी है उसी प्रकार कुत्ता खाली घर देख कर उसमें घुस जाता है, अतः उसे श्वान (शुनः) कहते हैं। अकेली स्त्री को देखकर युवक (युवन्) भी उसके पीछे लग जाता है, जैसे इन्द्र गौतम पत्नी को अकेले देख कर उनके घर में घुस गये थे। अतः श्वन्, युवन्, मघवन्-इन ३ शब्दों के रूप एक जैसे चलते हैं- श्वयुवमघोनामतद्धिते (पाणिनि अष्टाध्यायी, ६/१/३३)
सरिस श्वान मघवान जुबानू॥ (रामचरितमानस, २/३०१/८)
शुनेव यूना प्रसभं मघोना प्रधर्षिता गौतमधर्मपत्नी।
विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह॥
एक अन्य कथा है कि शंकराचार्य कश्मीर में यात्रा कर रहे थे तो एक कन्या को एक ही माला में कांच, मणि और सोना गूंथते देखा तो पूछा कि ऐसी विचित्र माला क्यों बना रही हो? कन्या ने उत्तर दिया कि विद्वान् पाणिनि ने भी श्वन्, युवन्, मघवन् को एक ही सूत्र में बान्ध दिया है। यहां ’काच’ के बदले ’गुञ्जा’ पाठ भी है।
काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे, ग्रथ्नासि बाले! किमिदं विचित्रम् ?
विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे, श्वानं युवानं मघवानमाह॥
राजा के रूप में इन्द्र शून्य सम्पत्ति का स्वामी होता है, अर्थात् जिस भूमि का कोई स्वामी नहीं होता, वह राजा की होती है। भूमि के नीचे की सम्पत्ति भी राजा की होती है।
यं तु पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ।
तस्माद् द्विजेभ्यो दत्त्वार्धमर्धं कोशे प्रवेशयेत्॥३८॥
निधीनां तु पुराणानां धातूनामेव च क्षितौ।
अर्ध भाग्रक्षणाद्राजा भूमेरधिपतिर्हि सः॥३९॥
(मनुस्मृति, अध्याय, ८)
ओड़िशा पूर्व भाग होने से इन्द्र क्षेत्र था अतः यहां उनकी भू सम्पत्ति को भुआसुनी (शून्य अधिकार की भूमि) कहते हैं।
३. मनु इन्द्र-
मन का मूल स्रोत अव्यक्त ब्रह्म था जिसने विविध रूपों में प्रकट होने की इच्छा की। वह शून्य में होने से श्वो-वसीयस मन था।
असतोऽधि मनोऽसृज्यत। मनः प्रजापतिं असृजत। प्रजापतिः प्रजा असृजत। तद् वा इदं मनस्येव परमं प्रतिष्ठितम्। यदिदं किं च। तत् एतत् श्वोवस्यसं नाम ब्रह्म। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/९/१०)
सोऽकामयत्। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत यदिदं किं च। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)
कामना के साथ जो तप या ऊर्जा थी, वह ब्रह्म इन्द्र था।
दृश्य जगत् के १०० अरब ब्रह्माण्डों में मन के खण्डित रूप हुए। हमारे ब्रह्माण्ड में भी १०० अरब तारा हैं। बाहर के ब्रह्माण्ड या हमारे ब्रह्माण्ड के तारा-ये सभी नक्षत्र हैं। जितने नक्षत्र हैं, उतने १ संवत्सर के लोमगर्त्त हैं। लोम का अर्थ त्वचा पर सूक्ष्म केश हैं। उनका गर्त कलिल (Cell) है। लोमगर्त्त एक काल मान है, जो मुहूर्त्त (४८ मिनट) को ७ बार १५-१५ से विभाजित करने पर होता है। अर्थात् १ लोमगर्त्त = ४८ मिनट /१५ घात ७ = १/७५,००० सेकण्ड प्रायः। १ वर्ष में प्रायः १० घात १२ लोमगर्त्त होंगे। इतने ही शरीर की कोषिका हैं। इनका १/१० भाग अर्थात् १०० अरब शरीर के लोमगर्त्त हैं, इसलिए इस कालमान को लोमगर्त्त कहा गया है।
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानिनक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/४/२)
पुरुषो वै सम्वत्सरः। ।१॥
