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सूर्य महात्म्य
शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
धर्म पुरुष सूर्य का उपासक धर्मात्मा है। सूर्योपासक तेजस्वी होता है। सूर्यमण्डल का ध्यान करने से आत्मा तेजोमय होती है। आकाश सूर्य को आश्रय देता है, समस्त ज्योतियों को स्थान देता है, धारण करता है। अतः आकाश परम धर्म है। हम आकाश को धारण करें, देखें तथा आकाशवत् होवें यह हमारा धर्म है। इस धर्म को नमस्कार ।
आकाश में नानाकार अतिकाय ज्योतिर्मय लोक हैं। इन्हें नीहारिका कहते हैं। वेद में आकारानुसार इनके नामों का उल्लेख है। वाक्य है…
” शिंशुमारा अजगराः पुरीकया जषा मत्स्या रजसा येभ्यो अस्यति।”( अथर्व ११/२/२५)
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शिशुमाराः= सोंस के आकार वाले। अजगराः = स्थूलकाय सर्प के आकार वाले। परीकयाः = गरुण के आकार के। जषः = मकर के आकार वाले। मत्स्याः = तिमिंगलों के आकार के । रजस्= ज्योति, प्रकाश (निरुक्त ४/३/१९)। आ = निश्चितार्थक एवं समग्रार्थक अव्यय । येभ्य: जिन के द्वारा। अस्यति= फेंका जाता है, प्रक्षिप्त किया जाता है।
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ये आकाश की नीहारिकाओं (विशाल तारा मण्डलों) के नाम है। इनके द्वारा आकाश में अमित प्रकाश विकीर्ण होता रहता है। इन तारा मण्डलों में बड़े बड़े तारे हैं। विशाल तारे लघु तारों को अपने में आत्मसात कर लेते हैं, पचा जाते हैं, जैसे सोंस अपने बच्चे को, अजगर छोटे जीवों को, गरुण पक्षियों को, मकर छोटे जीवों को, मत्स्य छोटी मछलियों को पौराणिक साहित्य में इन तारा मण्डलों को अषि कहा गया है। अष् पति जाना, पहुँचना, चलना) अर्पति (चमकना फैलना, फिसलना), भूष्यति (मारना, चोट पहुंचाना, हराना) से भूषि शब्द बना है। जिसमें गति है, जो भ्रमण करता है, प्रकाशित होता है, सबके द्वारा जाना जाता है, प्रसिद्ध होता है, यशस्वी होता है, अन्धकार का नाश करता है अज्ञान को दूर करता है, उसे अपि संज्ञा प्राप्त है। आकाश में सप्तर्षि मण्डल है। पतंग के आकार के सात तारे हैं जो ध्रुव तारे के चारों ओर घूमते रहते हैं। यह व्यास वचन है…
” प्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै ध्रुवः ।
उपयेमे भ्रमिं नाम तत् सुती कल्पवत्सरी ॥ इलायामपि भार्याणां वायोः पुत्र्यां महाबलः । पुत्रं उत्कल नामानं योषिद् रत्नं अजीजनत् ॥”
(भागवत पुराण ४/१०/१,२)
प्रजापतेर् शिशुमारस्य भ्रमिं नाम दुहितरम् = प्रजापति शिशुमार की भ्रमि नाम की पुत्री को । वै ध्रुवः उपयेमे= निश्चित रूप से ध्रुव ने पत्नी रूप में स्वीकार किया, ब्याहा । तत् सुतौ कल्पवत्सरौ= उसे दो पुत्र – कल्प और वत्सर उत्पन्न हुए। महाबलः (ध्रुवः) वायोः पुत्र्याम् महाबली ध्रुव ने वायु की पुत्री को । भार्याणां इलायाम्= पत्नी इला को (आश्लिष्ट किया) । योषिद् रत्नम् = स्त्री रत्न (भार्या से)। उत्कल नाम पुत्रं अजीजनत् = उत्कल नाम के पुत्र को जना (पैदा किया)।
इन श्लोकों का अर्थ है- प्रजापति शिशुमार की भ्रमि नाम की पुत्री से ध्रुव ने विवाह किया। उससे उसे कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए। महाबली ध्रुव ने वायु की अति सुन्दर पुत्री इला से विवाह कर उससे उत्कल नामक पुत्र उत्पन्न किया।
