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वेद में तन्त्र सिद्धान्त
अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
आगम साहित्य-सभ्यता के आरम्भ से चले आ रहे ३ प्रकार के स्रोत ग्रन्थों को आगम साहित्य कहते हैं-
(१) वेद या निगम-इसमें मन्त्र-ब्राह्मण भाग, कल्प, रहस्य मार्जन आदि हैं।
एवं वा अरेऽस्य महतोभूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ऽथर्वाङ्गिरस इतिहास पुराण विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि अस्यैवैतानि निःश्वसितानि। (बृहदारण्यक उपनिषद्, २/४/१०, शतपथ ब्राह्मण, १४/२/४/१०)
एवमिमे सर्वेवेदा निर्मिताः, सकल्पाः, सरहस्याः, सब्राह्मणाः, सोपनिषत्काः, सेतिहासाः, सान्वाख्यानाः, सपुराणाः, सस्वराः, ससंस्काराः, सनिरुक्ताः, सानुशासनाः, सानुमार्जनाः, सवाकोवाक्याः॥ (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, २/९)
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमियजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद् भगवोऽध्येमि। (छान्दोग्य उपनिषद्, ७/१२)
(२) पुराण-वेद का पूरक होने के कारण इसका उल्लेख भी वेद के अंग रूप में ही किया गया है।
ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता। (अथर्व, ११/७/२५)
(३) तन्त्र या आगम-वेद तथा पुराण के समन्वित ज्ञान का क्रियात्मक रूप है, अतः वेद के अंगों में इसके तत्त्वों का उल्लेख है-विद्या, देव विद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, सर्पदेवजनविद्या, अनुशासन, अनुमार्जन आदि। वस्तुतः इनका साहित्य लुप्त है, अतः केवल अनुमान ही कर सकते हैं।
२. विद्या तथा महाविद्या-निसर्ग से प्राप्त ज्ञान विद्या है, अतः इसे निगम (वेद) कहते हैं। वेद के कई अर्थ हैं-तत्त्व वेद को वेद पुरुष कहते हैं। विश्व का शब्द रूप में वर्णन श्री वेद है-
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥ (मैत्रायणी उपनिषद्, ६/२२)
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
ब्रह्म या पुरुष वेद का ३ प्रकार विभाजन है-मूर्ति तत्त्व ऋक् है, गति यजुर्वेद है (शुक्ल-कृष्ण गति के अनुसार २ प्रकार का), महिमा या प्रभाव साम वेद है तथा स्थिर सनातन आधार ब्रह्म या अथर्व वेद है, (थर्व = थरथराना, अथर्व = स्थिर)
शब्द रूप वेद श्री का रूप है-
शब्दात्मिकां सुविमलर्ग्यजुषां निधानमुद्गीथ रम्य पद-पाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भव भावनाय वार्ता च सर्व जगतां परमार्ति हन्त्री॥ (दुर्गा सप्तशती, ४/१०)
वेद में पुरुष रूप का वर्णन पुरुष सूक्त तथा श्री रूप का वर्णन श्री सूक्त, रात्रि सूक्त आदि में है।
४ प्रकार से ज्ञान प्राप्ति के कारण विद् धातु के ४ अर्थ तथा ४ वेद हैं। पहले किसी वस्तु की सत्ता होनी चाहिए, अर्थात् मूर्त्त रूप जिसका वर्णन ऋग्वेद करता है। उस मूर्त्ति से कोई ध्वनि, प्रकाश, गन्ध आदि प्रभाव आना चाहिए। यह गति रूप यजुर्वेद है। उसकी प्रभाव सीमा या महिमा के भीतर ही उसका ज्ञान हो सकता है। महिमा सामवेद है। महिमा क्षेत्र में ही ज्ञान हो सकता है, अतः भगवान् ने अपने को वेदों में सामवेद कहा है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
वेदानां सामवेदोऽस्मि (गीता, १०/२२)
तत्त्व वेद विद धातु का अर्थ
मूर्ति ऋक् सत्ता (विद् सत्तायाम्, धातुपाठ, ४/६०)
गति यजु लाभ, प्राप्ति-विद्लृ लाभे (६/१४१)
ज्ञान साम विद् ज्ञाने (२/५७)
आधार अथर्व विद् विचारणे (७/१३), चेतनाख्यान निवासेषु (१०/१७७)
प्रकृति या निसर्ग के जिस क्षेत्र की महिमा हम तक पहुंचती है वह महः है। उससे प्राप्त विद्या वेद है। उस ज्ञान का प्रयोग महः पर किया जाय तो वह महाविद्या है।
