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मित्र वरुण अर्यमा विवाद और रहस्य
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power – १. विवाद-
२००६ ई में बंगलोर के भारतीय विज्ञान संस्थान (IISC) के एक सम्मेलन में एक भाषण के में मैंने ऋग्वेद के मन्त्र (१/२२/२०) में विष्णु के परम पद पर टिप्पणी की कि यह ब्रह्माण्ड के विषय में है जिसकी माप सूर्य सिद्धान्त (१२/९०) में है तथा लिखा है कि वह सूर्य किरण प्रसार की अन्तिम सीमा है। विष्णु का प्रत्यक्ष रूप सूर्य है (भर्गो देवः) किन्तु वह तत् सविता नहीं है। यह पृथ्वी का सविता है, उसका सविता ब्रह्माण्ड है जो स्वायम्भुव मण्डल से उत्पन्न है। उसका भी सविता अव्यक्त ब्रह्म ही तत् सविता है (गायत्री मन्त्र के प्रथम और द्वितीय पाद)। ब्रह्माण्ड की वही माप ऋक् (१/१६४/१२) तथा कठोपनिषद् (१/३/१) में है जहां परार्ध योजन कहा है। परा = १०घात १७, इसका आधा ब्रह्माण्ड की परिधि है, अतः इस संख्या परा को प्रायः परार्ध कहते हैं। (ऋक् (१/१२३/८) के अनुसार उषा सदा ३० योजन सदा वरुण (पश्चिम) दिशा में पीछे रहती है।
भारत में सूर्य से १५ अंश पश्चिम तक उषा काल मानते हैं। विषुव रेखा पर यह ३० धाम होगा। अतः इस धाम योजन का मान विषुव परिधि का ७२० भाग = ५५.५ किमी होगा। इस तर्क के औचित्य पर विवाद हो सकता है। किन्तु अचानक कुछ व्यक्ति अपनी विख्यात शास्त्रार्थ शैली में मञ्च की तरफ आक्रमण के लिए बढ़े तथा हल्ला किया कि मैं सायण का भक्त तथा दयानन्द का शत्रु हूं। उसके कुछ पूर्व वहां के एक वैज्ञानिक की आतंकवादियों ने हत्या की थी, अतः सुरक्षा कर्मचारी दौड़े और कुछ शास्त्रार्थ महारथियों को रस्सी से बान्ध कर बाहर ले गये। बचे महारथियों से कहा कि सायण या दयानन्द ने इस विषय में कुछ नहीं कहा है तो उनकी भक्ति या शत्रुता का क्या अर्थ है। उस समय स्वामी दयानन्द सरस्वती की पुस्तक आर्याभिविनय स्तोत्र बांटी जा रही थी। उसमें प्रथम मन्त्र के सभी ६ पारिभाषिक शब्दों का एक ही अर्थ परमेश्वर किया गया था। ब्रह्म एक होने का यह अर्थ नहीं है कि वेद के सभी शब्दों का अर्थ केवल परमेश्वर किया जाय। केवल राम नाम जपना पर्याप्त था। तब मनुष्यों के भी अलग-अलग नाम नहीं होने चाहिये। सुरक्षा अधिकारियों के द्वारा छोड़े जाने पर मैंने कहा कि इन ६ शब्दों में किसी २ का अन्तर कोई बता दे तो उसके साथ शास्त्रार्थ का आनन्द आयेगा। १७ वर्ष के बाद भी कोई उनका अन्तर बताने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि भक्ति में कमी हो जायेगी।
२. मन्त्र और अर्थ-
शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्यर्यमा।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः॥
(ऋक्, १/९०/९, ऋक्, १९/९/६,७, वाज. यजु, ३६/९, तैत्तिरीय आरण्यक, ७/१/१)
सामान्य अर्थ है कि मित्र, वरुण, अर्यमा, इन्द्र, बृहस्पति, उरुक्रम विष्णु हमें शान्ति दें।
सभी ६ शान्ति दाताओं को परमेश्वर कहने पर इस मन्त्र में या अन्य वेद मन्त्र में एक ही शब्द का बारम्बार प्रयोग निरर्थक हो जाता है।
