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स्त्री के अन्दर अनिर्वचनीय पुष्पली गन्धतत्व
श्री विशिष्ठानंद (कौलाचारी )-
Mystic Power- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक मूल ” परमतत्व”है जिसे लोगों ने परब्रह्म के नाम से पुकारा है,परमेश्वर के नाम से संबोधित किया है। भारतीय तत्वदर्शियों के अनुसार–सृष्टि के आदि काल से वह मूल “परमतत्व” घनीभूत होकर दो भागों में विभक्त हो गया। जब भारतीय संस्कृति का विकास हुआ तो लोगों ने उन दोनों भागों को “शिव” और “शिव”की संज्ञा दी।
सृष्टि के विकास-क्रम में आगे चल कर शिव और शक्ति “पुरुषतत्व” और “स्त्रीतत्व” की संज्ञा में परिवर्तित हो गए। बाद में वही दोनों तत्व “ब्रह्म-माया” “प्रकृति-पुरुष” और”परमेश्वर-परमेश्वरी” के रूप में परिकल्पित हो गए। इन्हीं दोनों तत्वों से ब्रह्माण्ड में दो प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें आज के वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन कहते हैं। इन दोनों तरंगों के बीच एक और तरंग है जिसे न्यूट्रॉन की संज्ञा दी गई है। न्यूट्रॉन विद्युत् विहीन होते हुए भी चुम्बकीय ऊर्जा से युक्त तरंग है। इन्हीं तीनों तरंगों से परमाणुओं की रचना होती है। एक परमाणु का व्यास लगभग एक बटे दस करोड़ से.मी.होता है। इसकी लम्बाई की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
पुरुषतत्व धनात्मक और स्त्रीतत्व ऋणात्मक है। दोनों एक दूसरे की ओर बराबर आकर्षित होते रहते हैं। यही कारण है कि परमाणु की परिधि पर इलेक्ट्रॉन बराबर चक्कर लगाया करते हैं। जहाँ आकर्षण है वहाँ “काम” है। सृष्टि की दिशा में वह “आदि आकर्षण” “आदि काम” है। कामजन्य आकर्षण मिथुनात्मक है। इसीलिए कहा गया है कि सृष्टि के मूल में “मैथुन”है। दो विपरीत तत्वों के आपसी आकर्षण में जब “काम” का जन्म होता है तो उसकी परिणति “मैथुन” में होती है। मैथुन का परिणाम है–सृष्टि। यही विश्व वासना है और नारी विश्ववासना की प्रतिमूर्ति है।
सृष्टि के आदि काल में जब शिव (पुरुष) तत्व और शक्ति(स्त्री)तत्व एक दूसरे की ओर आकर्षित हो कर एक दूसरे की सत्ता में विलीन हुए तो उसके परिणामस्वरूप विश्व ब्रह्माण्ड में एक विराट सर्वव्यापक चेतना का आविर्भाव हुआ जिसे आगे चल कर “आदि शक्ति” या “परमशक्ति” के नाम से जाना गया। यह स्पष्ट है कि इस आदिशक्ति का आदि विकास मिथुनात्मक है। अनुकूल परिस्थिति में, शरीरिक,मानसिक और आत्मिक संप्रयोग में वही आदिशक्ति परिणत होती है। रौद्रात्मक,विसर्गात्मक और कलात्मक प्रवृत्ति पुरुष है। शांत्यात्मक,आदानात्मक और सहनात्मक प्रवृत्ति स्त्री है। यही नियम सर्वत्र व्याप्त है। शिवतत्व और शक्तितत्व के अकर्षणात्मक,सामंजस्यात्मक और मिथुनात्मक भाव “लिंग” और उसकी “पीठिका” है।
वैदिक काल में इन दोनों को दो अरणियों के रूप में चित्रित किया गया है। ऊपर की अरणी अर्थात शिवलिंग पुरुषतत्व और नीचे की अरणि जिसे “अर्घा” कहा जाता है, स्त्रीतत्व वाचक माना जाता है। शिव की अर्धनारीश्वर मूर्ति इसी तथ्य की ओर संकेत करती है। शैव दर्शन और शाक्त दर्शन के अनुसार शिव “प्रकाश” और शक्ति “स्फूर्ति” है। ये दोनों तत्व ब्रह्माण्ड के मूल तत्व हैं।
सृष्टि की प्रक्रिया में शिव जड़तत्व और शक्ति है चेतनतत्व। जड़ चेतना का आधार है। जड़ पदार्थ दिखलाई पड़ता है लेकिन उसके माध्यम से प्रकट होने वाली चेतना शक्ति दिखलाई नहीं पड़ती। उसको तो सिर्फ अनुभव ही किया जा सकता है। कोई भी शक्ति बिना किसी माध्यम के कभी प्रकट नहीं हो सकती और जिस माध्यम से वह प्रकट होती है उसे गतिमान और चलायमान कर देती है। शक्ति का यह सबसे बड़ा गुण है। जड़ आधार है तो चेतना आधेय है, जड़ आसन है और चेतना आसीन या आरूढ़ है। शिव पर आरूढ़ काली की छवि इसी रहस्य को प्रकट करती है। हमारा शरीर भी तो जड़ है, आधार है। जबतक उसे आधार बना कर चेतना उपस्थित रहती है,तबतक शरीर चैतन्य और क्रियाशील रहता है–जिसे हम जीवन कहते हैं। लेकिन शरीर से चेतना का सम्बन्ध टूटते ही जीवन की कड़ी हमेशा के लिए टूट जाती है। फिर शरीर “शिव” से “शव” होते देर नहीं लगती।
