![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/02/वशित्व-महासिद्धि.jpg)
वशित्व महासिद्धि
श्री सुशील जालान-
mysticpower- ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष प्रजापति है स्वयं के शुक्राणुओं का। यह शुक्राणु इड़ा और पिंगला नाड़ियों के ‘सम’ होने से सुषुम्ना नाड़ी में ऊर्ध्वगमन करते हैं, नाभिस्थ मणिपुर चक्र से हृदयस्थ अनाहत चक्र में। प्राणायाम आधार है इस क्रिया का।
यह योगी प्रजापति दक्ष हो जाता है अभ्यास से, देवी के/भगवान् के अनुग्रह से और वशित्व महासिद्धि को धारण करता है। प्रजा रूपी शुक्राणुओं को प्राण के विविध आयामों में, दिव्य भावों में, प्रकट करने का सामर्थ्य वशित्व महासिद्धि प्रदान करती है।
पौराणिक आख्यान है कि दक्ष प्रजापति ने अपने जामाता कैलाशपति भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया यज्ञ में। लेकिन भगवती शिवा यज्ञ में उपस्थित हुईं, शिव का यज्ञभाग न देख कर सती हुईं योगाग्नि में। दक्ष के यज्ञ को विध्वंस किया शिवगणों ने, मुंड अलग किया धड़ से। देवों की स्तुति से नवीन मुंड प्रदान किया शिव ने दक्ष प्रजापति को।
यह एक रूपक है ध्यान-योग क्रिया का, जिसके अंतर्गत सुषुम्ना नाड़ी की अग्नि में, सुषुप्तावस्था में, अनाहत चक्र में, दक्ष ध्यान-योगी आवाहन करता है देवों का। शिव निष्काम तप में लीन हैं, दक्ष कामना ग्रस्त है, इसलिए शिव का आवाहन नहीं करता है। निष्काम होना आवश्यक है ध्यान-योगी के लिए, आत्मबोध के लिए, जीवभाव त्याग कर चैतन्य तत्त्व धारण करने के लिए। अन्यथा, जीवन्मुक्त नहीं हो सकेगा और वंचित रह जाएगा मोक्ष से।
शिव का आवाहन, अर्थात् कामदेव का वध। कामदेव के पांच बाण हैं, स्वर, स्पर्श, रूप, रस और गंध। यह पांच तन्मात्राएं हैं, जिनमें वृत्तियां समायोजित होती हैं। वृत्तियों का निरोध शिवतत्त्व (निर्बीज समाधि) बोध है। अंत:करण चतुष्टय के मन, बुद्धि और अहंकार के लोप होने से चित्त प्रकट होता है ध्यान में, सुषुप्तावस्था में। वृत्तियों से रहित चित्त में चैतन्य तत्त्व का प्राकट्य होता है जिसे शिव स्वरूप निर्गुण आत्मा/ब्रह्म धारण करता है।
अनासक्त होना सांसारिक विषयों में, अष्टमहासिद्धियों में, आवश्यक है शिवतत्त्व बोध के लिए। महर्षि पद उपलब्ध होता है ऐसे सक्षम ध्यान-योगी को शिवतत्त्व बोध के उपरांत और वह स्वयं दक्ष प्रजापति बन स्वयं के शुक्राणुओं में किसी भी जीवभाव, देवासुरभाव, को आहूत कर सकने में समर्थ होता है। सभी भाव उसके वश में होते हैं (सबीज समाधि)।
चैतन्य तत्त्व ही सत् है, सत्य है, सति तत्त्व है। योगाग्नि में तपे इस सत् तत्त्व को महेश्वर धारण करते हैं, 14 माहेश्वर सूत्रों में, जिसे 52 अंशों में विभक्त करते हैं श्रीविष्णु सृष्टि की रचना, संचालन व लोप करने के लिए। यह अनाहत चक्र का कूट क्रियायोग है।
16 स्वर तथा 33 व्यंजनों के योग से देववाणी संस्कृत की वर्णमाला बनती है। यह कुल 49 मरुतगण हैं, वायु तत्त्व प्रधान। 52 वर्णों की वर्णमाला में तीन संयुक्ताक्षर भी हैं, क्ष, त्र और ज्ञ।