३. आकाश में अर्थ-
(क) आदित्य- आकाश के ३ धामों में मूल स्वरूप अन्तरिक्ष में दीखता है। मूल रूप से आदि हुआ था, अतः इनको आदित्य कहते हैं। स्वयम्भू मण्डल १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह है, जिसके भीतर अन्तरिक्ष (ब्रह्माण्डों के बीच खाली स्थान) अर्यमा है। जिस ऊर्जा से निर्माण होता है वह मित्र है, जिससे निर्माण नहीं होता वह वरुण है। या निकट (सौर मण्डल) का आदित्य मित्र है, दूर के ब्रह्माण्ड का आदित्य वरुण है। सबसे ऊपर अपरिवर्तित या स्थिर आदित्य अर्यमा है। वरुण वाः (वारि) का क्षेत्र है जहां जल जैसा बहुत विरल पदार्थ फैला हुआ है। उसके कुछ भाग में निर्माण होता है, वह मित्र है। आकाश में ब्रह्माण्ड के अप् का क्षेत्र वरुण है। सौर मण्डल के भीतर ऊर्जा का प्रसार मित्र है। स्वयम्भू मण्डल १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह है, जिसके भीतर अन्तरिक्ष (ब्रह्माण्डों के बीच खाली स्थान) अर्यमा है। ब्रह्माण्ड में १०० अरब ताराओं के बीच का स्थान वरुण है। सौर मण्डल का आदित्य मित्र है। ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्ड में तारा संख्या की गणना शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५) में है।
ब्रह्मैव मित्रः (शतपथ बाह्मण, ४/१/४/१, ५/३/२/४)
मित्रः (एवैनं) सत्यानां (सुवते(। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/७/४/१)
क्रिया भाग दक्षिण तथा निष्क्रिय भाग वाम हस्त है। अतः मित्र को दक्षिण और वरुण को वाम कहा है।
मैत्रो वै दक्षिणः। वरुणः सव्यः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/७/१०/१)
अप्सु वै वरुणः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/५/६)
आभिर्वा अहमिदं सर्वं आप्स्यामि यदिदं किं चेति। तस्मादापोऽभवन्। तदपामप्त्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१/२)
ता या अमू रेतः समुद्रं वृत्वातिष्ठंस्ताः प्राच्यो दक्षिणाच्यः प्रतीच्य उदीच्यः समवद्रवन्त। तद्यत्समवद्रवन्त तस्मात्समुद्र उच्यते। ता भीता अब्रुवन्। भगवन्तमेव वयं राजानं वृणीमह इति। यच्च वृत्वातिष्ठंस्तद्वरणोऽभवत्। तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१/७)
सबसे ऊपर अर्यमा-एषा वा ऊर्ध्वा बृहस्पतेः दिक् तदेष उपरिष्टाद् अर्यम्णः पन्थाः। (शतपथ ब्राह्मण, ५/५/१/१२)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद, २/२७/८)
(ख) सौर मण्डल-सूर्य विष्णु का प्रत्यक्ष रूप है अतः उसे जगत् की आत्मा कहा है। उसी से हमारा जीवन चल रहा है।
सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च (ऋक्, १/११५/१, अथर्व सं, १३/२/३५, २०/१०७/१४, वाज.यजु, ७/४२, १३/४६, तैत्तिरीय सं, १/४/४३/१, २/४/१४/४, मैत्रायणी सं, १/३/३७, काण्व सं, ४/९, २२/५)
विष्णु के कई विक्रम कहे गये हैं-
यज्ञो विष्णुः स देवेभ्य इमां विक्रान्तिं विचक्रमे यैषामियं विक्रान्तिरिदमेव प्रथमेन पदेन पस्पाराथेदमन्तरिक्षं द्वितीयमेन दिवमुत्तमेन। (शतपथ ब्राह्मण, १/९/३/९)