प्राणियों के चरम विकास में शिवतत्व “शुक्रबिन्दु”के रूप में जिसे “श्वेदबिन्दु” कहते हैं, मनुष्य के सहस्रार चक्र में अवस्थित है। इसी प्रकार शक्तितत्व “राजोबिन्दु” के रूप में जिसे “रक्तबिन्दु” या “स्फूर्ति” पुकारा जाता है, स्त्री देह के भीतर मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में विराजमान है। मगर पुरष शरीर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसके मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी शक्ति के रूप में शिव और शक्ति दोनों तत्व (विज्ञान की भाषा में “एक्स” और “वाई” जीवाणु ) समान मिश्रित अर्धनारीश्वर रूप में अवस्थित हैं। यही महामाया है, परमा शक्ति है,आदि शक्ति है।
शरीर के भीतर शक्ति केंद्र के रूप में 7 चक्र होते हैं। चक्रों में अंतिम चक्र “सहस्रार” है। इसी चक्र के मूल केंद्र में शिवतत्व रूप शुक्रबिन्दु की स्थिति है।
एक रहस्य की बात यहाँ जानना आवश्यक है कि इसी शुक्रबिन्दु से एक विशेष प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा बराबर निःसृत होती रहती है जो ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से मिल कर 2.5 (ढाई) बिंदु अमृत की रचना ब्रह्म मुहूर्त में करती है। यह अमृत जीवनी शक्ति है। पहली बून्द मुंह में गिरती है जिससे मुंह में लार बनती है। मृत्यु के 24 घंटे पूर्व यह अमृत बून्द गिरनी बंद हो जाती है जिससे मुंह सूखने लगता है और जीभ लड़खड़ाने लगती है। स्पष्ट शब्द मुंह से निकलना बंद हो जाते हैं। दूसरी बून्द ह्रदय में पहुँच कर उसे शक्ति देती है जिससे शरीर में रक्त-संचार होता रहता है। शेष आधी बून्द नाभि में पहुँचती है जिससे हमें भूख लगती है और अन्न का पाचन होने के बाद रस और अंत में वीर्य बनता है। इसीलिए कहा जाता है कि वीर्य(शुक्र) का स्वरुप शिव का स्वरुप है और इसका सम्बन्ध सहस्रार से है। यह धनात्मक होता है। इसी प्रकार स्त्री के मूलाधार चक्र में ऋणात्मक राजोबिन्दु की स्थिति है।
इससे भी विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा तरंग बराबर निःसृत होती रहती है जिसका प्रवाह ऊपर की ओर है। यह ऊर्जा भी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से मिल कर 3.5( साढ़े तीन) बिंदु अमृत का निर्माण करती है जिसमें ढाई बिंदु अमृत का उपयोग उसी प्रकार होता है जिस प्रकार पुरुष में। मगर शेष एक बिंदु एक ऐसे रहस्यमय “गंधतत्व” का निर्माण करता है जो स्त्री के किशोरावस्था में प्रवेश करते ही उसके देह से प्रस्फुटित होने लगती है। उस अनिर्वचनीय गंधतत्व को तंत्र की भाषा में “पुष्पली गन्ध” कहा जाता है। इसी पुष्पली गन्ध के प्रभाव से पुरुष स्त्रियों की ओर अज्ञात रूप से आकर्षित होता रहता है। मानव प्राणियों के अतिरिक्त अन्य जीव-जंतुओं में भी नर जीव का मादा जीव की ओर आकर्षण इसी पुष्पली गंध के कारण होता है जो नैसर्गिक है।
शुक्र बिंदु और रजो बिंदु में प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन की सम्भावना समझनी चाहिए। दोनों की ऊर्जाएं बराबर एक दूसरे के प्रति आकर्षित होती रहती हैं और जब उनका आकर्षण एक विशेष सीमा पर जा कर घनीभूत होता है तो उस स्थिति में वहां न्यूट्रॉन की सम्भावना पैदा हो जाती है। फलस्वरूप दोनों प्रकार की ऊर्जाएं और उनमें निहित दोनों प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें एक दूसरे से मिलकर एक ऐसे विलक्षण अणु का निर्माण करती हैं जिसे हम “आणविक शरीर” या “एटॉमिक बॉडी” कहते हैं।
इस एटॉमिक बॉडी में हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व ,सम्पूर्ण जीवन की घटनाएं, और सम्पूर्ण जीवन का इतिहास छिपा होता है। यह अणु शरीर है जिसके निर्माण की आधार शिला पहले ही दिन गर्भ में रख जाती है।उसी गर्भ के पूर्ण विकसित हो जाने पर जन्म के 24 घंटे पूर्व गर्भ के संस्कारों के अनुरूप आत्मा प्रवेश करती है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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