– क्ष (च् + ष् + अ), च् से है चित्त, ष् से मूर्धा में धारण करने के
संदर्भ में, अ है स्थायित्व के लिए,
– त्र (त् + र् + अ), त् है एकवचन, र् है अग्नितत्त्व मणिपुर चक्र
में, अ है स्थिरता के लिए, अर्थात् एक मूल प्रकृति
विभाजित है त्रिगुणात्मिक पंचभूतात्मिका में,
– ज्ञ (ज् + य् + अ), ज् है जन्म देने/प्रकट करने के संदर्भ में,
य् है वायु तत्त्व, अनाहत चक्र, अ है स्थिर करने के
लिए।
अर्थ हुआ,
वृत्ति विहीन चित्त, निर्गुण आत्मा/ब्रह्म, मुण्ड में, मूर्धा में प्रकट होता है, जहां मणिपुर चक्र के अग्नि तत्त्व को सक्षम दक्ष प्रजापति ध्यान-योगी स्थिर करता है, जिसमें चैतन्य स्वरूप मूल त्रिगुणात्मिका पंचभूतात्मक प्रकृति प्रकट होती है। इस चैतन्य तत्त्व के वशीभूत हैं 49 मरुतगण जिनसे शब्दब्रह्म उद्भूत होता है, सृष्टि में सृजन, संचालन व लोप करने की सामर्थ्य वशित्व महासिद्धि प्रदान करती है।
सती के चैतन्य स्वरूप से 51 शक्तिपीठों का गठन किया गया है साधकों के लिए, भौतिक, दैविक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए। साधना का अंतिम सोपान ज्ञ वर्ण है। इन बावन अक्षरों का ज्ञाता शब्द-ब्रह्म का ज्ञाता है और वही ज्ञानी है।
शब्द-ब्रह्म 33 व्यंजनों से उद्भूत होता है 16 नैसर्गिक स्वरों के योग से। 33 करोड़ भाव संज्ञाएं स्वाधिष्ठान चक्र में भवसागर रूप में स्थित होती हैं। हर एक भाव संज्ञा किसी एक शब्द में निहित है। यही शब्द-भाव देव हैं जो एक देवी-भावना से विभाजित किए गए हैं। महर्षि अगस्त्य ने संपूर्ण भवसागर पान कर लिया था, शब्द-ब्रह्म के उद्गम में स्थित हुए और तमिल भाषा की रचना की थी।
कतिपय संयुक्ताक्षर वैदिक ऋषियों ने विभिन्न उपासना पद्धतियों के लिए अन्वेषित किए हैं, जिनमें कई भावों का योग किया गया है अभिष्ट फल प्राप्ति के लिए। जैसे, ऐं, ह्रीं, क्लीं, क्रीं, श्रीं, आदि। इन सबमें अनुस्वार बिन्दु का उपयोग किया गया है जहां यह भावयुग्म प्रकट होते हैं, अनाहत चक्र में। कुछ प्राकृत संस्कृत के वर्णों का उपयोग भी किया जाता है, जैसे, ठ़, ड़, ढ़़, आदि।
वशित्व महासिद्धि के उपयोग से जिस देव का आवाहन किया जाता है, वह प्रकट होता है अग्नि तत्त्व में, अनाहत चक्र में, सुषुप्तावस्था में, शब्द/मंत्र के मूर्धा में उच्चारण से और ध्यान-योगी पुरुष की अभिष्ट कामना पूर्ण करता है। इस दिव्य यज्ञ में शुक्राणु की आहुति दी जाती है देवभाव को धारण करने के लिए। हर देव का विशिष्ट गुण धर्म है, जिसके अनुरूप वह कर्म में प्रवृत्त होता है।
वशित्व महासिद्धि से त्रिगुणात्मिका पंचभूतात्मक प्रकृति भी वश में होती है पंच तन्मात्राओं, कामदेव के बाणों, से। पंचभूतात्मक प्रकृति है, पृथ्वी तत्त्व, जल तत्त्व, अग्नि तत्त्व, वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व। यह सभी वश में होते हैं इस दक्ष प्रजापति ध्यान-योगी के।