इमे वै लोका विष्णोर्विक्रमणं विक्रान्तं विष्णोः क्रान्तम्। (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/२/६)
स (विष्णुः) इमाँल्लोकान्विचक्रमेऽथो वेदानथो वाचम् (ऐतरेय ब्राह्मण, ६/१५)
एतद्वै देवा विष्णुर्भूत्वेमाँल्लोकानक्रमन्त यद्विष्णुर्भूत्वा क्रमन्त तस्माद् विष्णुक्रमाः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/७/२/१०)
तद्वाऽहोरात्रेऽएव विष्णुक्रमा भवन्ति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/७/४/१०)
अथर्व वेद (८/१०) के ६ खण्डों में विराट् (दृश्य जगत् के विभिन्न रूप) का वर्णन है। इसमें विक्रान्त (विभाजन), उदक्राम (उत्क्रान्त-बाहर निकलना) न्यक्रामत् (परिणत होना) शब्दों के प्रयोग हैं। जैसे-
(१०/१)-विराड् वा इदमग्र आसीत् (पुरुष सूक्त, वाजसनेयि, ३१/५- ततो विराड् अजायत, विराजो अधिपूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः। अथर्व, १९/६/९)-विराड् अग्रे समभवत्—-)
स उदक्रामत् सा गार्हपत्ये न्यक्रामत्॥२॥
विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः (ऋक्, १/१५४/१, अथर्व, ७/२६/१, वाज.सं. ५/१८, तैत्तिरीय सं. १/२/१३/३, काण्व सं. २/१०, मैत्रायणी सं. १/२९/१९/९)
शं नो विष्णुरुरुक्रमः (ऋक्, १/९०/९) उरुक्रमः ककुहो यस्य पूर्वीर्न मर्धन्ति युवतयो जनित्रीः (ऋक्, ३/५४/१४) स चक्रमे महतो निरुरुक्रमः समानस्मात्सदस एवयामरुत् (ऋक्, ५/८७/४) विश्वेत्ता विष्णुराभरद् उरुक्रमः त्वेषितः। सतं महिषान् क्षीरपाकमोदनं एमृषम्॥ (ऋक्, ८/७७/१०) उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥ (ऋक्, १/१५४/५) इयं मनीषा बृहन्तोरुक्रमा तवसा वर्धयन्ती। (ऋक्, ७/९९/६)
(१०/२)-स उदक्रामत् सा अन्तरिक्षे चतुर्धा विक्रान्ता अतिष्ठत्॥१॥
विष्णु के बहुत से क्रमों की सूची अथर्ववेद (१०/५) में है। कुछ के अर्थ हैं-
(१) त्रिविक्रम-३ प्रकार के प्रभाव क्षेत्र या साम (विष्णु सहस्रनाम में त्रिसामा कहा है)। ताप, तेज, प्रकाश या अग्नि-वायु-रवि (अथर्व, ५/१०/२७, मनु स्मृति, १/२३) मनुष्य रूप विष्णु वामन द्वारा बलि के प्रति राजनीति के ३ नियमों का प्रयोग। राजनीति के ४ अंग हैं-साम, दाम, दण्ड भेद। यदि बल हो तो दण्ड दिया जा सकता है। बल नही है तो अन्य ३ नियम होंगें जिनको छल (त्रिविक्रम = तिकड़म) कहते हैं-साम, दाम, भेद। मनस्तेज (अथर्व, ५/१०/२८)
(२) उरुक्रम-इसका अर्थ सामान्यतः त्रिविक्रम करते हैं। उरु = बड़ा। शरीर में सबसे बड़ी हड्डी जंघा को भी उरु कहते है। विस्तृत होने के कारण पृथ्वी को उर्वी (स्त्रीलिङ्ग रूप) कहते हैं। क्रम = डिजाइन, विशेष क्रम में स्थापित करना। सबसे बड़ा निर्माण नगर का होता है, अतः नगर को दक्षिण भारत में उरु या उर कहते हैं, जैसे चित्तूर, बंगलोर, तंजाउर। मनुष्य विष्णु ने शिल्पशास्त्र के अनुसार सबसे पहले नगरों का निर्माण किया अतः उनको उरुक्रम कहा गया। बाद में राजा वरुण ने भी उरु बनाये, अतः इराक का सबसे पुराना नगर उर है जहां की उर्वशी थी।