आकाश में सोंस के आकार की एक नीहारिका है। इसका नाम शिशुमार वा शिशुमार है। इसके दो पूँछ / मूँछ वा छोर हैं। इस नीहारिका में तारों का संग्रन्थन इस प्रकार हुआ है कि इसका एक छोर, दूसरे छोर से अलग एवं विरुद्ध दिशा में है। इसके एक छोर के तारों का समूह दिति, दूसरे छोर के तारों के समूह को अदिति तथा मध्य नाभीय भाग को कश्यप कहते हैं। दिति छोर के तारे दैत्य तथा अदिति छोर के तारे अदित्य कहे जाते हैं। इस समूह का एक तारा सूर्य आदित्य है ।
ध्रुव तारा हमारे सूर्य से सहस्रगुणा बड़ा है। इसी लिये ध्रुव को महावल कहा है। अतिबली होने के कारण सूर्य अपने परिवार सहित ध्रुव को परिक्रमा करता है। यह ध्रुव तारा प्रजापति शिशुमार कश्यप के आदिति छोर का एक तारा है। अतएव यह भी आदित्य है। प्रजापति वह है जो अपनी प्रजा संतान वा आश्रित का पालन पोषण करे। शिशुमार प्रजापति है, क्योंकि अपनी दिति और अदिति पत्नियों (छोरों) के समस्त तारों को नियंत्रित एवं पोषित करता है। पृथ्वी इससे अति दूरस्थ होने से इसको दुहिता (दूर आहिता) है। पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर भ्रमण करती है, इसलिये इस का नाम भ्रमि पड़ा है। सूर्य के परितः भूमती हुई सूर्य के साथ ध्रुव तारे के चहुंओर घूम लेती है इसलिये यह ध्रुव की भार्या हुई जो जिसके चारों ओर घूमता हुआ उससे पेषिति होता है, वह उसको भार्या पोष्य है। सूर्य भी ध्रुव के चहुँ ओर चलता है किन्तु तारा होने से ध्रुव को भार्या नहीं है। जब कि पृथ्वी ग्रह है, स्वप्रकाशित नहीं है, पोष्य है। अतः यह भार्या है। भ्रमि के दो पुत्र ध्रुव से हुए वत्सर और कल्प पृथ्वी जब अपनी कक्षा में सूर्य के चतुर्दिक, घूमती है तो इसके एक चक्र को वत्सर (संवत्सर, वर्ष) कहते हैं और जब यह सूर्य के साथ ध्रुव का एक चक्र पूरा करती है, तो इसे कल्प कहते हैं। पुनः यह कहा है- ध्रुव ने वायु की पुत्री इला से विवाह किया। वायु भी प्रजापति है। यह दृश्य नहीं है। यह प्राण है, अदृश्य है, सब को चलायमान रखता है, गति देता है। पृथ्वी गतिशील है, वायु के कारण इसलिये यह वायु की पुत्री हुई। इलू गतौ इलति से इला शब्द निष्पन्न होता है। पृथ्वी अपने स्थान पर रह कर नृत्य करती है। अपनी धुरी के चतुर्दिक घूमती है। इससे इस का नाम इला पड़ा है। पृथ्वी मह सूर्य मण्डल के समस्त ग्रहों से सुन्दर है। सुन्दर होने से इसे योषिद् (स्त्री) रत्न कहा गया है। योषिद्= रत्न= स्त्रीरत्न= महोत्तम। इस सीरत्न इला से उत्कल नाम का एक पुत्र हुआ। होरा (अहोरात्र) को उत्कल (उत्कृष्ट कलावन्त) कहते है। उत्कलयति स उत्कलः। जो प्राणियों की आयु क्षीण करता है तथा चमकता है, वह उत्कल नाम दिन-रात्रि के युग्म का है। उत्कल = अहोरात्र = होरा। इस प्रकार भूमि / श्रमि / इला के तीन पुत्र कल्प, वत्सर और उत्कल हुए २४ घंटा अथवा ६० घटी का एक उत्कल होता है। ३६५ दिन / होरा / उत्कल का एक वत्सर / वर्ष होता है। चार अरब बत्तीस करोड़ (४,३२,००,००,०००) वर्ष का एक कल्प होता है। कल्प को ब्रह्म (सूर्य) का एक दिन कहते हैं। कल्प = ब्रह्म दिन= सूर्य द्वारा ध्रुव की एक परिक्रमा का समय ।१ कल्प= १४ मन्वन्तर ।
