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तत्त्वासार और नवार्णमन्त्र की व्यापकता
श्री निश्चलानंद कौलाचारी-
Mystic Power- वास्तव मे सृष्टि मे एक ब्रह्म की ही सत्ता है जो विभिन्न रूपों मे अभिव्यक्त हुआ है । इसलिए सभी रूप उससे भिन्न नही है बल्कि भ्रम के कारण आत्मज्ञान के अभाव के कारण ये भिन्न भिन्न प्रतीत होते है । इसी प्रकार शरीर भी भ्रम वश उससे भिन्न प्रतीत होता है तथा जिस भ्रम के कारण प्रतीत होने वाले की सत्ता नही होती ,जिस भ्रम से रस्सी मे सर्प दिखाई देता है किन्तु उसमे सर्प की सत्ता नही होती ,वह रस्सी ही है । इसी प्रकार शरीर भी भ्रम मात्र ही है ।
जिनको ऐसी शंका होती है कि यदि ज्ञान से अज्ञान का मूल सहित नाश हो जाता है, तो ज्ञानी का यह देह स्थूल कैसे रह जाता है उन मूर्खों को समझाने के लिए श्रुति ऊपरी दृष्टि ऊपरी दृष्टि से प्रारब्ध को उसका कारण बता देती है वह विद्वान को देहादि का सत्य स्व समझाने के लिए ऐसा नही कहती ; क्योंकि श्रुति का अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थ वस्तु का वर्णन करने से ही है।
ज्ञानी और अज्ञानी को समझाने की भाषा मे भिन्नता रखनी ही पड़ती है। जिस भाषा मे ज्ञानी अथवा विद्वान को समझाया जाता है उस भाषा मे मूर्ख को नही समझाया जा सकता ।उसको भिन्न प्रतीकों, उदाहरणों के द्वारा ही समझाया जाता है। इसलिए श्रुतियों मे प्रारब्ध को शरीर का कारण बताया गया है वह अज्ञानियों के लिए है। आत्मज्ञानी को यही कहा जाता है, कि सब कुछ ब्रह्म ही है तथा शरीर, प्रारब्ध आदि भ्रममात्र है जिसका को अस्तित्व नही है।
किन्तु अज्ञानी इसे नही मान सकता क्या कि वह शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है इसलिए उसको समझाने के लिए प्रारब्ध की बात कही गई है ज्ञानी के लिए प्रारब्ध जैसी कोई वस्तु ही नही है बल्कि सभी आत्मा ही है एवं आत्मा का कोई प्रारब्ध नही होता है ।
यदा नास्ति स्वयंकर्त्ता,कारण, न जगत बीजम,।अव्यक्तं च परं शिवम, अनामा विद् यते तदा ।।
जब कोई कर्ता नही होता , कार्य के अभाव मे जगत की उत्पत्ति करने वाला कारण भी नही होता, तब वह सदा शिव एवं नाम रहित होता है ।
यह वर्णन अव्यक्त विभु परमतेजोमय शाश्वत तत्त्व के अनन्त फैलाव से तात्पर्यित है। एक परमतेजोमय , परम सुक्ष्म, कालातीत, भौतिक गुणों से रिक्त, निर्गुण, निष्क्रिय तत्त्व, जहां तक स्थान है वहाँ तक विधमान है। स्थान का कोई अन्तः नही इसलिए इस तत्त्व के अस्तित्व को भी कोई छोर नही है। यह अनन्त है कालातीत है सदा से है सदा रहेगा यह न जन्म लेता है न उत्पन्न होता है, न मृत होता है यही वैदिक परमात्मा का ही वर्णन है।
आत्मा को वैदिक संस्कृति सार के अर्थ मे लेती रही है इस तरह परमात्मा का अर्थ परमसार । इस सृष्टि का जो परमसार है, सृष्टि जिसमे उत्पन्न होती है उस परमसार तत्त्व मे न कोई कर्ता होता है, और नही कोई कर्ता के अभाव मे क्रिया होती है । यह उसकी अव्यक्त अवस्था है इस समय न सृष्टि मे बीज उत्पन्न होता ,न उसके कारण का अस्तित्व होता
नवार्णमन्त्र की व्यापकता १– यह सांसारिक सुख और मोक्ष दोनों को देने वाला मन्त्र है।
-२- इस मन्त्र का जप किसी भी वर्ण,जाति,धर्म, सम्प्रदाय, मान्यता वाला व्यक्ति कर सकता है।
३- यह भी गायत्री मंत्र की तरह अपने भीतर गुप्त रूप से २४ वर्णाक्षरों को समेट रखा है।
४-जैसे सावित्री मन्त्र में ब्रह्मा,विष्णु,महेश समाहित हैं वैसे ही नवार्ण में भी ये तीनों देव हैं।
५- यह ब्रह्मस्वरूपिणी महाशक्ति का मन्त्र है,जो सगुणरूप में महाकाली,महालक्ष्मी, महासरस्वती होती है।
( ॐ रहित नवार्ण का जप श्रेयस्कर )
प्रमुख नौ अक्षरों वाला यह मन्त्र है।इसमें ॐ लगाने से यह दशार्ण मन्त्र हो जाता है।
मूलमंत्र— ऐम् ह्रीम् क्लीम् चामुण्डायै विच्चे —
यह मूलनवार्ण है।इसीसे सप्तशती का सम्पुटितपाठ किया जाता है। इससे देवीजी का हवन भी किया जाता है।
( यह गुप्त देवी गायत्री है ) ——
महान साधक श्री भास्कर राय ने इसमें प्रत्यक्ष ९ स्वर , ४ बिंदु ( म् ) और ११ व्यंजन लेकर २४ वर्णाक्षर माना है।
*– ऐम् वाग्बीज है जो योनि (जगत्कारण)स्वरूप है।
*– ह्रीम् मायास्वरूप है जिससेसृष्टि बढ़ती घटतीरहती है
*— क्लीम् काम या ब्रह्मा रूप है।
*— अ नारायण का वाचक है।
*—- य वायु का वाचक है।
*—– ह देवी का स्वरूप है।
*—– र अग्नि का वाचक है।
*—– ई लक्ष्मी का वाचक है।
*—– ल इन्द्र का वाचक है।ऐ , म् , ह , र , ई , म् , क , ल , ई , म् , च , आ , म ,उ , म् , ड , आ , य ,ऐ , व , इ , च् , च , ए ।। ये कुल २४ वर्णाक्षर हैं।
इस मन्त्र की साधना चार काल में की जाती है— प्रातः , मध्याह्न , सायं और मध्यरात्रि। अतः नवार्ण मन्त्र को ब्रह्म प्रणव ( ॐ ) रहित जप कर सिद्ध करना चाहिए।यह भगवती महाशक्ति का ब्रह्ममय विग्रह है।
इसी तरह देवीकवचं भी त्रिकाल पाठ करने से सिद्ध होता है।केवल एक काल पाठ से इसका व्यापक लाभ नहीं हो पाता। दुर्गासप्तशती का अंग पाठ के रूप में करने से कवच, अर्गला, और कीलक अपना पूर्ण फल देते हैं।
विशेष– जप माला के पहले मनके पर ॐ लगाना चाहिए और एक सौ आठवे पर ॐ लगाना चाहिए।
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