बालि पुत्र अंगद ने रावण की सभा में अपने एक पैर को पृथ्वी तत्त्व से संयोजित किया था वशित्व महासिद्धि के उपयोग से। रावण व मेघनाथ सहित कोई भी पूरा जोर लगा कर उस पैर को हिला भी नहीं सके थे।
ज्ञ वर्ण महत्वपूर्ण है वशित्व महासिद्धि के उपयोग के लिए। देव आवाहन के लिए ज्ञ, अर्थात् ज् + य्, जय का उच्चारण किया जाता है। ज् है जन्म देने के, प्रकट करने के संदर्भ में, य् है कूट बीज वर्ण अनाहत चक्र में स्थित वायु तत्त्व का। यह महर्लोक है।
महर्लोक से ऊर्ध्व में जनर्लोक है, कंठस्थ विशुद्धि चक्र में, जहां आकाश तत्त्व है। शब्द-ब्रह्म आकाश तत्त्व का गुण है। आकाश तत्त्व से प्राकट्य संभव होता है भूलोक में। इसीलिए जयकारा लगाया जाता है आवाहन के, आरती के अंतर्गत, प्राण प्रतिष्ठित सगुण प्रतिमा की पूजा में भी।
जय के संदर्भ में श्री दुर्गासप्तशती में चतुर्थ अध्याय का ध्यान छंद अवलोकनीय है, यथा –
“ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शङ्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामै:॥”
जयाख्यां, पदच्छेद है, जय + आख्या + अनुस्वार (बिंदु),
जय, ज है जिसका जन्म/प्राकट्य हुआ, य है वायु तत्त्व,अनाहत चक्र, अ है स्थिर करने के लिए, दोनों वर्णों में,आख्या, (आ + ख्या) आ है दीर्घ काल के संदर्भ में, ख्या [ख्/आकाश तत्त्व + य्/वायु तत्त्व + आ/दीर्घ काल] है जिसकी ख्याति यश दीर्घ काल तक अक्षुण्ण है,
बिंदु, ऊर्ध्व शुक्राणु जो अनाहत चक्र में महेश्वर लिङ्ग में प्रकट होता है।
त्रिदश, पदच्छेद, विस्तार है, त्रि(पाद) + दश (वायु),
त्रि (पाद), है प्रथमपाद भूलोक, मूलाधार चक्र, द्वितीयपाद आकाश, विशुद्धि चक्र तथा तृतीयपाद, सुमेरु शीर्ष,सहस्रार, दश(वायु), है दश वायु, प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान,नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त तथा धनंजय। इनमें प्राण और अपान मुख्य हैं। श्वास प्रश्वास से जीवन है, इनकी गति अवरुद्ध करना, अर्थात् केवल कुंभक प्राणायाम में प्रवीण होना, जीवन्मुक्ति है, मोक्ष है।
अर्थ हुआ,
जो ध्यान-योगी पुरुष त्रिदश परिवृत का सेवन करते हैं, भाव संज्ञा स्वरूप देव/देवी को अनाहत चक्र, सहस्रार में सगुण ब्रह्म बिंदु से प्रकट करने की सामर्थ्य प्राप्त करते हैं, उनकी ख्याति दीर्घ काल/अनंत तक विद्यमान होती है।
यह वशित्व महासिद्धि बोध है। जो ध्यान-योगी पुरुष दक्ष प्रजापति है, शिवतत्त्व बोध कर, अनाहत चक्र में बिंदु प्रकट कर, विशुद्धि चक्र के आकाश तत्त्व से भूलोक में सृजन, संचालन और लोप/विसर्जन की सामर्थ्य रखता है, उसकी ख्याति, यश दीर्घ काल तक होती है। यह वशित्व महासिद्धि चैतन्य तत्त्व के आधीन है और सहस्रार में भी प्रकट होती है।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/02/DONATION.jpeg)
![](https://mysticpower.in/wp-content/uploads/2023/10/contact-us-.png)
Har har Mahadev
Dhyan se hi brahmm ki prapti hoti hai
by mistake, 5 ke sthan par 4 reting ho gyi, kshma chahti hu