प्रत्येक मन्वन्तर के आदि एवं अन्त में सतयुग के मान के बराबर सन्धि काल होता है। १४ मन्वन्तरों में १५ संधियों होती हैं। ७१ महायुगों का १ मन्वन्तर होता है। ४ युगों (सतयुग त्रेता द्वापर कलियुग) का १ महायुग होता है।
१ चतुर्युग (महायुग)= कलि + द्वापर + त्रेता + सत = ४,३२,००० + ८,६४,००० + १२,९६,००० + १७,२८,००० = ४३,२०,००० वर्ष । इन युगों के मान का अनुपात १ : २ : ३:४ है। १ मन्वन्तर = १ महायुग x ७१ = ४३,२०,००० x ७१ = ३०,६७, २०,००० वर्ष । १४ मन्वन्तर = १४ x ७१ महायुग ४,२९,४०,८०,००० वर्ष । १ संधि काल = १ सतयुग = १७,२८,००० = वर्ष ।
१५ संधियाँ १५ X १७,२८,००० = २, ५९,२०,००० वर्ष । १४ मनु + १५ संधियाँ ४,२९,४०,८०,००० + २,५९,२०,००० = ४,३२,००,००,००० वर्ष। यह भ्रमि के ज्येष्ठ पुत्र की आयु है। कल्प, वत्सर और उत्कल – इन तीनों को मेरा नमस्कार ।
ध्रुव किसका पुत्र है ? इसका उत्तर है…
” इत्युत्तानपादः पुत्रो ध्रुवः कृष्णपरायणः । अभूत् त्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ॥ ”
( भागवत पुराण ४/१२/३५)
इति उत्तानपादः पुत्रः धुवः कृष्ण परायणः = ध्रुव उत्तानपाद के पुत्र हैं तथा कृष्ण परायण हैं।
चूडामणिः इव अमल: = चूडामणि के समान अमल हैं।
त्रयाणां लोकानां अभूत्= तीनों लोकों में प्रतिष्ठित हुए ऊपर उठा हुआ, तना हुआ पाद (स्थान) है जिसका, वह है उत्तानपाद वा आकाश। अतः ध्रुव ऊर्ध्वाकाश के पुत्र हैं। कृष्ण, वह जो दूसरों का खींचे, आकर्षित करे। सप्त अषियों को कर्षित करता हुआ अपने परायण (परितः घुमाने) करने से ध्रुव को कृष्ण परायण कहते हैं। जैसे चूडामणि / वज्रमणि / हीरा निर्मल होता है, वैसे ही ध्रुव की चमक है। तीनों लोकों (ऊपर, नीचे एवं मध्य) में ये प्रतिष्ठित हुए हैं। ऐसे अमल विमल कृष्ण-परायण तारे को मेरा सादर नमन।
ध्रुव के पिता उत्तानपाद किस के पुत्र है ? श्लोक है…
“प्रियव्रतोत्तानपादो शतरूपापतेः सुतौ।
वासुदेवस्य कलया रक्षायां जगतः स्थितौ ।।”
(भागवत ४/८/७)
शतख्यातेः सुतौ शतरूपापति (मनु) के दो पुत्र हैं।
प्रियव्रतोत्तानपादौ= प्रियव्रत और उत्तानपाद ।
वासुदेवस्य कलया= वासुदेव की कला (शक्ति) से।
जगतः रक्षायां स्थितौ = जगत् की रक्षा में स्थित रहते हैं।
आकाशस्थ ज्योतियाँ नानारूपाकारों की हैं। अतः ये शतरूपा हैं। इनका पति (पालक पोषक) आकाश है। आकाश इन सब ज्योतियों को आश्रय देता है, इसलिये इसे शतरूपापति कहते हैं। इसके दो सुत (विस्तार, भाग) हैं। अन्तराकाश को प्रियव्रत तथा बाह्याकाश को उत्तानपाद कहते हैं। जीवों के भीतर जो आकाश है, वह प्राणियों को प्रिय है। अतः उसे प्रियव्रत कहा है। जीवों के बाहर जो आकाश है, वह ऊपर उठा हुआ होने से उत्तानपाद है। वासुदेव नाम प्राण का जो सबके बाहर भीतर वसता रहता है। इस वासुदेव की कला वा प्राणशक्ति से ये दोनों आकाश अंतर और बहिर, जगत् में रहते हुए विश्व का रक्षण पालन करते रहते हैं। वासुदेव की इस कला (शक्ति) को मेरा प्रणाम।
उत्तानपाद (बाह्याकाश) ने किससे विवाह कर ध्रुव को जन्म दिया ? इसका उत्तर है…
“जाये उत्तानपादस्य सुनीतिः सुरुचिस्तयोः । सुरुचि: प्रेयसी पत्युर, नेतरा यत्सुतो ध्रुवः ॥”
