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वेदार्थ
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
mysticpower- १. निरुक्त-यास्क ने निरुक्त (१/१५) में लिखा है कि निरुक्त के बिना वेद मन्त्रों के अर्थ का बोध नहीं होता। बिना अर्थ ज्ञान के स्वर और संस्कार का निर्णय नहीं हो सकता। यह विद्या स्थान रूप में व्याकरण की पूर्णता या उसका पूरक है तथा अर्थ समझने में सहायक है। इस पर कौत्स का मन्तव्य है कि यदि निरुक्त से ही अर्थ का बोध हो, तो स्वयं मन्त्र अर्थ रहित हैं तथा बेकार हैं।
अथापि इदमन्तरेण मन्त्रेषु अर्थप्रत्ययो न विद्यते। अर्थ, अप्रतियतो नात्यन्तं स्वरसंस्कारोद्देशः। तदिदं विद्यास्थानम्। व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम्। स्वार्थसाधकं च। यदि मन्त्रार्थप्रत्ययाय, अनर्थकं भवति इति कौत्सः। अनर्थका हि मन्त्राः। तदेतेन उपेक्षितव्यम्। (निरुक्त, १/१५)
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शब्द के ज्ञान के लिए २ पूरक पद्धति हैं-व्याकरण का मूल रूप था शब्दों को मूल ध्वनि रूप अक्षरों में विभक्त करना (तैत्तिरीय संहिता, ६/४/७, मैत्रायणी संहिता, ४/५/८)। लिपि के वर्ण अक्षर और शब्द बनने के बाद इसका अर्थ है-मूल धातु में उपसर्ग और प्रत्यय लगा कर शब्द बनाना।
व्याकरण नियम के अनुसार शब्द की एक ही व्युत्पत्ति है। किन्तु प्रसंग के अनुसार इसके अर्थ बदलते हैं। यह हर भाषा में है। अर्थ बदलने के कारण शब्दों या वाक्यों को निरर्थक नहीं कहा जा सकता है। प्रसंग के अनुसार अर्थ परिवर्तन समझना निरुक्त का उद्देश्य है।
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निरुक्त में ही शब्दों के ४ स्रोत दिये हैं-नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात।
इति इमानि चत्वारि पदजातानि अनुक्रान्तानि नामाख्याते चोपसर्ग निपाताश्च। (निरुक्त, १/१२)
आरम्भ में ब्रह्मा ने सीमित वस्तुओं के ही कर्म और गुण के अनुसार नाम दिये थे। बाद में व्यक्तियों या वस्तुओं के नाम रखे गये जिनमें गुण-कर्म का समन्वय नहीं हुआ या उसका प्रयत्न भी नहीं हुआ। ये नाम रूप शब्द केवल वस्तु विशेष या प्रसंग विशेष के लिए हैं।
आख्यात का अर्थ वर्णन या परिभाषा है। वाक्य में निर्दिष्ट शब्द के अतिरिक्त जो अन्य शब्द हैं, वे प्रायः उसकी परिभाषा हैं।
जैसे ’तन् मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु’ (वाज. यजु, ३४/१)-मन क्या है, जहां सङ्कल्प आदि हो (बृहदारण्यक उपनिषद्, १/५/३)
२. न्याय- शब्दों के समूह (पद, वाक्य) के अनुसार शब्द तथा वाक्य का अर्थ मीमांसा द्वारा होता है।
विषय की व्यवस्था अनुसार तर्क सम्मत अर्थ करना न्याय दर्शन का विषय है। यह गौतम न्याय है। गुहा के भीतर वाक् के ३ पद गो हैं, बाहर व्यक्त होने पर कुछ लुप्त होता है, उसे तम कहते हैं। दोनों का समन्वय गौतम हुआ।
स पर्यगात् शुक्रं, अकायं, अव्रणं, अपापविद्धम् (गो वाक्) कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः (मनीषी उसे परिवेश से जोड़ कर देखता है) याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः (ईशावास्योपनिषद्)
