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उपदेश आद्योच्चारणम् के रहस्य का अनावरण
डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक)-
उपदेशेSजनुनासिक इत्” सूत्र से “हलन्त्यम्” में आवृत्त उपदेश पद का अर्थ किया गया “आद्योच्चारण” । उपदेशपदघटक “उप” का अर्थ हुआ-”आद्य”, और दिश् धातु का अर्थ किया गया “उच्चारण” । वस्तुतः दिश् धातु उच्चारणार्थक नहीं है ।”दिश् अतिसर्जने” धातुपाठ से यह दानार्थक है –”अतिसर्जनं दानम्”–तुदादि, सिद्धान्तकौमुदी। धातूनामनेकार्थत्वात् यह मानकर यह कथन ठीक कहा जा सकता है ।
महाभाष्यकार भगवान् पतंजलि ने तो “उपदेशे” की अनुवृत्ति ही नहीं मानी है –यह तथ्य मात्र ध्वनित हुआ है और शेषरकार श्रीनागेश भट्ट जी ने इसे स्पष्ट भी कर दिया है ।
अब “आद्यं च तदुच्चारणम्” -ऐसा विग्रह करके कर्मधारय समास होकर “आद्योच्चारणम्” सिद्ध करें । और “आद्य” शब्द का “प्रथम” अर्थ करके कहें कि “पाणिनि, कात्यायन, पतंजलि के प्रथम उच्चारण को उपदेश कहते हैं तो सूत्ररचना के पूर्व महर्षि पाणिनि, वार्तिकनिर्माण के पहले महर्षि कात्यायन एवं महाभाष्य लिखने के पूर्व भगवान् पतंजलि को मौनी मानना पड़ेगा । तभी तो सूत्रादि प्रथम उच्चारण होंगे !!!
इस पर एक आपत्ति और खड़ी हो जायेगी । वह यह कि प्रथम सूत्र का प्रथम वर्ण ही आद्योच्चारण होगा द्वितीय वर्ण नहीं । इस प्रकार कोई लाभ “आद्योच्चारण” से नहीं मिल सकता । अतः “आद्योच्चारणम्” में “आद्य” पद का अर्थ “प्रथम” करना
उचित नहीं । हमें आद्य पद का ऐसा अर्थ करना चाहिए कि पाणिनि आदि महर्षियों में न तो मौनित्व की आपत्ति आये और न ही धातु सूत्र आदि कोई उपदेश छूटें ही । तात्पर्य यह कि सबका संग्रह हो जाय ।
उपदेश पदार्थ
उप शब्द का अर्थ आद्य ही है किन्तु यह आद्यत्व प्राथम्यरूप नहीं अपितु “अज्ञातस्वरूपज्ञापकत्वरूप” है । उच्चारण में जो आद्यत्व है वह “अज्ञातस्वरूपज्ञापकत्वरूप” ही है । जैसे भगवान् भव के डमरू से “अइउण्” सूत्र निकला । यह उपदेश है । इस शब्द में अज्ञात जो “अइउण्” यह शब्दस्वरूप है उसकी ज्ञापकता है । अतः अज्ञातस्वरूपज्ञापकत्व “अइउण्” इस आनुपूर्वी में आया ।
किन्तु विशेष विचार किया जाय तो यह कथन भी अइउण् आदि में उपदेशत्व की पुष्टि नहीं कर सकता; क्योंकि शब्द की
अभिव्यक्ति कण्ठताल्वाद्यभिघात से होती है । यह अभिघात ही तो उच्चारण क्रिया है । जो शब्द को अभिव्यक्त करने या उत्पन्न करने में कारण बनता है । इसीलिए तो किसी को बोलते हुए देखकर लोग कहते हैं कि “उपदेश बन्द करो” । इससे उच्चारण क्रिया का ही निषेध किया जाता है । क्रिया और शब्द में महान् अन्तर है ।
इसलिए “आद्योच्चारणम्” में उच्चारण का अर्थ कण्ठताल्वाद्यभिघात लेना उचित नहीं । यहाँ “उच्चारण” शब्दरूप ही लेना चाहिए । जिससे महर्षियों के शब्दात्मक उपदेश में आद्यत्व चला जाय । इसके लिए हमको “उच्चार्यते असौ इति “उच्चारणम्” -ऐसा कर्म में प्रत्यय करके उच्चारण शब्द निष्पन्न करना पड़ेगा । अब शब्दात्मक उपदेश में आद्यत्व चला जायेगा । कोई अनुपपत्ति नहीं ।
इससे आप समझ सकते हैं कि “पाणिनि,कात्यायन और पतंजलि के प्रथम उच्चारण को उपदेश कहते हैं”–ऐसा पढ़ाना कितना भ्रामक है !!!!
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