( भागवत ४/८/९)
उत्तानपादस्य जाये= उत्तानपाद की दो पत्नियाँ ।
सुनीति सुरुचि सुनीति और सुरुचि तयोः सुरुचिः प्रेयसी= उन दोनों में सुरुचि।
तयोः सुरुचिः प्रेयसी= उन दोनों मे सुरुचि अधिकप्रिय है।
न इतरा= दूसरी (सुनीति) उतनी प्रिय नहीं है।
पत्युः = पति की।
यत् सुतः धुवः =जिसका पुत्र ध्रुव है।
जिस दिशा में तारों की बहुलता है, उसमें जगमगाहट अधिक है। इस दिशा को सुरुचि (अधिक प्रकाशमय) कहते हैं, क्योंकि सूर्य इसमें अधिक झुका रहता वा टिकता है। यह आकाश की ध्रुवा दिशा है। जिस दिशा में अधिक तारे नहीं हैं, दूर-दूर तक विरल तारे हैं, सुनीति (अधिक दूर तक ले जाने वाली वा ऊंची है। इस दिशा सुनीति को ऊर्ध्या कहते हैं। ऊर्ध्वा दिशा में ध्रुव तारा है। इसलिये यह सुनीति का पुत्र हुआ। प्रकाश सबको अधिक प्रिय है। अतः सुरुचि भी उत्तानपाद को प्रियतर है, सुनीति केवल प्रिय मात्र है। यहाँ दक्षिण दिशा ध्रुवा सुरुचि है तथा उत्तर दिशा ऊर्ध्वा सुनीति है। उत्तर में ध्रुव तारा स्थित होने से यह सुनीति का सुत कहलाया। दक्षिण दिशा में उत्तम नामक तारा सुरुचि का पुत्र है। इस उत्तम तारे का नाम अगस्त्य है। यह दक्षिण दिशा का सबसे अधिक देदेप्यमान तारा है। क्योंकि इसकी माता सुरुचि है। ध्रुव कम देदेप्यमान तारा है। इसलिये कि इस की माता सुरुचि नहीं सुनीति है। इम लोग उत्तर गोल में रहते हैं। अतः ध्रुव को देखते रहते हैं। दक्षिण गोल वालों को उत्तम वा अगस्त्य के दर्शन होते रहते हैं।
पुराणों की कथाओं में विज्ञान है। उस विज्ञान के तल तक जाना हमारा ध्येय है। इस ध्येय में हम सफल भी हो रहे हैं।
आकाश में दो वीथियाँ हैं- विन्ध्यवीथी, मेरुवीथी। अगस्त्य तारा विन्ध्यवोथी (सुरुचि) का है। ध्रुव तारा मेरुवीथी (सुनीति) का है। हमारा सूर्य सम्प्रति विन्ध्यवीथी में है। इसके लिये कहा गया है- विन्ध्यवीथी प्लवंगमः । विन्ध्यवोथी में विचरण करने वाले सूर्य जब मेरुवीथी में जायेगा तो प्रलय काल होगा। कल्पान्त में प्रलय होता है। उत्तर के अभिजित तारे के पास पहुँचने पर कल्पान्त होता है। इसके बाद बह्य (सूर्य) की रात का प्रारंभ होगा। यह रात कल्पपर्यन्त चलेगी। ऐसा शास्त्र वचन है।
ध्रुव तारे को बहुत महत्व प्राप्त है। इसको केन्द्र में कर के सभी तारे घूमते हैं। यह वाक्य है…
” गम्भीरवेगोऽनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम्। यस्मिन् भ्रमति कौरव्य मेयामिव गवां गणाः।।”
(भागवत ४/१२/३९)
गम्भीरवेगः= गम्भीर वा रहस्यमय वेग है जिसमें वह (ध्रुव)।
अनिमिषम् = निरन्तर, बिना रुके हुए।
ज्योतिषां चक्रं आहितम् =ज्योतिष चक्र (नक्षत्रों के गोलक) में स्थापित है।
कौरव्य = हे विदुर ।
मेढ्यां इव गवां गणाः = केन्द्रीय स्तम्भ के चारों ओर जैसे बैलों का समूह अनाज दवते चलता है, वैसे ही ज्योतियों नक्षत्रों का समूह।
यस्मिन् भ्रमति= ध्रुव को केन्द्र में रख कर भ्रमण करता रहता है।
गवाम् गणाः = सतर्षियों का समूह सदा ध्रुव के चारों ओर घूमता रहता है। ध्रुव केन्द्रीय स्तम्भ वा खूंटा है जिससे ये आकर्षण की अदृश्य डोर से बँधे हुए घूम रहे हैं। ध्रुव भी चलता है। किन्तु उसका वेग गम्भीर है, रहस्यपूर्ण है, अद्भुत है तथा निरन्तर है। ध्रुव की सब परिक्रमा करते हैं पर, ध्रुव स्वच्छन्द चलता । आकाश उसका अटन क्षेत्र है, किसी अन्य तारे के परितः नहीं घूमता ध्रुव के वंश विस्तार का वर्णन है। कथन है…