निसर्ग से प्राप्त ज्ञान ३ प्रकार का है। यह जैन दर्शन के शब्द हैं।
श्रुति ज्ञान-जितना हम निकट क्षेत्र से प्राप्त कर सकते हैं। यह वेद हुआ, अतः इसे श्रुति कहते हैं।
अवधि ज्ञान-प्रकृति में परिवर्तन या गति जानने के लिए कुछ समय बाद पुनः देखना पड़ता है कि कितना अन्तर हुआ। पुरा का नवीन रूप देखने की पद्धति पुराण (पुरा + नवति) है।
केवल ज्ञान-ज्ञान पूरे विश्व में फैला है। उसका कुछ ही भाग ज्ञेय है। ज्ञेय भाग भी अपनी क्षमता के अनुसार कुछ ही प्राप्त कर सकते हैं। उस वस्तु की पूरी सूचना नहीं आती है, उसका कुछ ज्ञान कुछ अनुमान मिल कर परिज्ञान है।
अतः ज्ञान प्राप्ति का कर्म ३ प्रकार का है-
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता, त्रिविधा कर्म चोदना। (गीता, १८/१८)
३. सनातन आगम-
(१) सृष्टि के आरम्भ से-कई लोगों की धारणा है कि सभी आगम सनातन अर्थात् सृष्टि के आरम्भ से हैं। किन्तु वर्तमान काल के वे नहीं हैं। दोनों धारणा अंशतः सही है। तत्त्व रूप में आगम शास्त्र आरम्भ से हैं, किन्तु शब्द रूप में इनका निर्माण तथा संकलन बहुत बाद में हुआ है। स्पष्टतः जब मनुष्य सभ्यता का आरम्भ हुआ, संस्कृत भाषा की उत्पत्ति, शब्दों की अर्थ वृद्धि तथा समाज और विज्ञान संस्थाओं का विकास हुआ, उसके बाद ही इनका कोई अर्थ सम्भव है।
जैसे ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है-
अग्निमीळे पुरोहितं। होतारं रत्न धातमं। यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
सृष्टि के ५ अग्नि पर्व का निर्माण हुआ, पृथ्वी पर अग्रि या नेता रूप अग्नि हुआ, पुरोहित संस्था बनी, रत्न की निकासी और पहचान हुयी तथा यज्ञ संस्था का विकास हुआ-इन सबके बाद ही इन शब्दों का कोई अर्थ सम्भव है।
पुरुष सूक्त में सहस्र या अनन्त स्रोत से सृष्टि आरम्भ का वर्णन आरम्भ होता है। उसकी अन्तिम परिणति यज्ञों के समन्वय से होती है, जिससे साध्य उन्नति के शिखर पर पहुंच कर देव कहलाये। उन्नति के शिखर पर पहुंचने के बाद ही इस सूक्त का कोई अर्थ है। यदि सभ्यता के आरम्भ में काल्पनिक अमूर्त्त ईश्वर द्वारा दिया गया होता तो इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता, तथा हर वेद की मन्त्र संहिता का पुरुष सूक्त बिल्कुल एक ही होता।
या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा (ऋग्वेद, १०/९७/१, वाज. सं. १२/७५, काण्व सं. १३/१६, शतपथ ब्राह्मण, ७/२/४/६)
स्पष्टतः यह कथन ओषधि (वृक्ष) उत्पन्न होने के ३ युग बाद ही हो सकता है। यहां युग का अर्थ कल्प नहीं होगा, क्योंकि कल्प आरम्भ में पृथ्वी ही नहीं थी। पृथ्वी बनने के बाद वह वर्षा से ठण्ढी हुई, उसके बाद वृक्ष हुए। यहां युग का अर्थ कल्प से छोटा मन्वन्तर होगा। यह आधुनिक अनुमानों के अनुसार भी सही है। वर्तमान काल से ३ मन्वन्तर पूर्व वृक्ष उत्पन्न हुए। उस समय मनुष्य नहीं थे, अतः किसी ऋषि को इस मन्त्र का दर्शन सम्भव नहीं था।
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे (ऋक्, १/१५८/६)
इस मन्त्र के द्रष्टा भी दीर्घतमा ही हैं जिनको इसमें ममता का पुत्र कहा है। यह दीर्घतमा के जन्म के बाद ही सम्बव है। दीर्घतमा ने १०म युग में यह जाना। यहां १० युग मनुष आयु से कम होगा, अतः युग का अर्थ ५ वर्ष होगा। अर्थात् ४५-५० वर्ष की आयु में इस मन्त्र का दर्शन हुआ।
इन सूक्तों का तभी कोई अर्थ है, जब ५ वर्ष के युग से आरम्भ कर मन्वन्तर तथा कल्प तक की गणना की जा चुकी थी।
(२) तत्त्व वेद की अपौरुषेयता- व्यक्त विश्व में प्रथम मण्डल के ३ मनोता (संकल्प का क्रिया रूप) थे-वेद, सूत्र, नियति।
इसका वेद तत्त्व है कि प्रत्येक विन्दु अन्य विन्दुओं से प्रभावित हो कर उनके बारे में जानता है। यह मूर्ति गति, महिमा-३ प्रकार का है जिनको ऋक्-यजु-साम कहा है।
