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सूर्यदेव के प्रमुख आराधक
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबन्ध संपादक)
Mystic Power – परब्रह्म के साक्षात स्वरूप, सृष्टि प्रकाशक एवं सम्पूर्ण जगत् के जीवन के आधार भगवान सूर्यदेव की आराधना उपासना आदिकाल से सम्पूर्ण विश्व में व्यापक स्तर पर होती रही है। देवभूमि भारत में ही नहीं विश्व में जहां भी हिन्दू रहते हैं, वहां पर भी अधिकांश व्यक्ति प्रतिदिन प्रातः काल भगवान भास्कर को जल अवश्य अर्पित करते हैं। शायद ही कोई एकाध ऐसा आस्थावान व्यक्ति खोजने पर मिलेगा जिसने जीवन में कभी रविवार का व्रत न किया हो। यही कारण है कि सूर्यदेवजी के भक्तों अथवा आराधक-उपासकों की सूची तो बनाई ही नहीं जा सकती, लगभग सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में आपकी महिमा को मानते ही हैं। फिर भी इस अध्याय में कुछ सर्वाधिक पूजनीय देवी-देवताओं, ईश्वर के विभिन्न अवतारों और अपने धर्म के महानायकों द्वारा की गई सूर्य आराधना की एक झलक देने की चेष्टा इस अध्याय में की जा रही है। भगवान श्रीराम द्वारा सूर्याराधना
भगवान विष्णु के बारह कला निधान पुरुषोत्तम अवतार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करते समय सेतुबन्द रामेश्वरम् में आशुतोष भगवान भोले शंकर का शिवलिंग स्थापित करके शिवाराधना की थी, वहीं युद्धभूमि में रावण का वध करने से पूर्व तीन बार भगवान सूर्यदेव के आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ भी किया था। महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में इस प्रसंग की चर्चा करते हुए लिखा है कि युद्ध के अंतिम दिनों में भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी और उनकी सेना काफी थकी हुई थी। नाभि में अमृत होने के कारण रावण पर नहीं रहा था। सभी देवता आकाश में एकत्रित होकर उस दृश्य को देख रहे थे। इसी समय महर्षि अगस्त्य युद्धभूमि में श्रीरामजी के समक्ष अवतरित हुए। महर्षि अगस्त्य ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा- हे राघव निराश न हों। आप भगवान सूर्यदेवजी का ध्यान करके उनके परम प्रतापी आदित्य हृदय स्तोत्र का तीन बार पाठ कीजिए। भगवान सूर्यदेव की कृपा होने पर आप अवश्य ही रावण पर विजय प्राप्त करने में सफल होंगे। महर्षि अगस्त्य के कहने पर भगवान श्रीराम ने सूर्यदेव को नमन करने के पश्चात् पूरे विधि विधान सेआदित्य हृदय स्तोत्र का स्तवन किया और तत्पश्चात् भगवान भास्कर की कृपा से राक्षसराज रावण का हनन करने में सफल हुए।
श्रीकृष्ण द्वारा सूर्य महिमा का वर्णन
महाभारत के युद्ध में विजय के कुछ समय बाद जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि अब वह सभी सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त कर चुका है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए उसे किस देवी-देवता को और किस प्रकार से आराधना-उपासना करनी चाहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से कहा था कि हे अर्जुन तुम्हें ब्रह्म के सारे स्वरूप भगवान सूर्यदेव की पूजा आराधना करनी चाहिए और अधिक से अधिक संख्या में उनके परम पवित्र आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यह वही आदित्य हृदय स्तोत्र है जिसका स्तवन करके युद्धभूमि में श्रीराम रावण का वध करने में समर्थ हुए थे। भगवान विष्णु के पूर्णावतार योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं सूर्यदेव को ब्रह्म का साक्षात स्वरूप मानते थे। यही कारण है कि वनवास काल में जब पांचों पाण्डव और द्रौपदी वनों में भटक रहे थे और दाने-दाने को परेशान थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को भी सूर्यदेव की आराधना-उपासना करने की सलाह दी थी। युधिष्ठिर की सूर्याराधना पर प्रसन्न होकर ही भगवान रविदेव ने उन्हें वह अक्षय पात्र दिया था जिसमें कुछ भी न पकाने अथवा डालने के बावजूद उसमें से निकाल निकालकर असंख्य व्यक्तियों को सभी प्रकार का भरपूर भोजन खिलाया जा सकता था।