स्वर्वीथी वत्सरस्येष्टा भार्यात पडात्मजान्। पुष्पार्णं तिग्मकेतुं च इषमूर्जं वसुं जयम् ॥
पुष्पार्णस्य प्रभा भार्या दोषा च द्वे बभूवतुः ।
प्रातर् मध्यंदिनं सायं इति हासन् प्रभासुताः ।
प्रदोषो निधियो व्युष्ट इति दोषासुतात्रयः ।
व्युष्टः सुतं पुष्करिण्यां सर्वतेजसमादधे ।।”
( भागवत ४/१३/१२,१३,१४)
वत्सरस्य इष्टा भार्या =वत्सर की प्रिय पत्नी।
स्वर् वीथी= विध्नाति गच्छति भ्रमति वा स्वर् लोके सा। जो आकाश में घूमती है। सूर्य और ध्रुवतारे के बीच के स्थान में घूमने से भूमि को स्वरवीधी कहते हैं। यह अपने पुत्र वत्सर की पत्नी है। वत्सर को श्रमि (पृथ्वी) और ध्रुव का पुत्र माना गया है। इसमें कोई विरोध नहीं है। यह तत्त्वज्ञान निरूपण की आर्य पद्धति है। माता = भार्या भगिनी = पुत्री। जैसे…
“एष ते रुद्र भागः सहस्वस्वाम्बिकया तं जुषस्व।”(यजु ३/५७)
【हे रुद्र !यह तेरा भाग है। अपनी बहन (स्वस्रा) अम्बिका के साथ इसे ग्रहण करो ।】 रुद्र अम्बिका पति-पत्नी एवं भाई-बहन दोनों हैं क्योंकि कि ये मनुष्य न होकर आकाशीय शक्ति अवयव हैं।
सूत षडात्मजम्= छः जनों को उत्पन्न किया। सू सवति + क्त = सूत- जना, सवित किया। इन छः पुत्रों के नाम हैं-
१. पुष्पार्णम् पुष्प + अर्णम् = दिन- रात =अहोरात्र।पुष्प=रात्रि। पुष्पयति यस्मिन् नक्षत्राः स पुष्पः। जिसमें नक्षत्र खिलते प्रकट होते हैं, वह पुष्प (रात्रि) है ऋ ऋणोति हिनस्ति अन्धकारं स अर्णम् (दिनम् ) जो अन्धकार का हनन करता है, वह अर्णम् (दिन) है। रात्रि और दिन के जोड़े के पुष्प + अर्णम् =पुष्पार्णम् कहते हैं। पृथ्वी (स्वरवीथी) के अपने अक्ष पर घूमने से रातदिन की उत्पत्ति होती है। एक सूर्योदय होने के ६० पटी पश्चात् पुनः दूसरा सूर्योदय होता है। इस काल को अहोरात्र / होरा/ पुष्पार्णम् कहते हैं।
२-तिग्मकेतुम्= तिग्मं यस्य केतुः स तिर्यङ् एव तिग्मः । तिरछे को तिग्म कहते हैं। ध्वज एव केतुः । ध्वजा पताका को केतु कहते हैं। जो पताका तनिक झुकी हुई होती है, उसे तिग्म केतु कहते हैं। पृथ्वी की धुरी (अक्ष) का नाम तिग्मकेतु है। पृथ्वी जिस बीबी में भ्रमण करती है, उस बौधी के तल से इसकी धुरी पाद / चतुर्थ अंश झुकी है । तिजू निशाने तेजयति ते पतला करना, पैनाना तथा तिज् सहने तितिक्षते सहन करना + म= तिग्म । सहनशील बलशाली तीक्ष्ण अत्यन्त पतली यह धुरी पृथ्वी के भार को सहन करती है तथा अदृश्य होती है। पृथ्वी के दो ध्रुवों को मिलाने वाली यह अदृश्य रेखा कक्षा तल से झुकी हुई होने के कारण तिग्मकेतु नाम से विख्यात है।
सूर्य के सम्मुख पृथ्वी झुक कर चलती है- सूर्य को सम्मान देती है, विनय भाव का प्रदर्शन करती है। इसलिये इस पर सूर्य की कृपा वर्षती है-पृथ्वी सर्वजीव सम्पन्न, हृष्ट पुष्ट एवं अविनाशी बनी रहती है। अतः हमें भी अपने से श्रेष्ठ के सामने झुकना / नमना चाहिये।
