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वैदिक सुरा
श्री सुदर्शन वशिष्ठ-
‘धर्मयुग’ के14 सितंबर,1980 के अंक में श्री भरतरक्षक के ‘क्या वैदिक सोमलता और सोमरस का रहस्य खुल गया!” तथा कृष्णचंद्र सगर के ‘कैसे तैयार किया जाता है सोमरस !” लेखों में सोमलता और उसे कूटने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली ओखलियों की चर्चा हुई। इस पर ‘धर्मयुग’ में ‘संपादक के नाम पत्र लिखा, जो प्रकाशित भी हुआ। इस पत्र में मुख्य मुद्दा था-क्या सोमलता केवल एक ही लता थी या सोमरस बनाने के लिए बहुत-सी जड़ी-बूटियों को प्रयोग में लाया जाता था; तथा कुल्लू में तैयार सोमरस व पर्वत-शृंगों पर उगने वाली सोमलताएँ उस वैदिक पद्धति का प्रतीक तो नहीं ! उच्च शृंगों से लाई लताओं तथा सुर तैयार करने के समय विभिन्न प्रक्रियाओं को करीब से देख पाने का मौका नहीं मिल पाया, अतः उस समय विस्तृत लेख नहीं लिखा जा सका।
श्रृंगे शिशनो अर्पति-ऋग्वेद का उल्लेख है। सोमलता पर्वत-शृंगों पर पाई जाती थी। कुल्लू में तैयार मादक पेय ‘सुर’ के लिए भी जड़ियाँ ऊँचे पर्वत शिखरों से लाई जाती हैं। ऋग्वेद ने सोम का अनेक बार गायन किया है। ऋग्वेद के नवें मंडल में सोम का भरपूर उल्लेख आता है। वनस्पतियों के राजा, औषधियों के सम्राट्, सोम का उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों में भी मिलता है।
सोमरस को बनाने की विधि, जो हमारे इन धर्मशास्त्रों में वर्णित है, ठीक उसी प्रणाली से कुल्लू में ‘सुर’ तैयार की जाती है। प्राचीन समय में इसे ‘फलक’ नाम के पात्र में रखा जाता था। काटकर मूसलों से कूटा जाता था। कूटने और साथ में पानी मिलाने की प्रक्रिया में मंत्रोच्चारण भी किया जाता था। कूटा हुआ सोम ‘आघवनीय’ नाम के मिट्टी के पात्र में रखा जाता था। पात्र में पानी डाल इसका रस निचोड़ लेते थे। इसे अब छानकर अन्य पात्र में रखा जाता।
कुल्लू में प्रचलित इस मादक पेय को तैयार करने की भी यही वैदिक रीति है। इस पवित्र पेय को ‘सुर’ कहा जाता है। यह सुर चंबा की और गद्दी लोगों द्वारा भी घर-घर निकाली जाती है और विशेष समारोहों में सामूहिक रूप से पी जाती है। कुल्लू में इसे पवित्र पेय माना जाता है, जिसका देवता को प्रसाद लगता है, यद्यपि कुछ देवताओं में इसका चलन नहीं है। किंतु जिन देवताओं के यहाँ यह मान्य है, वहाँ इसके पात्र को देवताओं के पास रखा जाता है। देवता के प्रांगण में, भंडार में ही इसे तैयार किया जाता है। देवता की चढ़ाने के बाद ही इसे लोगों में वितरित किया जाता है।
देवता के उत्सवों में देवता के कर्मचारी इसे विधिवत् तैयार करते हैं और प्रसाद के रूप में बाँटते हैं। इन उत्सवों में यह घरों में भी तैयार की जाती है और सामूहिक रूप से घर के सदस्यों व अतिथियों को पंक्ति में बिठा वितरित की जाती है। पुरुष व महिलाएँ, दोनों समान रूप से इसका सेवन करते हैं। एक देवता के उत्सव पर पहाड़ की चोटी पर बसा एक गाँव पूरा का पूरा सुर की गंध से महका हुआ था। सुर गंधा इस गाँव में हर आँगन में लोग दाल-भात की तरह पंक्ति में बैठ सुरापान कर रहे थे। यहाँ कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित था जैसा पौराणिक ग्रंथों के चित्रों में सुर-असुरों को सुरापान करते हुए दिखाया जाता है। ‘सुर’ अन्य प्रकार की देसी शराब या ‘लगड़ी के विपरीत एकमात्र पवित्र पेय है जो देवता को चढ़ता है। ‘लुगड़ी’ एक आम और अधिक प्रचलित पेय है जो सुर से निम्न कोटि का समझा जाता है।