..दश वै सहस्राण्याष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृत्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्वः एतर्हीणि। याबन्त्येतर्हीणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः, तावन्तोऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोका वर्षन्ति। (शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/१-५)
दृश्य जगत् में ब्रह्माण्ड संख्या = हमारे ब्रह्माण्ड में तारा संख्या = मनुष्य मस्तिष्क में कलिल संख्या = १०० अरब।
इस अर्थ में मनुष्य मस्तिष्क विश्व के २ बड़े स्तरों की प्रतिमा है। या ब्रह्माण्ड या उनका समूह भी विराट् मन है। पूर्ण विश्व सदा एक जैसा रहता है, जिसमें दृश्य जगत् मूल ४ पाद के पूरुष का १ पाद है। पुरुष सूक्त-
एतावान् अस्य महिमा, अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादो ऽस्य विश्वा भूतानि, त्रिपादस्यामृतं दिवि॥ (वाज.यजु, ३१/४)
गति या परिवर्तन का अनुभव ब्रह्माण्ड में ही होता है। इसके आकर्षक केन्द्र (कृष्ण -ब्लैक होल) की परिक्रमा सूर्य कर रहा है।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो, निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋग्वेद, १/३५/२, वाज यजु, ३३/४३, तैत्तिरीय सं, ३/४/११/२)
ब्रह्माण्ड मन का मनु तत्त्व है, उसकी १ परिक्रमा १ मनु-अन्तर है। ज्योतिष में १ मन्वन्तर = ३०.६८ कोटि वर्ष प्रायः। उसमें सौर मण्डल बिखरी हुई इन्द्र ऊर्जा ग्रहण करेगा। अतः जितने मन्वन्तर होंगे, उतने आकाश के इन्द्र होंगे।
पृथ्वी अपनी मध्यम कक्षा गति से ब्रह्माण्ड की जितने समय में परिक्रमा करेगी, वह कल्प या ब्रह्मा का दिन है (४३२ कोटि वर्ष)। ब्रह्मा के दिन -रात = ८६४ कोटि वर्ष में प्रकाश जितनी दूर तक जायेगा वह तपः लोक है। वहां तक का ताप हम तक पहुंच सकता है। इसे आधुनिक भौतिक विज्ञान में दृश्य जगत् कहते हैं।
युग, मन्वन्तर, कल्प, के मान सूर्य सिद्धान्त (१/११-२०) में है, जिसका स्रोत विष्णु पुराण (१/३/८-२२, ६/३/६-१४) या अन्य पुराण हैं।
अतः १ कल्प में सूर्य मनु तत्त्व की १४ परिक्रमा करता है। हर परिक्रमा में मनु तत्त्व १४ प्रकार का तथा तदनुसार इन्द्र ऊर्जा भी १४ प्रकार की है।
ब्रह्माण्ड की प्रतिमा मनुष्य मन है, जिसका हृदय या केन्द्र भी इन्द्रिय है। वह शरीर को मन, ५ ज्ञानेन्द्रिय और ५ कर्मेन्द्रिय द्वारा सञ्चालित करता है। हृदयस्थ इन्द्र प्राण द्वारा सञ्चालित होने से ये इन्द्रिय हैं।
स वा एष आत्मा वाङ्मयः प्राणमयो मनोमयः। (शतपथ ब्राह्मण, १४/४/३/१०, बृहदारण्यक उपनिषद्, १/५/३)
हृदयमेव इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, १२/९/१/१५)
यन् मनः स इन्द्रः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ४/११)
प्राण एव इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, १२/९/१/१४)
वाक् इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, ८/७/२/६)
शरीर का सक्रिय भाग दक्षिण है, अतः दक्षिण आंख में इन्द्र तथा वाम अक्ष में इन्द्र पत्नी का निवास कहा गया है।
इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणे ऽक्षन् पुरुषः तं वा एतं इन्धँ सन्तं, इन्द्र इति आचक्षते॥२॥
अथैतत् वामे अक्षणि पुरुष रूपं एष अस्य पत्नी विराट्॥३॥
(बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/२/२-३)
शरीर के मन और उसका प्राण इन्द्र की भी १४ जिह्वा हैं-७ ग्रहण करनेके लिए (लेलायमान) ७ बाहर करने के लिए (अर्चि या अङ्गिरा)।
तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा। (योग सूत्र, २/२७)
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वेनो देवा अवसा गमन्निह। (ऋग्वेद, १/९८/७, यजुर्वेद, २५/२०)
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ (मुण्डकोपनिषद्, १/२/४)
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः (मुण्डकोपनिषद्, २/१/८)
४. इन्द्र और विष्णु-
सूर्य इन्द्र (इन्ध = इन्धन) रूप में तेज का विकिरण करता है। तेज निकलना अर्चि या अङ्गिरा है जिसके ३ क्षेत्र हैं।
विष्णु रूप में आकर्षण करता है। यह भृगु है जिसके कारण घनत्व के ३ स्तर हैं।
अर्चिर्षि भृगुः सम्बभूव, अङ्गारेष्वङ्गिराः सम्बभूव। अथ यदङ्गारा अवशान्ताः पुनरुद्दीप्यन्त, तद् बृहस्पतिरभवत्। (ऐतरेय ब्राह्मण, ३/३४)
अग्निरादित्ययमा-इत्येतेऽङ्गिरसः ….वायुरापश्चन्द्रमा-इत्येते भृगवः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, २/९)।
अर्चि के क्षेत्र सूर्य रूपी विष्णु के ३ पद है-अग्नि १०० सूर्य व्यास तक, वाय् ३००० व्यास तक, यम या सीमा तक प्रकाश क्षेत्र।
भृगु से पहले गति रूप वायु, फिर विरल पदार्थ पिण्ड रूपी अप्, तथा ठोस पिण्ड रूपी चन्द्र होता है।
इस प्रकार सूर्य के इन्द्र और विष्णु की प्रतिस्पर्धा से ३ क्षेत्र बने जिनको ३ साहस्री कहा गया है।
उभा जिग्यथुर्न पराजयेथे, न पराजिज्ञे कतरश्च नैनोः।
इन्द्रश्च विष्णू यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्रं वि तदैरयेथाम्॥ (ऋक्, ६/६९/८)
किं तत् सहस्रमिति? इमे लोकाः, इमे वेदाः, अथो वागिति ब्रूयात्। (ऐतरेय ब्राह्मण, ६/१४)
यहां सौरमण्डल के भीतर हमारा लोक पृथ्वी ग्रह है। जहां तक के ग्रहों का हमारे ऊपर प्रभाव पड़ रहा है (सहस्राक्ष = १००० व्यास दूरी के भीतर शनि तक के ग्रह) वह वेद है। प्रभाव से उनका ज्ञान हो रहा है। जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक (वि-राजते) है, वह सूर्य या पतङ्ग की वाक् है। इसकी माप ३० धाम है, अर्थात् पृथ्वी व्यासको ३० बार २-२ गुणा करने पर।
शत योजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति। (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३)
सहस्रः हैत आदित्यस्य रश्मयः। (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/४४/५०)
त्रिंशद् धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि। (ऋक् १०/१८९/३)
मनुष्य या अन्य जीव के शरीर में आदान-प्रदान की क्रियायें निरन्तर चल रही हैं। जन्म के बाद जब तक शरीर की वृद्धि होती है, विष्णु द्वारा ग्रहण अधिक होता है, इन्द्र का विकिरण कम। वृद्धावस्था में इन्द्र जीत जाता है, शरीर का क्षय अधिक होने लगता है। इसी प्रकार सूर्य के जीवन में भी ये क्रियायें चल रही हैं। अन्तर यही है कि इनका जीवन काल बहुत बड़ा है जिसे ब्रह्मा का दिन-रात कहा है।
५. वासव इन्द्र-
मूल इन्द्र शक्ति अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। इसे कई प्रकार से कहा गया है। अव्यक्त बह्म सृष्टि निर्माण के बाद हर निर्मित पदार्थ में प्रविष्ट हो गया। वह मूर्त (सत्) तथा अमूर्त्त (त्य) भी है-दोनों को मिला कर सत्य है।
तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)
ऊर्जा रूप ब्रह्म इन्द्र है, वह भी हर रूप में प्रविष्ट है-
रूपं रूपं वयो वयः (अथर्व सं, १३/१/४, काण्व सं, ८/१४)