सूत्र द्वारा २ या अधिक पिण्ड परस्पर सम्बन्धित होते हैं। इसके ३ प्रकार हैं-सत्य (सीमाबद्ध), ऋत (सीमाहीन), ऋत-सत्य (सीमा हीन किन्तु केन्द्र विन्दु)।
नियति सृष्टि या परिवर्तन की दिशा है। सांख्य में इसे सञ्चर-प्रतिसञ्चर कहा है, ईशावास्योपनिषद् में सम्भूति-असम्भूति (विनाश) कहा है। यथास्थिति या सन्तुलन इनकी बराबर स्थिति है।
पुरुष के ४ भागों में १ ही भाग व्यक्त विश्व है। ३ अव्यक्त भाग सदा रहते हैं (त्रिपादस्यामृतं दिवि, पुरुष सूक्त, ३)। इस अव्यक्त भाग का वेद शून्य या अज्ञात है। व्यक्त भाग का अनन्त वेद है (भरद्वाज को इन्द्र द्वारा कथन-तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१०/११)-अनन्ताः वै वेदाः। यहां कई प्रकार के अनन्त हैं, ऋक का मूर्ति रूप संख्येय अनन्त है, यजुः का गति रूप असंख्येय अनन्त है, साम की महिमा अप्रमेय अनन्त है। अथर्व अज्ञेय अनन्त है। इस रूप में सृष्टि रूप पुरुष या अव्यक्त रूप पूरुष के लिए भी वेद अपौरुषेय हैं। विष्णु सहस्रनाम में ये शब्द हैं-अनन्त, असंख्येय, अप्रमेय, अमेयात्मा।
वेदो नारायणः साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुमः (भागवत पुराण, ६/१/४०)
आद्यं त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयो यस्मिन्प्रतिष्ठिता ।
स गुह्योऽन्यस्त्रिविद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित् ॥ (मनु स्मृति, १२/२६५)
ब्रह्माण्ड में वेद का स्वरूप भृगु रूप आकर्षण तथा अङ्गिरा रूप विकिरण है।
आपो भृग्वङ्गिरो रूपमापो भृग्वङ्गिरोमयं सर्वमापोमयं भूतं सर्वं भृग्वङ्गिरोमयमन्तरैते त्रयो वेदा भृगूनङ्गिरसोऽनुगाः (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/३९)
इसमें अङ्गिरा के ३ स्तर हैं-केन्द्र में अग्नि, उसके बाद वायु, उसके बाद प्रभाव सीमा तक आदित्य। ये ऋक्, यजु, साम वेद हैं।
तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्तप्तेभ्यः संतप्तेभ्यस्त्रीन् देवान्निरमिमीत–अग्निं वायुमादित्यमिति—स खलु पृथिव्या एवाग्निं निरमिमीतान्तरिक्षाद्वायुं दिव आदित्यम्–अग्नेर्ऋग्वेदं वायोर्यजुर्वेदं आदित्यात्सामवेदम् (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/६)
भृगु (आकर्षण जनित पिण्डों की स्थिति) से अथर्व हुआ।
ताभ्यः श्रान्ताभ्यस्तप्ताभ्यः संतप्ताभ्यो यद्रेत आसीत्तदभृज्ज्यत, तस्माद्भृगुः समभवत्–भृगुरिव वै स सर्वेषु लोकेषु भाति य एवं वेद। (गोपथ पूर्व, १/३)
अथर्वाणश्च ह वा अङ्गिरसश्च भृगुचक्षुषी तद्ब्रह्माभिव्यपश्यन् (गोपथ पूर्व, १/२२)
सौर मण्डल के भीतर भी भृगु-अङ्गिरा के कारण वेद हैं। सम्पूर्ण सौर मण्डल की स्थिति भृगु या अथर्व वेद (सनातन ब्रह्म) है। अग्नि (११ अहर्गण-पृथ्वी तक), वायु (२२ अहर्गण-यूरेनस तक), रवि या आदित्य (सौर मण्डल की सीमा-३३ अहर्गण तक) क्रमशः ऋक्, यजु, साम वेद हैं।
अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम्॥ (मनु स्मृति, १/२३)
यही यज्ञ के लिए वसु, रुद्र, आदित्य क्षेत्र हैं, जो यज्ञ या उत्पादन रूपी गौ से सम्बन्धित हैं-
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक्, ८/१०१/१५)
केवल सूर्य पिण्ड देखने से इसका पिण्ड (मूर्त्ति) ऋक् है, इसका शरीर यजु है (भीतरी क्रिया कृष्ण, बाहरी कम्पन अङ्गार् शुक्ल यजु), तथा इसके तेज, आकर्षण, वायु का प्रसार (त्रिसामा) सामवेद है।
यदेतन्मण्डलं तपति। तन्महदुक्थं ताऽऋचः सऽऋचां लोकोऽथ यदेतदर्चिर्दीप्यते तन्महाव्रतं तानि सामानि स साम्नां लोकोऽथ यऽएष ऽएतस्मिन्मण्डले पुरुषः सोऽग्निस्तानि यजूंषि स यजुषां लोकः॥ (शतपथ ब्राह्मण, १०/५/२/१)
चान्द्र मण्डल के मनोता हैं-रेत (सोम कण), श्रद्धा (कणों के बीच सम्बन्ध), यश (महिमा)। यही ३ वेदों के रूप हैं।