यह पेय देवता के कारज के समय, जाच (मेला) के समय तथा व्याह के अवसर पर तैयार किया जाता है।
इसे बनाने के लिए कई तरह की जड़ी-बूटियों को प्रयोग में लाया जाता है, जो ऊँचे जोतों, शिखरों पर पाई जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि ऊँचे पर्वतों पर इन जड़ी-बूटियों वाले स्थानों में कोई सुकुमार बालक या नारी नंगे पाँव चले तो वहीं मदहोश हो होश खो बैठती है। ऐसे ही ऊँचे जोतों को पहली बार लाँघने वाला इन जड़ियों के खुमार से नशे में लड़खड़ा जाता है या उसके सिर में चक्कर आ जाता है।
वैसे भी इन जड़ी-बूटियों के बारे में पुराने समय से अनेक दंत कथाएँ प्रचलित हैं। यथा; ये रात को चमकती हैं, नाना प्रकार के रूप धारण करती हैं। एक औषधि किस्म की जड़ी को बंदूक से गिराने लगे तो निशाने के आगे गाय दिखने लगी या नारी दिखने लगी आदि। कुल्लू के पार थरकू गाँव में एक बार एक मैदान को समतल करती बार लोगों को ऐसी जड़ी मिली, जो उनके अनुसार रात को चमकती थी। मैं भी उसकी जड़ें घर लाया किंतु कई बार रात के अँधेरे में देखने पर वह चमकती हुई नजर न आई।
ऊँचाइयों से, कठिनाई से लाई जाने वाली इन जड़ियों में से कुछ, जो सुर बनाने में प्रयुक्त होती हैं, इस प्रकार हैं-ओसटली, निम्बली, चटकारी, करारी, गुड़ल, शकोरी, घुमण, टकोरी, गिद्धामूसल, उम्बलीडोही, शौरी, बूढ़ी रा लोगड़, मटोपण, टुम्बलमुँही, माहुरा, मटौशल, शउंडी, ठाठीमंग, डोरीगाह आदि। इनमें माहुरा और मटौशल दो जड़ियाँ प्रमुख हैं। शेष में जितनी उपलब्ध हों, उतनी से ही काम चला लिया जाता है। मटौशल नाम की जड़ी को वैसे ही डाला जाता है जैसे सब्जी में नमक डाला जाता है। इसे डालते समय मंत्र का प्रयोग भी किया जाता है।
अब इन समस्त जड़ियों की (वस्तुतः ये उक्त सूची से अधिक हैं) पहचान करने वाले कुछेक बुजुर्ग ही शेष हैं। अब प्रायः ये समस्त जड़ियाँ लाई भी नहीं जातीं। जोत से इन्हें लाने व सोम तैयार करने का कार्य देवताओं के यहाँ प्रायः बीस भादों को किया जाता है। बीस भादों को ऊँचे जोतों के जलाशयों जैसे शैला सौर, रोहतांग, भृगु आदि में स्नान का पर्व भी होता है। इसी दिन ये जड़ियाँ लाई जाती हैं।
इन जड़ी-बूटियों की जड़ें, पत्ते आदि को लकड़ी पर बारीक काटा जाता है। काटने के बाद इन्हें ओखली में कूटा जाता है। इन ओखलियों का प्रयोग विशेष रूप से इसी के लिए नहीं होता बल्कि धान कूटने के लिए भी प्रयोग में लाई जाती हैं। अब इसमें जी का आटा मिलाया जाता है। कई बार इसमें तरम्होड़ी (काटने वाली मक्खी : भिड़) भी डाली जाती है। अब इस लुगदी की रोटी तैयार कर सुखाई जाती है। एक देवता की फागली में मैंने पुजारी के घर गोल मक्की की रोटी के आकार की कई रोटियाँ देखीं, जो इस पद्धति से तैयार की गई थीं। इसे ‘ढेली’ भी कहा जाता है।