= हर रूप एक वयन है-परस्पर सम्बन्ध का सूत्र या ऋषि (रस्सी) है, उनसे निर्माण वस्त्र बुनने जैसा वयन है। यह वयन जितने काल तक रहता है, वह भी वयः (वयस = आयु) है।
रूपं रूपं अधुः सुते (वाज. सं, २०/६४)
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऋक्, ६/४७,१८, शतपथ ब्राह्मण, १४/५/१९)
= माया अर्थात् आवरण द्वारा फैली हुई इन्द्र ऊर्जा पुरु (पुर या रचना) रूप में आता है। वह रूप अलग से स्पष्ट दीखता है। सभी रूप उसके ही प्रतिरूप हैं, ये अनेक (सहस्रों) हैं।
रूपं रूपं मघवाबोभवीति माया कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥ (ऋक्, ३/५/३/८)
= मघवा का अर्थ महत् रूप है-बिखरी ऊर्जा का संकलन। सांख्य दर्शन में इसे महत् कहा है। जब इसमें एक पिण्ड होने का भाव आता है तो यह अहंकार है। मनुष्य शरीर में १० खर्व से अधिक कलिल हैं, वे सभी अपने को एक ही शरीर का अंश मानते हैं। हर शरीर के कणों का एक होने का भाव मन्त्र है, अन्य शरीर का भिन्न मन्त्र या एकत्व है। आकाश में इन्द्र का महत् रूप सूर्य है जो प्राण का स्रोत है। उससे हमारे शरीर में मन्त्र १ मुहूर्त में ३ बार आता और जाता है।
इसकी व्याख्या उपनिषद् में है कि सूर्य रूप महत् इन्द्र से हमारा सम्बन्ध प्रकाश गति से है। हृदय से १०० नाड़ियां निकलती हैं, ब्रह्म रन्ध्र तक एक नाड़ी जाती है, जिससे हमारा सम्बन्ध बाह्य विश्व से है। हर व्यक्ति के लिए हृदय से ब्रह्म रन्ध्र तक अणु पथ है। उसके बाद प्रत्येक ब्रह्म रन्ध्र से सूर्य तक का संयुक्त मार्ग महा-पथ है। प्रकाश की गति से मन्त्र जाने में सूर्य की दूरी प्रायः १५ करोड़ किलोमीटर है, उतनी दूर जाने में प्रायः ५०० सेकण्ड या ८ मिनट लगेगा। जा कर लौटने में १६ मिनट लगेगा। अतः १ मुहूर्त (४८ मिनट) में ३ बार जा कर लौट आयेगा। जब तक जीवन है, यह क्रम चलता रहता है। मृत्यु होने पर शरीर से मन्त्र चला जाता है, लौट कर नहीं आता।
त्रिर्ह वा एष (मघवा = इन्द्रः, आदित्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूर्त्तस्येमां पृथिवीं समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/९)
इस रूप में सूर्य जगत् की आत्मा है।
सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च (वाज. यजु, ७/४२)
तदेते श्लोका भवन्ति-अणुः पन्था विततः पुराणो मां स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव। तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं लोकमिव ऊर्ध्वं विमुक्ताः।८।
तस्मिन् शुक्लं उत नीलं आहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणा हि आनुवित्तः तेन एति ब्रह्मवित् पुण्यकृत् तैजसश्च॥ (बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/४/८,९)
अथ या एता हृदयस्य नाड्यः ताः पिङ्गलस्य अणिम्नः तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्य इति असौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष लोहितः॥१॥ तत् यथा महापथ आतत उभौ ग्रामौ गच्छति इमं च अमुं च अमुष्मात् आदित्यात् प्रतायन्ते ता आसु नाडीषु सृप्ता आभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुष्मिन् आदित्ये सृप्ताः॥२॥ ….. अथ यत्र एतदस्मात् शरीरात् उत्क्रामत् अथ एतैः एव रश्मिभिः ऊर्ध्वं आक्रमते स ओम् इति वा आह उत् वा मीयते स यावत् क्षिप्येत् मनः तावत् आदित्यं गच्छति एतत् वै खलु लोकद्वारं विदुषा प्रपदनं निरोधोऽवदुषाम् ॥५॥ (छान्दोग्य उपनिषद्, ८/६/१,२,५)