अन्य विषयों तथा शास्त्रों का समन्वय वेदान्त दर्शन का विषय है-चतुः सूत्री (ब्रह्म सूत्र के प्रथम ४ सूत्र)-शास्त्रयोनित्वात् (३) तत्तु समन्वयात् (४)।
तीनों का पूरक उद्देश्य होने से उनको न्याय कहते हैं-मीमांसा न्याय, गौतम न्याय, वैयासिक न्याय।
३. संस्था-प्रसंग के अतिरिक्त विज्ञान के विषयों के अनुसार अर्थ बदलते हैं। इनको संस्था कहा गया है।
सर्वेषा॑ तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् स॑स्थाश्च निर्ममे। (मनु स्मृति, १/२१)
महाभारत, शान्ति पर्व (२३२/२४-२६) में भी है।
संस्था को ७ भागों में बांटा गया है।
यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/२१/४)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि । सप्त योनीरिति चितिरेतदाह । (शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वाज. यजु ,१७/७९)
इनका विभाजन कहीं लिखित नहीं है। गीता, अध्याय ८ में २ प्रकार की ३ संस्था का उल्लेख है-
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥२॥
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः॥३॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥४॥
विश्व संस्था-(क) अध्यात्म-स्वभाव (मनुष्य शरीर के भीतर का विश्व)
(ख) अधिभूत-क्षर विश्व-पृथ्वी पर दीखती क्षय होती वस्तुएं।
(ग) अधिदैव-पुरुष या विश्व रूपी चेतन तत्त्व। परम पुरुष या परब्रह्म से आकाश के ५ पर्व।
तीनों को परस्पर की प्रतिमा कहा गया है। (शतपथ ब्राह्मण, ११/६/१/१२-१३, चरक संहिता, शारीरस्थानम्, ५/२)
कर्म संस्था-(क) ब्रह्म -सम्पूर्ण विश्व। इसमें सूक्ष्म स्पन्दन रूप क्रिया है।
(ख) कर्म-गति रूप। आन्तरिक गति नहीं दीखती है, वह कृष्ण गति है। आत्मा की गति जब पृथ्वी तक ही सीमित रह जाय, तो वह कृष्ण गति है। जब बाह्य लोकों में गति होती है, वह शुक्ल गति है (गीता, ८/२४-२६)।
(ग) यज्ञ-जिस कर्म से चक्रीय क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन हो, वह यज्ञ है।
इनको विश्व, जगत्, जगत्यां जगत् कहा गया है (ईशावास्योपनिषद्, १)
दोनों को मिला कर अन्य प्रकार से तैत्तिरीय उपनिषद्, शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३ में ५ संस्था हैं-अधिलोक, अधिज्यौतिष, अधिविद्या, अधिप्रजा, अध्यात्म।
४. संस्था के शब्द-व्यवहार में अर्थ के लिए संस्थाओं का रूप होगा-
आधिभौतिक-साहित्य (लौकिक), भौगोलिक, इतिहास (निपात), विज्ञान, व्यवसाय।
आधिदैविक (ज्योतिष), आध्यात्मिक (आयुर्वेद, तन्त्र, योग)।
वस्तुओं के नाम भौतिक वस्तुओं के लिए ही दिए गये थे। किसी स्थान पर हर तरह के पदार्थ नहीं है। तथाकथित सिन्धु घाटी की वैदिक सभ्यता में समुद्र सम्बन्धित शब्द नहीं होंगे। रूस की जलवायु के शब्द भारत या अमेरिका में नहीं होंगे। उनके लिए अलग शब्द खोजने पड़ेंगे या पुराने शब्दों का ही अर्थ विस्तार होगा।
इतिहास की घटनाओं के कारण शब्दों के रूढ़ अर्थ हो जाते हैं। यह निपात या प्रचलन है।
विज्ञान के विषयों के अनुसार शब्दों की विशेष परिभाषा होती है।