पृथ्वी से देखने पर वाक्, गौ, द्यौ-३ मनोता हैं, जो ३ वेदों के स्वरूप हैं। वाक् ३ प्रकार की पृथ्वी की माप है-२४ अहर्गण (गायत्री) पृथ्वी ग्रह है, त्रिष्टुप् (४४ अहर्गण) सूर्य का क्षेत्र महर्लोक तक, जगती (४८ अहर्गण) ब्रह्माण्ड।
जब तक स्वयम्भू, ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल, चान्द्र मण्डल तथा पृथ्वी है, तब तक ये तत्त्व वेद सनातन हैं। ये सभी अपने पुर के पुरुषों से परे हैं।
(३) शब्द वेद की अपौरुषेयता- यह ३ प्रकार से है-
(क) समाधि अवस्था मे ५ ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त २ अतीन्द्रिय ज्ञान भी होते हैं जिनको परोरजा और ऋषि कहा है। इन्द्रिय ज्ञान ५ प्राणों द्वारा हैं, २ असत् प्राण मिला कर ७ प्राण भी हैं।
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । –ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
परोरजा य एष तपति (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१४/३)
सप्तप्राणा प्रभवन्ति तस्मात्, (मुण्डकोपनिषद्, २/१/८)
तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा। (योग सूत्र, २/२७)
इस अवस्था में निष्पक्ष ज्ञान होता है। इस अवस्था में ऋषि को अजपृश्नि (अज से सम्बन्धित) कहा है जो यज्ञ तथा ब्रह्म को देख सके।
अजान् ह वै पृश्नीन् तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भू अभ्यानर्षत् । तदृषयोऽभवन् । त एवं ब्रह्म यज्ञमपश्यन् । (तैत्तिरीय आरण्यक, २/९/१)
(ख) तीन विश्वों का सम्बन्ध-यह सामान्य वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा सम्भव नहीं है। यदि एक संस्था का अन्य पर दृश्य प्रभाव पड़ने लगे, तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व सम्भव नहीं है। सौर मण्डल के ग्रह बाकी खरबों सूर्यों के प्रभाव से मुक्त हो कर कई अरब वर्ष से स्थिर हैं। इस अलगाव को माया कहा है जो सृष्टि का कारण है। इसका अनुभव भी समाधि अवस्था में ही सम्भव है (अजपृश्नि द्वारा ब्रह्म तथा यज्ञ का दर्शन)।
(ग) कई ऋषियों के ज्ञान का समन्वय-समन्वय बताने के लिए विभिन्न ऋषियों द्वारा ब्रह्म के लिये भिन्न-भिन्न सब्दों के प्रयोग में एकता दिखाने के लिए ब्रह्म सूत्र है।
(४) सनातन पुराण-तत्त्व रूप में मूल पुरुष ही पुराण था। पृथ्वी पर भी कल्प आरम्भ में ब्रह्मा ने पहले पुराणों का स्मरण किया, उससे पता चला कि सृष्टि कैसे करनी है। तब वेदों का निर्माण हुआ। यह स्पष्ट है-जब तक आधारभूत ज्योतिष, भाषा, विज्ञान आदि का ज्ञान नहीं हो, तब तक वेद मन्त्रों का कोई अर्थ नहीं होता। ऋग्वेद में भी लिखा है-
सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च (ऋक्, १०/१९०/३)
इदमेव पुराणेषु पुराण पुरुषस्तदा। (२)
पुराणं सर्व शास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥३॥
पुराणमेकमेवासीत् तदाकल्पान्तरेऽनघ। त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्॥४॥ (मत्स्य पुराण, ५३/२-१०)
पुराण का एक अर्थ सनातन या पुराण पुरुष भी है जो ब्रह्म का क्रियात्मक रूप है-
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् (गीता, ११/३८)
संख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः (भागवत पुराण, ८/७/३१)
परिवर्तनशील विश्व का वर्णन पुराण है। यदि वेद या पुराण एक ही समय के हों तो यह पता नहीं चल सकता कि उसके बाद अब तक कितना समय बीता। इसकी परिभाषायें हैं-
पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन तत् स्मृतम् (पद्म पुराण, १/२/५३)
यस्यात् पुरा ह्यनन्तीदं पुराणं तेन चोच्यते (वायु पुराण उत्तर, ४१/५५)
यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत् पुराणं तेन तत् स्मृतम् (ब्रह्म पुराण, १/१/१७३)
पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति (निरुक्त, ३/१९)
वेद के लिये पुराणों की जरूरत थी अतः वेद में भी पुराणों का उल्लेख है-
ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता। (अथर्व, ११/७/२५)
शब्द रूप में जैसे जैसे युग बीते, पुराणों के नये संस्करण हुए जिनमें प्राचीन बातें संक्षिप्त होती गयीं। सभी इतिहास तथा विज्ञान ग्रन्थों में नये तथ्यों के साथ नये संस्करण निकलते हैं।
(५) सनातन तन्त्र-निर्माण की विधि, विभिन्न संस्थाओं की व्यवस्था तथा उनका सम्बन्ध तन्त्र है। शरीर तथा आयु के विषय में ज्ञान आयुर्वेद है, निदान तथा चिकित्सा के लिए इनका प्रयोग तन्त्र है, जैसे अगद, शालाक्य, कौमार भृत्य आदि।
शरीर का बाह्य विश्व से सम्बन्ध भी तन्त्र है। योग शरीर के भीतर सन्तुलन करता है, तन्त्र उसका बाह्य प्रयोग करता है। पातञ्जल योग में इसे विभूति पाद कहा गया है। वेद में ३ विश्वों का सम्बन्ध तन्त्र है, आध्यात्मिक अर्थ भी योग तथा तन्त्र पर आधारित है।
४. समन्वय पद्धति-यदि आगम शास्त्रों को आज भी मानें तो समन्वय समझने में कोई कठिनाई नहीं है। पर हम सोचते हैं कि किसी काल में वैदिक युग था, अभी लौकिक संस्कृत का युग है। ब्रह्म सूत्र के आरम्भ में स्पष्ट लिखा है-
शास्त्रयोनित्वात्। तत्तु समन्वयात्। (ब्रह्म सूत्र, १/१/३-४)
यदि कोई भौतिक विज्ञान का छात्र कहे कि मैं भौतिक विज्ञान का भक्त हूं तथा गणित तथा भाषा या प्रयोग का विरोधी हूं तो वह विज्ञान नहीं समझ सकता। १ विषय का अन्य विषयों से सम्बन्ध की व्याख्या ४ अनुबन्ध हैं। सिद्धान्त का वर्णन भाषा में होता है, जिसमें विज्ञान के लिए शब्दों के कुछ विशेष पारिभाषिक अर्थ होते हैं। सिद्धान्त के सूत्र तथा गणना के नियम के लिए गणित का प्रयोग है। उनकी जांच के लिए प्रयोग होते हैं, जो तन्त्र है। भौतिक विज्ञान शुद्ध विज्ञान है, पर उसमें जांच के लिए तन्त्र का प्रयोग है। अधिकांश तन्त्र (इंजीनियरिंग) भौतिक विज्ञान पर ही आधारित हैं, उनके छात्र कुछ आवश्यक विज्ञान तथा गणित भी पढ़ते हैं। राजनीति शास्त्र समझने के लिए भी इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र आदि जानना आवश्यक है।
ऐसा ही कथन है कि मैं वेद का भक्त हूं, किन्तु पुराण तथा तन्त्र का विरोधी हूं। वेद में लोकों का वर्णन, भूगोल, ऋषि परम्परा, विषयों की क्रमबद्ध व्याख्या आदि जानने के लिए पुराण आवश्यक हैं। वैदिक शब्दों के अर्थ भी लौकिक शब्दों पर ही आधारित हैं पर उनके अर्थ का विस्तार विज्ञान विषयों, आध्यात्मिक, आधिदैविक संस्थाओं के लिए किया जाता है, उसे वृद्धि कहा है। मूलतः शब्द बने थे, बाद में उनको वर्ण-अक्षरों में खण्डित किया गया जिसे व्याकरण कहते हैं।
ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्-इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति। (तैत्तिरीय संहिता, ६/४/७)
अभी उलटा काम करते हैं-व्याकरण द्वारा मूल धातु से उपसर्ग, प्रत्यय आदि जोड़ कर कैसे शब्द बनाते हैं, इसका अध्ययन करते हैं। निरुक्त भौतिक शब्दों की विशेष वैज्ञानिक परिभाषा बताता है। अपनी धारणा के अनुसार वेद का मनमाना अर्थ निकालना निरुक्त नहीं है।
वेद के वैज्ञानिक अर्थ के लिए निरुक्त तथा विज्ञान जानना होगा। आधिदैविक अर्थ के लिए पुराण तथा ज्योतिष आवश्यक हैं। कई लुप्त अंश अभी केवल जैन ज्योतिष में हैं। आधिभौतिक अर्थ के लिए भी पौराणिक भूगोल तथा अन्य विषय की जानकारी चाहिये। आध्यात्मिक अर्थ के लिए योग तथा तन्त्र, आयुर्वेद का अध्ययन होना चाहिए। तीनों विश्वों का सम्बन्ध तथा इस ज्ञान का प्रयोग भी तन्त्र का व्यापक अर्थ है।
ताः त्रिविधाः ऋचः-परोक्षकृताः, प्रत्यक्षकृताः, आध्यात्मिक्यः च। (निरुक्त, ७/१)