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तत् ओकः अग्र ज्वलनं तत् प्रकाशित द्वारो विद्या सामर्थ्यात् तत् शेष गति अनुस्मृति योगात् च हार्दानुगृहीतः शताधिकया। (योग सूत्र, ३/३९ में पर शरीर में आवेश की यही विधि है कि चित्त का बन्धन शिथिल कर ब्रह्म रन्ध्र तक उसका मार्ग प्रकाशित करें-बन्ध कारण शैथिल्यात् प्रचार संवेदनात् च चित्तस्य पर शरीरावेशः)
२. रश्मि अनुसारी। ३. निशि नेति चेन सम्बन्धस्य यावत् देह भावित्वात् दर्शयति च। ४. अतः च अयनेऽपि दक्षिणे।
आकाश का महत् (संहति) तेज मघवा हुआ। उससे गति रूप अनल या मरुत्वान् इन्द्र हुआ। उसमें मेघ जैसी संहति भी मघवा हुआ। ठोस पिण्ड जिसका पुर या पुरु रूप है, वह वसु (पुर में वास करने वाला) इन्द्र हुआ।
६. रुद्र इन्द्र-
इन्द्र तेज है। उसकी तीव्रता का स्तर रुद्र है। सूर्य से उसके १०० व्यास दूरी तक भीषण ताप है जो पदार्थों का खण्डन करता है, अतः उसे रुद्र तेज कहते हैं। १००० व्यास तक शान्त तेज या शिव है। उसके बाद शिवतर १ लाख व्यास तक तथा शिवतम सौर मण्डल की सीमा (१५७.५ कोटि व्यास) तक है। ब्रह्माण्ड में तेज प्रायः स्थिर है, वह सदाशिव है। उसमें तरंग सहित अप् को अम्भ कहते हैं, उसके साथ साम्ब-सदाशिव है।
नमः शिवाय च, शिवतराय च (वाज. यजु, १६/४१)
यो वः शिवतमो रसः (ऋक्, १०/९/१-३, वाज सं, ११/५०-५२, ३६/१४-१६, अथर्व सं, १/५/१-३ आदि)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मणउपनिषद्, १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/८/१८/१)
सूर्य के रुदन या किरण का क्षेत्र रोदसी मण्डल है। ब्रह्माण्ड के सभी सूर्यों का सम्मिलित रुदन क्रन्दन है, उसका क्षेत्र क्रन्दसी है। उसके बाहर सदा एक जैसा है, वह संयती है।
यदरोदीत् (प्रजापतिः) तदनयोः (द्यावा-पृथिव्योः) रोदस्त्वम् । (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/९/४)
(वाज. यजु, ११/४३, १२/१०७)
इमे वै द्यावापृथिवी रोदसी । (शतपथ ब्राह्मण, ६/४/४/२, ६/७/३/२, ७/३/१/३०)
इमे ( द्यावापृथिव्यौ) ह वाव रोदसी । (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण१/३२/४)
द्यावापृथिवी वै रोदसी । (ऐतरेय ब्राह्मण २/४१)
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने (ऋक्, १०/१२१/६, वाज. यजु, ३२/७, तैत्तिरीय संहिता, ४/१/८/५)
यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते (ऋक्, २/१२/८)
रुद्र तेजों में अन्तर के कारण गति होती है, जैसे अग्नि के कारण वायु की गति उससे दूर दिशा में होती है। ब्रह्माण्ड के विभिन्न मरुतों का विभाजन इन्द्र तेज के स्तरों के कारण है। यह दिति के गर्भ का इन्द्र द्वारा ४९ मरुत् विभाग है।
सप्त सप्त हि मारुता गणाः (यजु ३९/७)-शतपथ ब्राह्मण (९/३/१/२५)
शरीर के भीतर इन्द्रिय के कारण मनुष्य रोता है, अतः इन्द्रियों को भी रुद्र कहा गया है।
७. राजा इन्द्र-
भारत केन्द्र से पूर्व दिशा का लोकपाल इन्द्र है। भारत के केन्द्रीय भाग से ८ दिशाओं के स्वामी ८ दिक्पाल कहे गये हैं-
इन्द्रो वह्निः पितृपतिर्नैर्ऋतो वरुणो मरुत्। कुबेर ईशः पतयः पूर्वादीनां दिशाः क्रमात्॥ (अमर कोष, १/३/२)
अतः इन्द्र के वैदिक शब्द ओड़िशा तट से असम, बर्मा, वियतनाम और इण्डोनेसिया तक प्रचलित हैं।
इन्द्र तथा गरुड़ के भवन यवद्वीप सहित सप्त द्वीपों में थे। यहां द्वीप समुद्र, पर्वत, नदी या मरुस्थल से घिरा प्राकृतिक भूखण्ड है।