३-वसुम्= वस् वसति + उ = वसु जो कुछ भूमि के भीतर है, वह सब वसु है। भूमि में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, जल है, रत्नों एवं धातुओं की खानें हैं, अपार प्राकृतिक सम्पदा है। इन्हें हम वसु कहते हैं। पृथ्वी पर पर्वत नदियाँ, वृक्ष वनस्पतियों, जीव-जन्तु और हम सब हैं। इन सब की उत्पत्ति पृथ्वी से है। अतः समस्त पार्थिव पदार्थ इसके सुत बसु हैं। इसी से इसका नाम वसुन्धरा (वसुओं/ धनों को धारण करने वाली)पड़ा है। चार प्रकार के प्राणी अण्डज, पिण्डज, उद्भिज, स्थावर, तथा चार प्रकार के इनके खाद्य चर्व्य, चोष्य, पेय, लेहा इन आठों को अष्टवसु कहते हैं। अष्टवसवे नमः ।
४.ऊर्जम्= पृथ्वी में बल सामर्थ्य, शक्ति, स्पूर्ति गति है इससे हम सभी बली, सामर्थ्यशाली, शक्तिमान, स्फूर्तिवान् तथा गतिवन्त हैं। ऊर्ज सामर्थ्यो ऊर्जति + अच्= ऊर्जस्। पृथ्वी में ऊर्जा का भाण्डार है। प्राकृतिक गैस, तेल, कोयला इसके श्रोत हैं जो पृथ्वी के अन्दर विद्यमान हैं। इन का दोहन कर हम ऊर्जावान् हो रहे हैं। ऊर्जा अदृश्य है। बिना इसके उद्योग एवं विकास असंभव है। यह ऊर्जा पृथ्वी से प्राप्त की जाती है। अतः इसे हम पृथ्वी का पुत्र कहते है। पृथ्वी ऊर्जापति है, ऊर्जा जननी है। ऊर्जाय नमः ।
५- इषम् =इष् गतौ इष्यति, इष् रागे इष्णाति + अच् =इषम्। गति वा राग पृथ्वी में गति है जिससे सभी प्राणी चलते रहते हैं। पृथ्वी में राग है। इस कारण पृथ्वी के प्रत्येक कण परस्पर जुड़े रहते हैं। हम राग के कारण आपस में संबंध स्थापित करते हैं। गति के कारण हम एक दूसरे से जुड़ते और बिछुड़ते हैं। इस जुड़ने और अलग होने को इपम् कहा गया है। इस इवं के प्रभाव से क्षितिज में १२ लग्नों का उदय क्रमशः होता रहता है।
६-जयम् = जि जये जयति ते सफल होना, उत्तीर्ण होना + अच् = जयम् सफलता, उत्तीर्णता, उत्तार पृथ्वी अपने मार्ग वा कक्षा में चलती हुई थकती नहीं। अनवरत चलती हुई पुनः पुनः अपने स्थान पर आ धमकती है। चलना जीवन है। रुकना मृत्यु है। पृथ्वी कभी रुकती नहीं। अतः अविनाशी है, अमर्त्य है, शाश्वत है। पृथ्वी के इस गुण / पुत्र के कारण हम जयशील हैं। क्रिया के बाद जय होती है। जय हमारे बायें हाथ में है। यह मंत्र है…
“कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सत्य आहितः ।
गोजिद् भूयासं अश्वाजिद धनंजयो हिरण्यजित् ॥”
( अथर्व ७/५२/८)
क्रियाशीलता हमारे दाहिने हाथ में है, इसका फल बायें हाथ में है। मैं गोजित (ज्ञानवान्) अश्वजित् (बलवान्) धनंजय (धनवान्) हिरण्यजित् (हिरण्यवान्/तेजस्वी होऊँ। ऐसा होने के लिये पहले कर्म तब जय की प्राप्ति का विधान है। जयाय नमः ।
इस प्रकार स्ववथी पृथ्वी के छः पुत्र पुष्पार्णम् तिग्मकेतुम् वसुम्, ऊर्जम्, इयम्, जयम् हुए। ये सभी नपुंसक होने से व्यापी एवं बली हैं। ये हमारे भीतर सतत विद्यमान रहते है। इसलिये हम इन सुत (पदैश्वर्यो) से सम्पन्न हैं। पृथ्वी हमारी माता है। मन्त्र है…
” माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।”(अथर्व १२/१/१२)
भूमि हमारी माता है। हम पृथ्वी के हैं।
पुष्पार्णस्य द्वे भार्या =पुष्पार्ण की दो पत्नियाँ।
प्रभा दोषा च बभूवतुः = प्रभा और दोषा हुई।
प्रातः मध्यंदिनं सायं इति= प्रातः मध्याह्न और सायं ये।
प्रभा सुताः हि आसन् प्रभा के पुत्र हुए।