उरुं हि राजा वरुण श्चकार (ऋक्, १/२४/८) शं नो विष्णुरुरुक्रमः (ऋक्, १/९०/१)
(४) यज्ञ के ३ सवन-प्रातः, माधन्दिन और सायं। (अथर्व, १०/५/३१)
(५) दिशा के ३ विक्रम-३ आयामी आकाश में गति या घूर्णन (चक्रम) (अथर्व, ५/१०/२८)
(६) औषधि या सोम (अथर्व, ५/१०/३२)-रेतः, यश, श्रद्धा।
रेतो वै सोमः (कौषीतकि ब्राह्मण उप. १३/७, शतपथ ब्राह्मण, १/९/२/९, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/७/४/२ आदि)
यशो वै सोमः (शतपथ ब्राह्मण, ४/२/४/९)
(ऋक्, १०/७२/१०)-यशो वै सोमो राजा (ऐतरेय ब्राह्मण, १/१३)
श्रद्धस्य सोम्येति स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदं (छान्दोग्य उपनिषद्, ६/१२/३)
(७) कृषि रूप (अथर्व, ५/१०/३४)-यज्ञ, पर्जन्य, अन्न। पर्जन्य वरुण तत्त्व है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥(गीता, ३/१४)
(ग) आकाश का इन्द्र-इन्द्र परब्रह्म का स्वरूप है, जिसे कई अन्य नामों से भी कहते हैं-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
(ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
अव्यक्त ब्रह्म निर्विशेष तथा निराकार है। सृष्टि के लिए उसके कई प्रकार के क्रियात्मक रूप हैं।
(१) इन्द्र सृष्टि निर्माण के लिए ऊर्जा है।
(देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे) इन्द्रियस्य इन्द्रियेण। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/६/५/३)
इन्द्रस्य इन्द्रियेण अभिषिंचामि (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/२/२, ऐतरेय ब्राह्मण, ८/७)
(२) शुनः इन्द्र-ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां इन्द्र नहीं हो-
नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किञ्चन । (ऋक्, ९/६९/६)
यह शून्य में भी वर्तमान है, अतः इसे शुनः इन्द्र कहते हैं इस इन्द्र से इद्दर, ईथर (Ether) हुआ है, जो शून्य में भी वर्तमान है।
(३) मघवा-वह मेघ की तरह पूरे आकाश या देश में छाया हुआ है अतः मघवा है। इसका मूल है-महि (मंह) वृद्धौ (धातु पाठ, १/४२२) इसका अन्य अर्थ पूज्य करते हैं (मह पूजायाम्-१/४८५, ११/३२)।
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रम्। (ऋक्, ३/३०/२२)।
(२) मनु तत्त्व-यन् मनः स इन्द्रः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ४/११)
शून्य में वर्तमान मन का मूल रूप था श्वो-वसीयस (शून्य में वास करने वाला)-
असतोऽधि मनोऽसृज्यत। मनः प्रजापतिं असृजत। प्रजापतिः प्रजा असृजत। तद् वा इदं मनस्येव परमं प्रतिष्ठितम्। यदिदं किं च। तत् एतत् श्वोवस्यसं नाम ब्रह्म। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/९/१०)
उसके खण्ड १०० अरब ब्रह्माण्ड और हमारे ब्रह्माण्ड के १०० अरब तारा हैं। इनकी माप शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/१-५) में है। मुहूर्त्त (४८ मिनट) को ७ बार १५ से भाग देने पर लोमगर्त्त होगा (सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग)। शतपथ ब्राह्मण (१०/४/४/२) के अनुसार १ संवत्सर में जितने लोमगर्त्त हैं, आकाश में उतने ही नक्षत्र हैं (स्वयम्भू मण्डल के लिए ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड के लिए तारा)। यह १० घात १२ है, पुरुष विश्व का १० गुणा है, अतः