इस रोटी के टुकड़े-टुकड़े कर कोदरे के आटे में पानी मिलाकर डाले जाते हैं ताकि लेटी-सी बन जाए। इसे अब एक पात्र में डाला जाता है जिसे ‘सुरेदी’ कहते हैं। गर्म स्थान में इस पात्र को रखकर सुर तैयार हो जाती है। इसमें ऊपर-ऊपर की सुर बढ़िया समझी जाती है।
सुर तैयार करते समय देवता के कर्मचारी भूखे रहते हैं। जड़ियाँ लाने के समय भी भूखे पेट रहना होता है।
सुर के प्रादुर्भाव के विषय में एक वृद्ध ने कथा सुनाई कि एक चिड़िया पुल के नीचे बैठी थी। एक आदमी ने चिड़िया से पूछा कि यहाँ क्यों बैठी है ? चिड़िया ने रौब से कहा कि वह इस पुल को थामे है। यदि वह यहाँ से हट जाए तो पुल गिर जाए। असल में वह सुर में डाली जाने वाली जड़ियाँ खाए हुए थी 1
यह कथा ऋग्वेद की इस उक्ति से मिलती है
‘हन्ताह पृथिवीमियां न दधानिह वे हवा। कुवित् सोमस्यापामिति ।’
-धरती को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देने की बात उस चिड़िया की ही भाँति सोमरस को स्वास्थ्यवर्धक, स्फूर्तिदायक औषधि बताया गया है।
सोमलता को लेकर भारत व विदेशों में अनुसंधान हुआ है, किंतु अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया कि अमुक लता ही सोमलता है।
वास्तव में यह सोमलता एक न थी बल्कि सोमरस अनेक जड़ी-बूटियों से बनता था। ये जड़ी-बूटियाँ स्वास्थ्यवर्धक औषधि तो हैं ही, मादकता देने से आनंददायक भी हो जाती हैं। स्नायविक दुर्बलता को हरने वाली इन जड़ियों से शरीर चैतन्य और मन निडर बनता है।
कुछ भारतीय विशेषज्ञों ने एपिड्रा नाम का जिम्नोस्पर्म माना है। इस जिम्नोस्पर्म की जातियाँ हिमालय में पाई जाती हैं। यह औषधि के रूप में भी प्रयुक्त होती है। इसी तरह कुछ वनस्पतियों को सोमराजा, सोमिदा, सोम्बू आदि कहा जाता है।
कुछ विद्वानों ने इसे सारकोस्टेमा एसिडम नाम का पौधा माना है। यह एक बिना पत्तियों वाला पौधा होता है।
प्रायः इसे बिना फूल और पत्तों के माना जाता है। संभवतः इसी कारण से इसकी पहचान कर पाना कठिन है। पर्वतों पर इस प्रकार के पौधों की पहचान किसी जानकार को ही होती है। ऐसी जड़ियों का सेवन करने से वृद्ध साधुओं के जवाँ हो जाने की दंत कथाएँ प्रचलित हुई हैं। प्रमुखतः सोम को हिमालय से लाया जाने वाला ही माना गया है जो नमी और गीले पर्वतीय प्रदेशों की उपज है। यह संभव है कि तरह-तरह के सोमरस बनाए जाने के लिए मैदानी जड़ियाँ भी प्रयोग में लाई जाती हों। यदि यह सुर कुल्लू में चली रहती है और इसमें प्रयुक्त जड़ियों को पहचानने वाले व्यक्ति भी रहते हैं तो शोधकर्ता इन जड़ियों को खोज, इस दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं।
कुल्लू, किन्नौर तथा महासू के क्षेत्रों में देवताओं को सुर का प्रसाद चढ़ाया जाता है। यह परंपरा देवताओं को सुरापान के लिए आमंत्रित करने की पौराणिक परंपरा की प्रतीक है। उस समय में भी सुरापान के अधिकारी कुछ महत्त्वपूर्ण देवता ही थे।
हिमालय गाथा (देव परंपरा) से साभार:
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