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत् त्रिदशेश्वरैः (इन्द्र)॥५४॥
(जम्बूद्वीप = एसिया) की पूर्व दिशा के लिये वहां उदय पर्वत (पूर्व दिशा में पहले सूर्योदय) पर ३ सिर का ताल (स्तम्भ) इन्द्र का बनाया है। (४ त्रिभुजों से घिरा पिरामिड, या त्रिकोणाकार स्तम्भ)
तत्र पूर्वपदं कृत्वा पुरा विष्णुः त्रिविक्रमे। द्वितीयं शिखरे मेरोः चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०)
पूर्व दिशा में प्रथम पाद यवद्वीप (सप्तद्वीप) के पूर्व भाग में गया जिसकी सीमा पर इन्द्र ने पिरामिड बनाया था। उसके बाद मेरु (उत्तर ध्रुव) तक द्वितीय पाद गया। तृतीय पद पुनः वापस भारत की पश्चिम सीमा (उज्जैन से ४५ अंश पश्चिम) तक गया जो राजा बलि के सिर पर था।
यहां पूर्व पद का अर्थ है पूर्व दिशा में भू-परिधि का चतुर्थांश। उत्तर गोल में ४ पाद हैं-भारत वर्ष (उज्जैन मध्य रेखा के पूर्व पश्चिम ४५-४५ अंश, विषुव से उत्तर ध्रुव तक), पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष।
भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे।
वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा।
पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः॥४०॥ (विष्णु पुराण, २/२)
इस भारत वर्ष (भू पद्म का चतुर्थ अंश) में इन्द्र के ३ लोक थे-हिमालय से दक्षिण समुद्र तक भारत, मध्य में चीन ( वहां के लोग चीन को मध्य लोक कहते हैं), उत्तर में रूस, शिविर (साइबेरिया)। भारत का नेता (अग्रि) को अग्नि कहते थे। वह विश्व का भरण करने से भरत कहलाता था।
इन्द्र का काल वैवस्वत मनु (१३९०० ईपू) से १० युग = ३६०० वर्ष तक था। इस काल में १४ प्रमुख इन्द्र हुए। इन लोगों ने प्रायः १००-१०० वर्षों तक शासन किया अतः इन्द्र को शत-क्रतु या संक्षेप में शक्र कहते थे।
नारद पुराण. अध्याय (१/४०) के अनुसार १४ मन्वन्तरों के १४ इन्द्र हैं-
(१) शचीपति, (२) विपश्चित्, (३) सुशान्ति, (४) शक्र, (५) विभु, (६) मनोजव, (७) पुरन्दर, (८) बलि, (९) अद्भुत्, (१०) शान्ति, (११) वृष, (१२) ऋभु, (१३) सुत्रामा, (१४) महावीर्य।
ऋग्वेद के बहुत से मन्त्रों के देवता इन्द्र हैं, यह इन्द्र का प्राण या ऊर्जा रूप है। ऋषि इन्द्र मनुष्य हैं। ऋक् सूक्त (१/१६५) के ऋषि तथा देवता दोनों इन्द्र हैं। चरक संहिता मूलतः कृष्ण यजुर्वेद की १२ संहिताओं का नाम था। वर्तमान आयुर्वेद की चरक संहिता में जिस मनुष्य ने जिस तत्त्व की व्याख्या की उसका नाम वैसा ही रखा है-कफ की व्याख्या करने वाला काप्य, वात व्याख्या कर्ता वातव्याधि, पित्त व्याख्याता मरीचि (ताप से पित्त होता है)। ऋग्वेद में भी इन्द्र तत्त्व की प्रथम व्याख्या करने वाले को इन्द्र कहा है। ऋषि इन्द्र के व्यक्तिगत नाम भी हैं-वैकुण्ठ इन्द्र, मुष्कवान् इन्द्र, शचीपति इन्द्र।
भारत के कई राजा भी इन्द्र पद पर रहे हैं-नहुष (महाभारत, आदि पर्व, ७५/२९-३०), धन्वन्तरि (ब्रह्म पुराण, २/५२)। कुछ राजाओं ने युद्ध में इन्द्र की सहायता की-सूर्यवंशी इक्ष्वाकु का पौत्र पुरञ्जय या ककुत्स्थ (विष्णु पुराण, ४/२/२१-३२), चन्द्र वंशी पुरुरवा का पौत्र रजि (ब्रह्म पुराण, १/९, भागवत पुराण, ९/७१), अर्जुन का इन्द्र सहायता के लिए निवातकवचों से युद्ध (महाभारत, वन पर्व, अध्याय, १६५-१७२)।
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