पुष्पार्ण (काल होरा) के दो भाग हैं दिन और रात दिन के प्रकाश को प्रभा कहते हैं। रात्रि में प्रकाश के अभाव को दोषा कहते हैं। ये अहोरात्र के अंग / भार्या हैं। जिसका पोषण प्रकाश द्वारा होता है, वह प्रभा तथा जिस का पालन अन्धकार से होता है, वह दोषा है। प्रभा के तीन पुत्र है- प्रातः (दिन का पूर्व भाग) मध्यंदिन (दिनका मध्यम भाग), सायम् (दिन का अन्तिम भाग)। इन तीनों कालों में हमें नित्य उपासना करनी चाहिये। सूर्योदयकाल प्रातः है। दोपहर का समय जब सूर्य आकाश के शीर्ष पर होता है, मध्यन्दिन है। अस्त होते हुए सूर्य का समय सायम् है। इन तीनों पुत्रों को आयु मात्र एक घटी है। इस एक घटी के तीनों पुत्रों को सन्ध्यार्चन से तुष्ट करना हमारा धर्म है। इससे पुष्ट होकर ये हमें पुष्ट करते हैं। ‘परस्परं भावयन्य’ यह गीता का सूत्र है।
प्रदोषः निशिवः व्युष्टः इति= प्रदोष, निशिष, व्युष्ट ये ।दोषसुतात्रयः = दोषायाः सुताः त्रयः । दोषा के हैं। रात्रि का प्रथम भाग प्रदोष है, द्वितीय मध्य का भाग निशिथ वा निशीथ है, तीसरा अंतिम भाग व्युष्ट है। प्रदोष काल में सोना वर्जित है। सायं अंधेरा छाने के बाद १ घटी पर्यन्त प्रदोष वेला होती है अर्धरात्रि के १ घटी का समय निशीष है। यह गुह्य साधना के लिये उपयुक्त है। सूर्योदय से पहले का १ घटी का समय ब्रह्ममुहूर्त वा व्युष्ट है। इसमें भी नहीं सोना चाहिये। दोषा के ये तीनों पुत्र भी प्रभा के पुत्रों की तरह १ घटी की आयु वाले हैं। प्रदोष काल में रुद्रगणों का प्रभाव रहता है। निशोध समय में राक्षसों, भूत-प्रेतों का वर्चस्व रहता है। व्युष्ट वेला में देव शक्तियों की छाया रहती है। अतः इन समयों में तदनुकूल कार्य सम्पन्न करने चाहिये।
व्युष्टः पुष्करिण्याम्= व्युष्ट ने पुष्करणी में।
सर्वतेजसम् सुतम्= सर्वतेजा पुत्र को।
आ दघे= उत्पन्न किया, प्राप्त किया। जिसे देखकर मन प्रसन्न होता है, खिलता है, उसे पुष्करिणी। कहते हैं। येन पुष्यति सा पुष्करिणी उषा वा पूर्वी क्षितिज की लालिमा से युक्त समय को उषा कहते हैं। इसे देख कर मन प्रसन्न होता है। अतः यह पुष्करिणी है। कमल युक्त सरोवर को भी देखकर मन हर्षित होता है। अतः यह भी पुष्करिणी कहलाता है। पुष्करिणी यहाँ व्युष्ट की भार्या हुई। इस पुष्करिणी (उषा) ने सर्वतेजा (सूर्य) नामक पुत्र को जना सूर्य का नाम सर्वतेजस है। यह सम्पर्ण जगत् का प्रकाशक समस्त तेजों को खान है। सर्वतेजसे नमः ।
यह वर्णन अत्यन्त रोचक, गम्भीर, गुहा, कूट एवं सत्य है। इस पर चिन्तन करने से आर्ष बुद्धि एवं शैली के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। तत्वज्ञान की यह भाषा केवल तत्त्वविद के लिये है। तस्मै नमः।
ज्योतिश्चक्र में ध्रुव तारे को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। सौर मण्डल सहित अन्य अनेक तारामण्डल इसको आधार स्तंभ मानकर इसके चारों ओर अनादि काल से घूमते चले आ रहे हैं। वचन है-…
“स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां नक्षत्रादीनां अनिमेषेण
अव्यक्त रंहसा भगवता कालेन भ्राम्यमाणानां स्थाणुरिव
अवष्टम्भ ईश्वरेण विहित शश्वद् अवभासते ।”
(भागवत ५/२३/२)