गीता (८/१-४) में ३ विश्व संस्थाओं के नाम हैं-आधिदैविक (आकाश), आधिभौतिक (पृथ्वी), आध्यात्मिक (शरीर के भीतर)।
तैत्तिरीय उपनिषद् (१/३/१) में ५ संस्था कही गयी हैं-अधिलोक, अधिज्योतिष, अधिविद्या, अधिप्रजा, अध्यात्म।।
५. वेद में शक्ति तत्त्व-इसका वर्णन अभिनव गुप्त, भास्करराय भारती ने किया था। आधुनिक काल में करपात्री जी, दतिया के स्वामी जी इसके प्रमुख व्याख्याता रहे हैं। दतिया स्वामी के वैदिक प्रवचन तथा लेख संग्रह में उनकी कुछ रचनायें आ गयी हैं, किन्तु बहुत लुप्त भी हो गया। १९८४ में निगमागम समन्वय पर उन्होंने गोष्ठी भी बुलाई जिसके लेख संग्रह में सर्वश्री पट्टाभिराम शास्त्री, बटुकनाथशास्त्री खिस्ते, व्रजवल्लभ द्विवेदी, गजाननशास्त्री मुसलगांवकर, रामाधीन चतुर्वेदी, वेणीमाधव अश्विनी कुमार शास्त्री, तथा राममूर्ति त्रिपाठी के लेख महत्वपूर्ण थे। सभी को समझना सम्भव नहीं है। पर मधुसूदन ओझा तथा करपात्री जी के वेद ग्रन्थों से वेद के बारे में जैसा समझा उसके अनुसार इन विचारों का समन्वय किया है। किसी के विचारों से यह पूरी तरह नहीं मिलता है, अतः केवल मूल उद्धरण दिए हैं।
ऋग्वेद का श्री सूक्त, तथा शांखायन शाखा का त्रिपुरोपनिषद् शाक्त तन्त्र के मुख्य स्रोत हैं। रुद्राष्टाध्यायी में शैव तन्त्र तथा प्रसंग वश शिवा का भी वर्णन है। गणपति सूक्त तथा गणपत्यथर्वशीर्ष गणेश तन्त्र का मूल है। विष्णु सूक्त के आधार पर सौर और गायत्री तन्त्र हैं। मनुष्य पर सौर तथा नक्षत्र मण्डल के प्रभाव का वर्णन वाजसनेयि यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), कूर्म पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), लिङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं।
कई उपनिषद् तन्त्र तथा योग से सम्बन्धित हैं-ब्रह्मविन्दु, कैवल्य, जाबाल, हंस, महानारायण, परमहंस, ब्रह्म, अमृतनाद, अथर्वशिर, बृहज्जाबाल, वज्रसूचिक, तेजोविन्दु, नादविन्दु, ध्यानविन्दु, ब्रह्मविद्या, योगतत्त्व, आत्मप्रबोध, योग चूडामणि, त्रिपाद्विभूति महानारायण, योगशिख, तुरीयातीत, अक्षमालिका, सूर्य, सावित्री, पाशुपत ब्रह्म, त्रिपुरतापिनी, देवी, त्रिपुरा, योगकुण्डली, भस्मजाबाल, रुद्राक्षजाबाल, गणपति, जाबालदर्शन, गणेशपूर्वतापिनी, गणेश उत्तरतापिनी, सरस्वती रहस्य, योगराज।
६. क्रिया योग-कुण्डलिनी का उल्लेख-
सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतः (ऋक्, १/१६४/३६, अथर्व, १०/८८/४)
शरीर के लिए इसका अर्थ है साढ़े ३ चक्र की कुण्डलिनी। पूर्ण विश्व के लिए अर्थ है-प्रकृति के ३ गुण और गुणातीत मूल प्रकृति। यह ब्रह्म का स्रष्टा रूप है, जिसका वाचक प्रणव में साढ़े ३ मात्रा हैं-अ, उ, म्, विन्दु की अर्ध मात्रा।
सप्त चक्र-सप्तास्यासन् परिधयः (पुरुष सूक्त, १५, ऋक्, १०/९०/१५, वाज सं. ३१/१५, अथर्व, १०/८८/४)-आकाश के लिए यह ७ लोकों की सीमा या परिधि हैं। शरीर के भीतर उनकी प्रतिमा रूप चक्र हैं।
बहुत स्थानों पर शरीर रूपी रथ के ७ चक्रों का उल्लेख है जिनमें ध्यान द्वारा आहुति देते हैं-
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणाः (तैत्तिरीय आरण्यक, १०/१०/१, महानारायण उप. ८/४)
सप्तर्षयः प्रतिहिताः शरीरे (वाज. सं. ३४/५५)
सप्त चक्रं रथं अविश्वमिन्वम् (ऋक्, २/४०/३, मैत्रायणी सं. ४/१५/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/१/५)
अथर्व वेद में विन्दु चक्र को मिला कर ८ चक्र कहे हैं-
अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि (अथर्व, ११/४/२२)-एक नेमि या धुरी सुषुम्ना है।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या (अथर्व, १०/२/३१, तैत्तिरीय आरण्यक, १/२७/२)