१० घात ११ (१०० अरब) = दृश्य जगत् में ब्रह्माण्ड संख्या
= हमारे ब्रह्माण्ड में तारा संख्या
= मनुष्य मस्तिष्क में कलिल (लोमगर्त) संख्या।
इन संख्याओं का अनुमान आधुनिक ज्योतिष में १९८५ के बाद हुआ है।
मनुष्य मन का विराट् रूप ब्रह्माण्ड है, अतः उसका अक्ष भ्रमण काल मन्वन्तर है।
(३) क्रिया रूप-इन्द्र ऊर्जा से क्रिया होती है, उसका सञ्चालन केन्द्र हृदय है, कार्य का क्षेत्र वाक् है।
हृदयमेव इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, १२/९/१/१५)
यन् मनः स इन्द्रः (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ४/११)
प्राण एव इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, १२/९/१/१४)
वाक् इन्द्रः (शतपथ ब्राह्मण, ८/७/२/६)
इसकी प्रतिमा मनुष्य मन शरीर के अंगों को संचालित करता है, अतः उनको इन्द्रिय कहते हैं।
(४) १४ इन्द्र-ऊर्जा का घनीभूत रूप अग्नि है, जिसकी १४ जिह्वा हैं, अतः इन्द्र भी १४ है। अग्नि की ७ जिह्वा निगलने की (लेलायमाना) तथा ७ निकालने की (अर्चि) है।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वेनो देवा अवसा गमन्निह। (ऋक्, १/९८/७, वाज. यजु, २५/२०)
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ (मुण्डकोपनिषद्, १/२/४)
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः (मुण्डकोपनिषद्, २/१/८)
शरीर के मन और उसका प्राण इन्द्र की भी १४ जिह्वा हैं-
तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा। (योग सूत्र, २/२७)
(५) इन्द्र और विष्णु-सूर्य इन्धन रूप में तेज का विकिरण करता है। इस अर्चि रूप के ३ क्षेत्र हैं-अग्नि, आदित्य, यम (मनु स्मृति, १/२३ के अनुसार अग्नि, वायु, रवि)।
विष्णु रूप में आकर्षण करता है। यह भृगु है जिसके कारण घनत्व के ३ स्तर हैं।
अर्चिर्षि भृगुः सम्बभूव, अङ्गारेष्वङ्गिराः सम्बभूव। अथ यदङ्गारा अवशान्ताः पुनरुद्दीप्यन्त, तद् बृहस्पतिरभवत्। (ऐतरेय ब्राह्मण, ३/३४)
अग्निरादित्ययमा-इत्येतेऽङ्गिरसः ….वायुरापश्चन्द्रमा-इत्येते भृगवः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, २/९)।
दोनों में समन्वय से शान्ति और शक्ति होती है।
(६) वासव इन्द्र- ऊर्जा रूप इन्द्र विभिन्न पदार्थ रूपों में वास करता है, वह वसु या वासव इन्द्र है।
तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)
ऊर्जा रूप ब्रह्म इन्द्र है, वह भी हर रूप में प्रविष्ट है-
रूपं रूपं वयो वयः (अथर्व सं, १३/१/४, काण्व सं, ८/१४)
= हर रूप एक वयन है-परस्पर सम्बन्ध का सूत्र या ऋषि (रस्सी) है, उनसे निर्माण वस्त्र बुनने जैसा वयन है। यह वयन जितने काल तक रहता है, वह भी वयः (वयस = आयु) है।
रूपं रूपं अधुः सुते (वाज. सं, २०/६४)
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऋक्, ६/४७,१८, शतपथ ब्राह्मण, १४/५/१९)