सः = वह ध्रुव तारा। हि=निश्चय ही ।सर्वेषाम् ज्योतिर्गणानाम्= सभी ज्योतिसमूहों का ।ग्रह-नक्षत्र – आदीनाम्= ग्रह नक्षत्र इत्यादिकों का ।अनिमेषेण= तनिक भी विश्राम न लेने वाले ।अव्यक्त= अवर्णनीय । रंहसा = वेग से।
भगवान् कालेन= भगवान् काल के द्वारा। भ्राम्यमाणानाम्= घुमाया जा कर ।स्थाणुः इव =ठूंठ / स्तम्भ की भाँति । अवष्टम्भः = आधार, सहारा है। ईश्वरेण= ईश्वर की प्रेरणा से ।विहितः =स्थापित। शश्वद् = लगातार। अव भासते= सुप्रकाशित हो रहा है।
सदा जागते रहने वाले अव्यक्त गति भगवान् काल पुरुष द्वारा जो ग्रह नक्षत्रादि ज्योतिर्गण घुमाये जाते हैं, ईश्वर ने ध्रुव लोक को ही उन सब के आधार स्तम्भ रूप से नियुक्त किया है। यह ध्रुव तारा है एक ही स्थान रह कर सदा प्रकाशित होता रहता है।
काल की डोर से सभी बंधे हुए हैं। ध्रुव लोक वैकुण्ठधाम है। ध्रुव को अचर कहा जाता है, पर यह अत के विरुद्ध है। सभी ज्योतियाँ चर हैं। ध्रुव भी चर है जो पिण्ड ध्रुव को परिक्रमा करते हैं, उनके सापेक्ष ध्रुव अचर दिखता है। इस तारे के स्थान में परिवर्तन कई कल्प बीत जाने पर भी नहीं दिखाई देता । इसको गति अव्यक्त है। इसके विषय में इतना ही कहना पर्यात्प है। जिस प्रकार दायें चलाने के समय अनाज को रौंदने वाले पशु छोटी बड़ी और मध्यम रस्सी से बँधकर क्रमाशः निकट दूर और मध्य में रह कर खंभे के चारों ओर मण्डल बना कर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सभी नक्षत्र और ग्रहगण बाहर भीतर के क्रम से इस काल चक्र में नियुक्त होकर ध्रुव लोक का अश्रय लेकर वायु से प्रेरित होकर कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं। कथन है…
” यथा मेढीस्तम्भ आक्रमण पशवः संयोजितास्त्रिभिस्त्रिभिः
सवनैः यथास्थानं मण्डलानि चरन्ति एवं भगणा: ग्रहादयः
एतस्मिन् अन्तर् बहिर योगेन कालचक्र आयोजिता
ध्रुवमेवावलम्ब्य वायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तं परिचङक्रमन्ति ।”
( भागवत ५/२३/३)
यथा मेढीस्तम्भे= जैसे आधार स्तम्भ में । आक्रमणपशवः = बारबार घूमने वाले कोल्हू के बैल अथवा अनाज को खूंदने रौंदने वाले दंवरी के बैल। संयोजिताः= नाधे जा कर परस्पर बँधे हुए। त्रिभिः त्रिभिः =तीन तीन करके। सवनैः= गतियों के द्वारा। यथा स्थानम् = अपने अपने स्थानों पर ।मण्डलानि चरन्ति = चक्र में घूमते हैं। एवम्= उसी प्रकार ।भगणाः = राशियाँ। ग्रह-आदय:= ग्रह आदि ।
एतस्मिन् = इसमें। अन्तः बहिः योगेन= बाहर भीतर के क्रम से ।कालचक्रे= समय के प्रवाह में। आ योजितः= बंधे हुए। ध्रुवम् एव= ध्रुव लोक को ही। अवलम्ब्य =आधार बना कर ।वायुना= वायु द्वारा। उदीर्यमाणः = खींचे जा कर। आ-कल्प-अन्तम् = पूरे कल्प के अन्त तक । परि चङ क्रमन्ति= चारों ओर से घेरते रहते हैं।
ध्रुवतारा सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों, आदित्यमण्डलों की गति का केन्द्र है। इस ध्रुव को भी गति है। ध्रुव की गति के केन्द्र को कौन जानता है ? हमारी बुद्धि ध्रुव है, अहंकार आदित्य है, मन चन्द्रमा है, इन्दियाँ अन्यमह हैं। बुद्धि का आश्रय मूलाप्रकृति है। ध्रुव की यही केन्द्र है।
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