मूलाधार से ऊपर के षट् चक्रों तक उत्थान-यह स्थूल से क्रमशः सूक्ष्म तक होता है, अन्नमय कोष से प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, चित्तमय, आत्मामय कोष तक।
हर चक्र से क्रमशः उत्थान का प्रतीक है, दूर्वा जो हर काण्ड से बढ़ती है। दूर्वा दान का मन्त्र है-
काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥ (वाज. यजु, १३/२०)
इसका आरम्भ मूलाधार के अन्नमय कोष से होता है-
तत् (वह, ब्रह्म प्रतिमा कुण्डलिनी) अन्नेन अतिरोहति (अन्न से क्रमशः उठता है)। (पुरुष सूक्त, २)
७. महाविद्या तत्त्व-लोकों का तथा महा विद्या का ३-३ में विभाजन हुआ है। ३ धाम के ३-३ लोक मिला कर ७ लोक होते है। अवम धाम (सौर) के भू, भुवः, स्वः है। इसका स्वः मध्यम धाम ब्रह्माण्ड का भू लोक है। ब्रह्माण्ड का स्वः लोक स्वयम्भू (परम धाम) का भू लोक है।
पुरुष रूप में देखने पर दृश्य जगत् रूप १ पाद ही ज्ञेय है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि (पुरुष सूक्त)।
बाकी समजने के लिए शक्ति या श्री की आवश्यकता है। इसमें मूल प्रकृति या सांख्य का प्रधान अज्ञेय है। उसके३ रूप ज्ञेय हैं जिनको पुराण की भाषा में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती कहा है। इनके पुनः ३-३ भेद होते हैं, ३ x ३ = ९ भेद में मूल प्रकृति को जोड़ने पर १० महाविद्या हैं। महाविद्या के स्रोत में महा उपसर्ग लगा है, महाविद्या नामों में नहीं। इस कारण चण्डी पाठ में प्रथम चरित्र में १, द्वितीय में ३ तथा तृतीय में ९ अध्याय हैं। वेद में इनको भारती (मही), इळा, सरस्वती कहा गया है। ३-३ विभाजन (त्रिवृत) को तिस्रः त्रेधा कहा है-
(१) इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्त्रिधः। (ऋक्, १/१३/९, ५/११/८)
(२) भारतीळे सरस्वति या वः सर्वा उपब्रुवे। ता नश्चोदयत श्रिये॥ (ऋक्, १/१८८/८)
(३) शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती। इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञियाः। (ऋक्, १/१४२/९)
(४) भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही। इमं नो यज्ञमागमन् तिस्रो देवीः सुपेशसः। (ऋक्, ९/५/८)
(५) सरस्वती साधयन्ती धियं न इळा देवी भारती विश्वतूर्तिः।
तिस्रो देवी स्वधया बर्हि रेमछिद्रं पान्तु शरणं निषद्य॥ (ऋक्, २/३/८)
(६) आ भारती भारतीभिः सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्निः।
सरस्वती सारस्वतेभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरिदं सदन्तु॥ (ऋक्, ३/४/८, ७/२/८)
(७) तिस्रो देवीर्बर्हिरिदं वरीय आसीदत चकृमा वः स्योनम्।
मनुष्यवद् यज्ञं सुधिता हवींषीळा घृतपदी जुषन्त॥ (ऋक्, १०/७०/८)
(८) आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती।
तिस्रो देवीरबर्हिरिदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु॥ (ऋक्, १०/११०/८)
निरुक्त (८/१३) के अनुसार भरत आदित्य तथा उसकी भा भारती है। आदित्य वह क्षेत्र और पदार्थ है जिससे निर्माण का आदि हुआ है-स्वयम्भू, परमेष्ठी, सौर के आदित्य क्रमशः वरुण, अर्यमा, मित्र हैं (ऋक्, २/२७/८)। उसका प्रभाव क्षेत्र भारती सृष्टि का मूल है-ब्राह्मी तु भारती (अमरकोष, १/६/१)
इळा भूमि है जो सृष्टि का प्रकट रूप है। भूमि ३ हैं-ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल, पृथ्वी। अमरकोष (३/३/४२) में इळा का अर्थ गो (किरण), भू, वाक्, इळा (इडा) हैं-गोभूवाचस्त्विडा इला।
सरस्वती स्पष्टतः बुद्धि की प्रेरक है-ऊपर का (५), तथा-
शं सरस्वती सह धीभिरस्तु (ऋक्, ७/३५/११)
चोदयित्री सूनृतानां चेतयन्ती सुमतीनाम् (ऋक्, १/३/११)
शक्ति रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पाद क्रमशः महाकाली (सृष्टि का आरम्भ), महालक्ष्मी (दृश्य जगत् जिसे जान सकते हैं), महासरस्वती (बुद्धि की प्रेरक या चोदयित्री) हैं।