= माया अर्थात् आवरण द्वारा फैली हुई इन्द्र ऊर्जा पुरु (पुर या रचना) रूप में आता है। वह रूप अलग से स्पष्ट दीखता है। सभी रूप उसके ही प्रतिरूप हैं, ये अनेक (सहस्रों) हैं।
(घ) बृहस्पति-सोम क्षेत्र ३ हैं-(१) चान्द्र मण्डल का देवसोम या राजसोम, (२) जहां तक सौर वायु जाती है वह पवमान सोम है। इसका केन्द्र बृहस्पति होने से यह बृहस्पति सोम है। (३) ब्रह्माण्ड सीमा तक ब्रह्मणस्पति सोम है।
निकट का सोम क्षेत्र चन्द्र कक्षा का गोल है जिसमें सूर्य का रौद्र तेज कुछ शान्त होने से यहां सृष्टि होती है।
एतद्वै देवसोमं यत् चन्द्रमाः (ऐतरेय ब्राह्मण, ७/११)
सोमो राजा चन्द्रमाः (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/२/१)
असौ वै सोमो राजा वोचक्षणश्चन्द्रमाः (कौषीतकि ब्राह्मण, ४/४, ७/१०)
ग्रहों में सबसे बड़ा बृहस्पति है, ग्रह कक्षाओं के बाद प्रायः खाली स्थान है जिसमें केवल इन्द्र या प्रकाश है। शून्य स्थान में भी इन्द्र है, वहां का पदार्थ पवमान सोम कहते हैं बृहस्पति (ग्रह) क्षेत्र में बृहस्पति सोम तथा ब्रह्माण्ड में ब्रह्मणस्पति सोम है। अतः २ भागों में विभाजन इन्द्र बृहस्पति है।
अग्निर्वाव पवित्रम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/३/७/१०)
अयं वायुः पवमानः (शतपथ ब्राह्मण, २/५/१/५)
(वायुः) यः पश्चाद् वाति। पवमान एव भूत्वा पश्चाद् वाति। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/३/९/६)
तस्मादुत्तरत्ः पश्चादयं (वायुः) भूयिष्ठं पवते सवितृप्रसूतो ह्येष एतत् पवते। (ऐतरेय ब्राह्मण, १/७)
सोमो वै पवमानः। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/३/२२)
बृहस्पतिर्ब्रह्म ब्रह्मपतिः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/५/७/४)
वाग् वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः।(शतपथ ब्राह्मण, १४/४/१/२२)
(यजु ३८/८) अयं वै बृहस्पतिर्योऽयं (वायुः) पवते। (शतपथ ब्राह्मण, १४२/२/१०)
बृहस्पतिर्वै देवानां ब्रह्मा (कौषीतकि ब्राह्मण, ६/१३, शतपथ ब्राह्मण, १/७/४/२१, ४/६/६/७)
४. लौकिक अर्थ-
भूगोल में भारत के पश्चिम भाग में निकट में मित्र (ईरान) तथा दूर में वरुण (ईराक, अरब) है। भारत का पूर्व भाग इन्द्र का क्षेत्र था (पूर्व के लोकपाल)। आज भी बर्मा से लेकर इण्डोनेसिया में इन्द्र सम्बन्धी वैदिक शब्द प्रचलित हैं। पूरा विश्व या उसका नियन्त्रक अर्यमा (अरबी में आजम) है।
व्यक्तिगत रूप से सहायक लोग मित्र हैं, शत्रु वरुण हैं, समाज या निरपेक्ष अर्यमा हैं।
क्षितिज के ऊपर गोल का पूर्व भाग मित्र, पश्चिम भाग वरुण है। इनको विभाजित करने वाली याम्योत्तर (उत्तर-दक्षिण) रेखा का उत्तर विन्दु वसिष्ठ तथा दक्षिण विन्दु अगस्त्य है। अतः इनको कुम्भज (आकाश रूपी कुम्भ से उत्पन्न) कहा है। स्थिर गोल अर्यमा है।
देव त्रिलोकी के मुख्य को इन्द्र कहते थे। इन्द्र तथा गरुड़ के भवन यवद्वीप सहित सप्त द्वीपों में थे। यहां द्वीप समुद्र, पर्वत, नदी या मरुस्थल से घिरा प्राकृतिक भूखण्ड है।