इन आधिभौतिक अर्थों का विस्तार अदृश्य आध्यात्मिक तथा आधिदैविक विश्व के लिए किया जाता है। इसे वृद्धि कहा गया है (व्याकरण की वृद्धि सन्धि से पृथक्)। भागवत माहात्म्य में कहा गया है कि ज्ञान की उत्पत्ति द्रविड़ में हुई तथा वृद्धि कर्णाटक में। अप् से विश्व की सृष्टि हुई,अतः शब्द सृष्टि का स्थान भी द्रव स्थान या द्रविड़ हुआ। शब्द आदि ५ माध्यमों से श्रुति आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा विश्व का ज्ञान होता है। अतः वेद को शब्द या श्रुति कहते है श्रुति कर्ण द्वारा होता है, अतः अर्थ वृद्धि का स्थान कर्णाटक हुआ।
उत्पन्ना द्रविडे साऽहं वृद्धिं कर्णाटके गता।
क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥
(पद्म पुराण, उत्तर खण्ड, भागवत माहात्म्य, १/४८)
५. वाक् अर्थ प्रतिपत्ति- अर्थ विश्व है (जैसे अंग्रेजी का अर्थ, Earth), उसका शब्द रूप में वर्णन वाक् है। विश्व की सृष्टि अव्यक्त से ५ स्तर या पर्व में हुई है। अन्तिम या पद सृष्टि भूमि है-पद्भ्यां भूमिः (पुरुष सूक्त)। किन्तु शब्द सृष्टि पृथ्वी पर हुई, उसका पृथ्वी के सभी क्षेत्रों तथा अध्यात्म अधिदैव में विस्तार हुआ। अध्यात्म साधना भी विपरीत क्रम से ही है-शरीर से उठ कर अव्यक्त ब्रह्म तक का साक्षात्कार -तदन्नेनातिरोहति (पुरुष सूक्त)-अन्नमय कोष से आत्मामय कोष तक।
६. सनातन वेद, विज्ञान का स्तर-वेद मन्त्र के ऋषि द्वारा साक्षात्कार का जो भी समय हो, उसका अर्थ वर्तमान परिस्थिति के लिए ही होगा। इससे अर्थ समझने में सुविधा भी होती है, तथा अर्थ भेद भी होते हैं। जिसकी शिक्षा का स्तर जैसा होगा वह वेद का उसी स्तर से अर्थ लगायेगा। यूरोप के अशिक्षित समाज के मैक्समूलर, वेबर आदि ने वेद मन्त्रों को अपने संस्कार अनुसार अशिक्षित चरवाहों का गीत मान लिया। किन्तु प्रकृति को देख कर अशिक्षित लोगों के मन में संख्या और माप नहीं आ सकते हैं। जैसे ऋक् (३/९/९) में विशेष अर्थ में ३३३९ देवों का वर्णन एक गणना अनुसार है, जिसकी व्याख्या ब्रह्माण्ड पुराण (१/२३/६७-६९) आदि में है। इसी प्रकार सौर मण्डल की माप ३० धाम तक ऋक् (१०/१८९/३) में है जिसका अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् (३/३/२) के अनुसार होगी, जिसमें कहा है कि पृथ्वी से आरम्भ कर प्रत्येक धाम पिछले का २ गुणा होगा। यही माप पुराणों में अन्य प्रकार से है कि यह सूर्य व्यास का १५७.५ लाख गुणा बड़ा है (विष्णु पुराण, २/८/३)। आधुनिक विज्ञान में यह माप अभी तक नहीं हुआ है। ब्रह्माण्ड की माप भी सूर्य सिद्धान्त (१२/९०, ऋक्, १/१६४/१२) आदि में है। इनको तभी समझा जा सकता है जब विज्ञान के द्वारा उनका अनुमान किया गया हो। शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५) में ब्रह्माण्ड की तारा संख्या की गणना है जिसका अनुमान अभी पिछले ३० वर्षों में ही हुआ है। अतः सायण भाष्य के समय उसका अर्थ करना सम्भव नहीं था। पुरुष सूक्त (३) के अनुसार पूरुष के ४ पाद से १ ही पाद पुरुष रूप विश्व बना है। अनिर्मित विश्व का अनुमान अभी पिछले ३ वर्षों में ही आरम्भ हुआ है। इसके अनुसार पिण्ड रूप ग्रह, तारा, ब्रह्माण्ड केवल ५% हैं, उनके बीच प्रायः खाली स्थान का विरल पदार्थ (अधिष्ठान या अधिपूरुष) १७% है। बाकी अज्ञात पदार्थ प्रायः ७८% है, जिसका अनुमान आकर्षण प्रभाव से किया गया है।
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