शंकरनारायण की अंग्रेजी पुस्तक दस महाविद्या के अनुसार इनके वैदिक मन्त्र हैं-
(१) काली सर्वव्यापी रात्रि है-
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वतः। ज्योतिषा बाधते तमः। (ऋक्, १०/१२७/२)
वर्षन्तु ते विभावरी दिवो अभ्रस्य विद्युतः। रोहन्तु सर्व बीजान्यव ब्रह्मद्विषो जहि॥
(ऋक् अष्टक ४/४/२९ का परिषिष्ट ५/८४)
(२) तारा गौरी वाक् है जो सलिल (तरंग युक्त रस) को १, २, ४, ८, ९ भागों में बांटती है-
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी।
अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥ (ऋक्, १/१६४/४१)
गौर्धयति मरुतां श्रवस्युर्माता मधोनाम्। युक्ता वह्नी रथाना,॥ (ऋक्, ८/९४/१)
(३) त्रिपुरा सुन्दरी गौरी वाक् की सन्तति तथा किरण रूप है-
अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता।
स चित्रिभिर्न हि चकार मर्त्यं विद्युद् भवन्ती प्रति वव्रिमौहत॥ (ऋक्, १/१६४/२९)
(४) भुबनेश्वरी अदिति है जिसमें सभी समाहित हैं-द्यु, अन्तरिक्ष, माता, पुत्र, विश्वेदेव, पञ्चजन-
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वेदेवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥ (ऋक्, १/८९/१०)
देवी-अथर्वशीर्ष (३, ७, १७) तथा देवी सूक्त में भी।
(५) त्रिपुरा भैरवी जातवेदस अग्नि है-
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥ (ऋक्, १/९१/१)
(६) छिन्नमस्ता वज्र वैरोचनीया रूप में इन्द्र की वज्र शक्ति है। इन्द्र को वृद्धश्रवा (श्रवा या सत्ता क्रम में वृद्ध या प्रथम, अधिक ख्याति, वृद्ध) कहते हैं, उनकी पत्नी (शक्ति) छिन्नमस्ता या वृद्धा नारी है-
संहोत्र स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥ (ऋक्, १०/८६/१०)
(७) धूमावती को निर्ऋति (ऋत या आचरण-धन का अभाव) कहा है-
मो षु णः परापरा निर्ऋतिर्दुर्हण वधीत। पदीष्ट तृष्णया सह॥ (ऋक्, १/३८/६)
(८) बगलामुखी अथर्ववेद की कृत्या है। अथर्वण के पुत्र बृहद्दिव शत्रुनाशक रूप में उसका आह्वान करते हैं-
तदिदा सभुवनेषु ज्येष्ठं ततो जज्ञ उग्रस्त्वेष नृम्णः।
सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रू ननु यं विश्वे मदन्त्यूमाः॥ (ऋक्, १०/१२०/१)
(९) मातङ्गी संगीत तथा व्यक्त ज्ञान का प्रतीक हैं। उनकी सरस्वती रूप में पूजा होती है-
महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना। धियो विश्वा विराजति॥ (ऋक्, १/३/१२)
(१०) कमला भौतिक सम्पत्ति है जो पृथ्वी पर सूर्य (सविता) के जीवनदायी तेज (सावित्री) द्वारा उत्पन्न होती है-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥ (ऋक्, ३/६६/१०)
बगलामुखी शक्ति रूपी अश्व को नियन्त्रित करने के लिए वल्गा रूप है, जिसका वाज. सं. में वर्णन है-
रक्षोहणं वलगहनं वैष्णवीम्। इदम् अहं तं वलगम् उत् किरामि यं मे निष्ट्यो यम् अमात्यो निचखान। इदम् अहं तं वलगम् उत् किरामि यं मे समानो यम् असमानो निचखान। इदम् अहं तं वलगम् उत् किरामि यं मे सबन्धुर् यम् असबन्धुर् निचखान। इदम् अहं तं वलगम् उत् किरामि यं मे सजातो यम् असजातो निचखान। उत् कृत्यां किरामि॥ (वाज. सं. ५/२३)
इसे वैष्णवी शक्ति कहा गया है। इसके उपासक रूप में भगवान् कृष्ण पीताम्बर पहनते थे।
रक्षोहणो वो वलगहनः प्रोक्षामि वैष्णवान्। रक्षोहणो वो वलगहनो ऽव नयामि वैष्णवान्। रक्षोहणो वो वलगहनो ऽव स्तृणामि वैष्णवान्। रक्षोहणौ वां वलगहना ऽ उप दधामि वैष्णवी। रक्षोहणौ वां वलगहनौ पर्य ऊहामि वैष्णवी। वैष्णवम् असि। वैष्णवा स्थ ॥ (वाज. सं ५/२५)
अथर्ववेद में भी इसका कई स्थानों पर उल्लेख है।
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