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत् त्रिदशेश्वरैः (इन्द्र)॥५४॥
(जम्बूद्वीप = एसिया) की पूर्व दिशा के लिये वहां उदय पर्वत (पूर्व दिशा में पहले सूर्योदय) पर ३ सिर का ताल (स्तम्भ) इन्द्र का बनाया है। (४ त्रिभुजों से घिरा पिरामिड, या त्रिकोणाकार स्तम्भ)
तत्र पूर्वपदं कृत्वा पुरा विष्णुः त्रिविक्रमे। द्वितीयं शिखरे मेरोः चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०)
पूर्व दिशा में प्रथम पाद यवद्वीप (सप्तद्वीप) के पूर्व भाग में गया जिसकी सीमा पर इन्द्र ने पिरामिड बनाया था। उसके बाद मेरु (उत्तर ध्रुव) तक द्वितीय पाद गया। तृतीय पद पुनः वापस भारत की पश्चिम सीमा (उज्जैन से ४५ अंश पश्चिम) तक गया जो राजा बलि के सिर पर था।
यहां पूर्व पद का अर्थ है पूर्व दिशा में भू-परिधि का चतुर्थांश। उत्तर गोल में ४ पाद हैं-भारत वर्ष (उज्जैन मध्य रेखा के पूर्व पश्चिम ४५-४५ अंश, विषुव से उत्तर ध्रुव तक), पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष।
भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे।
वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा।
पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः॥४०॥ (विष्णु पुराण, २/२)
इस भारत वर्ष (भू पद्म का चतुर्थ अंश) में इन्द्र के ३ लोक थे-हिमालय से दक्षिण समुद्र तक भारत, मध्य में चीन ( वहां के लोग चीन को मध्य लोक कहते हैं), उत्तर में रूस, शिविर (साइबेरिया)। भारत का नेता (अग्रि) को अग्नि कहते थे। वह विश्व का भरण करने से भरत कहलाता था।
इन्द्र का काल वैवस्वत मनु (१३९०० ईपू) से १० युग = ३६०० वर्ष तक था। इस काल में १४ प्रमुख इन्द्र हुए। इन लोगों ने प्रायः १००-१०० वर्षों तक शासन किया अतः इन्द्र को शत-क्रतु या संक्षेप में शक्र कहते थे।
नारद पुराण. अध्याय (१/४०) के अनुसार १४ मन्वन्तरों के १४ इन्द्र हैं-
(१) शचीपति, (२) विपश्चित्, (३) सुशान्ति, (४) शक्र, (५) विभु, (६) मनोजव, (७) पुरन्दर, (८) बलि, (९) अद्भुत्, (१०) शान्ति, (११) वृष, (१२) ऋभु, (१३) सुत्रामा, (१४) महावीर्य।
बृहस्पति देवगुरु थे। वेद के अनुसार शब्द के लिए ब्रह्मा ने बृहस्पति को अधिकृत किया, जिन्होंने शब्द तथा उसके लिए चिह्न (दर्श वाक्) बनाये-
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत् नामधेयं दधानाः॥१॥
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्॥४॥ (ऋक्, १०/७१)
वाग्वै बृहती तस्या एष पतिः तस्मादु बृहस्पतिः (शतपथ ब्राह्मण, १८/४/१/२२, बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/२/३)
बृहस्पति चीन के थे, अतः वहां हर शब्द के चिह्न रह गये। वहां ६० वर्ष का बार्हस्पत्य चक्र भी चल रहा है। शतपथ ब्राह्मण (१/२/३/२२-२६) के अनुसार इन्द्र ने उनको मनुष्य लोक (भारत) में भेजा था। उन्होंने यज्ञ विरोधी लोगों को पहले उल्टा उपदेश दिया जिससे वे यज्ञ के महत्त्व को समझें।
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अतीवशोभनम्..🥀