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प्रखर सूर्यभक्त कर्ण तथा कुन्ती द्वापर युग में पाण्डवों के समान ही यों तो लगभग सभी व्यक्ति भगवान सूर्यदेव की आराधना अथवा उपासना करते थे, परन्तु उन सभी में सूर्यपुत्र कर्ण का स्थान अनन्यतम है। महाराज कुन्तभोज की पुत्री कुन्ती जब अबोध बालिका थी, तब से प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्यदेव को जल चढ़ाने के बाद उनकी आराधना भी करती थी। उसकी आराधना पर प्रसन्न होकर भगवान सूर्यदेव ने उसे कर्ण जैसा दिव्य बालक तो दिया ही, यह भी वरदान दिया कि वह जब भी किसी देवता का आवाह करेगी, वह देव स्वयं साक्षात उसके सम्मुख उपस्थित हो जाएगा। सूर्यदेव के इस चरदान के चल पर ही महाराज पाण्डु से शादी के बाद कुन्ती ने क्रमशः धर्मराज, और देवराज इन्द्र को बुलाकर अपने लिए धर्मराज युधिष्ठिर महाबली भीम और अर्जुन को पुत्र रूप में प्राप्त किया था। यही नहीं कुमारों को भी बुलवाया जिन्होंने महाराज पाण्ड़ की दूसरी पत्नी माझी को नकुल और सहदेव नामक दो प्रदान किए थे। यह कथा सिद्ध करती है कि जिस व्यक्ति पर सूर्यदेव प्रसन्नहोते हैं, उस व्यक्ति की सहायता अन्य सभी देवी-देवता भी करते हैं। भगवान सूर्यदेव की आज्ञा का पालन तो सभी देव करते ही हैं, स्वयं देवता भी उनकी आराधना और स्तुतियां करते रहते हैं।
सूर्य के आशीर्वाद से कुंती को प्राप्त हुआ था कार्य-दिव्य शक्तियों से युक्त महान योद्धा जिसका एक नाम सूर्य भी था इस देवभूमि भारत में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र स्वयं अपनी अस्थियों का दान करने वाले महर्षि दधीचि, अतिथि सत्कार के लिए स्वयं अपने पुत्र की आरे से चोरने वाले महाराज सोरवड, महान धनुर्धर अर्जुन जैसे अनेक महानायक अवतरित हुए हैं। इन सभी में कार्य का स्थान अनन्यतम है। यद्यपि महाभारत के खलनायक दुर्योधन का साथ देने के कारण सूर्यपुत्र कर्ण को धर्मशास्त्रों में वह सम्मान नहीं मिला जिसका वह अधिकारों था परन्तु दुर्योधन का साथी और सहायक होने के बावजूद कोई उससे घृणा नहीं करता और उसका नाम आने पर सिर स्वयं ही श्रद्धा से झुक जाता है। सूर्यपुत्र होने के साथ हो कर्ण प्रखर सूर्यभक्त भी था। यह तीनों संध्याओं अर्थात् प्रातः मध्याह और सायं भगवान सूर्यदेव की आराधना करता था।कर्ण जहां अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर था, वहीं हरिश्चन्द्र से भी बड़ा सत्यवादी। एक बार दुर्योधन को बड़ा भाई कह देने के बाद उसने जीवन भर दुर्योधन का साथ निभाया और उसके लिए अपने प्राण भी दे दिए। देवराज इन्द्र ने जब भिक्षु का रूप धारण करके कर्ण से कवच और कुण्डल मांगे तब उसने सहर्ष अपना वक्षस्थल काटकर कवच और कानों को फाड़कर कुण्डल उन्हें दे दिए। कुन्ती को कर्ण ने वचन दे दिया था कि वह अर्जुन के अतिरिक्त उसके अन्य किसी पुत्र को नहीं मारेगा। यही कारण है कि महाभारत के युद्ध में बारम्बार अवसर मिलने पर भी धर्मराज युधिष्ठिर, महाबली भीम, नकुल अथवा सहदेव पर वार नहीं किया। कर्ण को ये दिव्य गुण और शक्तियां किसने दीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि सूर्यदेव के आशीर्वाद से उत्पन्न होने तथा निरन्तर सूर्यदेव की नियमित आराधना करने के कारण भगवान सूर्यदेव ने ही उसे ये सभी दिव्य विभूतियां दी थीं।
सूर्य-शिष्य हनुमानजी
रामभक्त हनुमानजी को विद्यावान, गुणी और अत्यन्त चतुर के साथ ही ज्ञान और गुणों का सागर भी कहा जाता है। आखिर कौन था हनुमानजी का गुरु ? उन्होंने किससे यह सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था? रामायण और हनुमान चालीसा तो इस विषय में मौन हैं, परन्तु प्राचीन धर्मग्रंथों में इसका बड़ा ही मोहक वर्णन मिलता है। हनुमानजी बचपन में अत्यधिक बलशाली और शरारती थे। उनके पिता पवनदेवजी ने हनुमानजी को आदेश दिया कि वे सूर्यदेव के पास जाकर उनसे शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करें। पौराणिक कथाओं के अनुसार, हनुमानजी प्रात: काल भूलोक से उड़कर सूर्यदेव के निकट पहुंचते और दिन भर उनके रथ के साथ पूर्व से पश्चिम तक की यात्रा पूरी करने के बाद शाम को पृथ्वी पर वापस लौट आते थे। छह मास तक यह क्रम चलता रहा। इस बीच, प्रतिदिन सुबह से शाम तक भगवान सूर्यदेव धर्म और ज्ञान का उपदेश देते रहते थे और हनुमानजी लगातार उस ज्ञान को अपने मन एवं मस्तिष्क में धारण करते रहते थे। उपरोक्त कथाओं के विपरीत यद्यपि यह कथा प्रतीक रूप में है, परन्तु इस बात को तो प्रमाणित करती ही है कि भगवान सूर्यदेवजी प्रकाश के प्रबल पुंज और जीवन के सभी आधार के प्रदायक होने के साथ ही ज्ञानदाता भी हैं। वैसे हमारे वेदों में भी गायत्री मंत्र के रूप में सविता अर्थात् सूर्यदेव से ही ज्ञान प्रदान करने और अंधकार से निकालकर प्रकाश में ले जाने की प्रार्थना की गई है।
चारों हो युगों में हमारे आराध्यदेव भगवान सूर्य नारायण जी सर्वाधिक पूजनीय देव रहे हैं और लगभग सभी धर्मशास्त्रों ने आपको न केवल सबसे बड़ा देव बल्कि ईश्वर का साक्षात स्वरूप भी माना है। सतयुग अथवा वैदिककाल में मूर्तिपूजा काप्रचलन नहीं था। तपस्वी वर्षों के कठोर तप करते थे तो साधन सम्पन्न व्यक्ति यज्ञों का आयोजन करते थे । यज्ञों में भी सबसे अधिक आहुतियां भगवान भास्कर के विभिन्न नामों के साथ भवान सूर्यदेव को अर्पित की जाती थीं। त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने स्वयं सूर्यदेव की वन्दना की थी, तो महावीर हनुमानजी ने आपका शिष्यत्व ग्रहण किया था। द्वापर में जहां कुन्ती सहित सभी पाण्डव और द्रौपदी भगवान सूर्यदेव की उपासक थीं, वहीं कौरव पक्ष में भी सूर्यपुत्र कर्ण और गंगापुत्र भीष्म पितामह सूर्यदेवजी के प्रखर भक्त थे। यह कलियुग भी कोई अपवाद नहीं। राजपूतों का एक बड़ा वर्ग स्वयं को सूर्यदेव का वंशज मानते हुए अपने-आपको सूर्यवंशी कहता है, वहीं लगभग सभी हिन्दू राजपरिवार सूर्यदेव की आराधना विशेष रूप से करते हैं। यही कारण है कि सम्पूर्ण भारत के साथ-साथ नेपाल में भी विभिन्न राज-परिवारों द्वारा बनवाए गए सूर्यदेवजी के अनेक विशाल मन्दिर विभिन्न नगरों में हैं। वास्तविकता तो यह है कि भगवान सूर्यदेव की नियमित आराधना- उपासना इस लोक में सभी ऐश्वर्यों और उपलब्धियों तथा अन्त में मोक्ष प्राप्ति का सबसे सुगम और सटीक मार्ग पहले भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। ईश्वर के साकार स्वरूप भगवान सूर्यदेवजी की आराधना-उपासना के मार्ग से भटक जाने के कारण ही आज प्रत्येक मानव, सम्पूर्ण समाज और अधिकांश विश्व इतने दुख और सन्ताप झेल रहा है। इस तथ्य को जितना शीघ्र हम समझ लेंगे तथा जितनी जल्द भगवान सूर्यदेव के शरणागत होकर उनकी आराधना-उपासना प्रारम्भ कर देंगे, उतना ही शीघ्र हमारा और विश्व का कल्याण होगा। शास्त्रीय कथन होने के साथ ही यह एक विज्ञानसम्मत सत्य भी है जिसे कोई तर्क अथवा किन्तु परन्तु झुठला नहीं सकता।
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