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विवाह में भांवर फेरे कितने होने चाहिए ३ या ४ अथवा ७
डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)
(आचार्य सियाराम दास नैयायिक द्वारा) आज कल विवाह में कहीं तो 7 फेरों का प्रचलन है तो कहीं 4 का , इस विषय पर बहुत विवाद सुनने में आ रहा है । राजस्थान, गुजरात और मिथिला आदि प्रान्तों में कई स्थानों में 4 फेरों की परम्परा है और उत्तर प्रदेश आदि कुछ प्रान्तों के कतिपय स्थलों में 7 फेरों की परम्परा | कई कुछ वैश्य परिवारों में मात्र ३ फेरे ही पंडितों पर दबाव डालकर कराये जाते हैं |
हम यहां सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि “फेरे कितने होने चाहिए ?
यहां एक बात ध्यान में अवश्य रखनी है कि सभी बातें शास्त्रों में ही उपलब्ध नहीं होती हैं ।
जैसे — वर वधू का मंगलसूत्र पहनाना,गले में माला धारण करवाना, वर वधू के वस्त्रों में ग्रन्थि लगाना ( गांठ बांधना ),वर के हृदय पर दही आदि का लेपन, ऐसे बहुत से कार्य हैं जो गृह्यसूत्रों में उपलब्ध नही हैं । इन सब कार्यों में कौन प्रमाण है ?
इसका उत्तर है –”अपने अपने कुल की वृद्ध महिलायें ;क्योंकि वे अपने पूर्वजों से किये गये सदाचारों का स्मरण रखती हैं । इसलिए विवाहादि कार्यों में इनकी बात मानने का विधान शास्त्रों ने किया है ।
देखें —शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व शाखा इन दोनों का प्रतिनिधित्व करता है |महर्षि पारस्कर प्रणीत ” पारस्करगृह्यसूत्र” में महर्षि कहते हैं –
“ग्रामवचनं च कुर्युः”-।। 11।।
“विवाहश्मशानयोर्ग्रामं प्राविशतादिति वचनात् ‘।।12।। “तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणमिति श्रुतेः ।।13।।–प्रथमकाण्ड, अष्टमी कण्डिका ।
यहां 11वें सूत्र का अर्थ “हरिहरभाष्य” में किया गया है कि “विवाह और श्मशान सम्बन्धी कार्यों में ( ग्रामवचनं = स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः ) अपने कुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करना चाहिए ।
“गदाधरभाष्यकार”भी यही अर्थ किये हैं । इनमें कुछ बातें जैसे “मंगलसूत्र आदि” इनका उल्लेख इसी भाष्य के आधार पर मैने किया है ।
सूत्र11 में ” च ” शब्द आया है । उससे “देशाचार, कुलाचार और जात्याचार ” का ग्रहण है ।
“चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः –च शब्द जो बातें नहीं कहीं गयी हैं -उनका संकेतक माना जाता है । अत एव ” च शब्दाद्देशाचारोऽपि ” –ऐसा भाष्य श्रीगदाधर जी ने लिखा ।
यहां “अपि” शब्द कैमुत्यन्याय से कुलाचार और जात्याचार का बोधक है ;क्योंकि विवाहादि कार्यों मेंजाति और कुल के अनुसार भी आचार में भिन्नता कहीं कहीं देखने को मिलती है ।
ग्रामवचन का अर्थ “भर्तृयज्ञ ” जो कात्यायन श्रौतसूत्र के व्याख्याता हैं उन्होने लोकवचन किया है –
ऐसा गदाधर जी ने अपने भाष्य में संकेत किया है । इसे लोकमत या शिष्टाचार — सदाचार कहते हैं । यह भी हमारे यहां प्रमाणरूप से अंगीकृत है ।
पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही” प्रमाणाध्याय” रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है । शिष्ट का लक्षण वहां निरूपित है ।
“वेदः स्मृतिः सदाचारः” –मनुस्मृति,2/12,
तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः “–याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है ।
किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2,
पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया ।
यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त “विरोधाधिकरण”-1/3//2/3-4, से स्थापित किया गया ।
इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है । ( इस बात का ध्यान आप सब सुधी जन वाल्मीकि रामायण का प्रमाण पढ़ते समय अवश्य ध्यान में रखियेगा |)
जैसे दक्षिण भारत में मामा की लड़की के साथ भांजे का विवाह आदि ;क्योंकि यह सदाचार
“मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च । समानप्रवरां चैव त्यक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । ।”
इस शातातप स्मृति से विरुद्ध है । भागवत के 10/61/23-25 श्लोकों द्वारा इस विवाहरूपी कार्य को अधर्म बतलाया गया है ।। अस्तु।।
तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति से तद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा । इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है ।
स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –
”विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम्”–पूर्वमीमांसा,1/3/2/3,
सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है । निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है ।
अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं – ३-4 या 7, इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ?
यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है —
“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः “–2/10,
धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं –यह मीमांसकों का सिद्धान्त है — स्मृत्यधिकरण,1/3/1/1-2,
इसी से ३ या 4 अथवा 7 फेरों का निश्चय हो जायेगा ।
विवाह में 4 कर्म ऐसे हैं जिनसे फेरों का सम्बन्ध है । अर्थात् उन चारों का क्रमशः सम्पादन करने के बाद फेरे( परिक्रमा या भांवर ) का क्रम आता है । वे निम्नलिखित हैं —
1-लाजा होम—
इसमें कन्या को उसका भाई शमी के पल्लवों से मिश्रित धान के लावों को अपनी अञ्जलि से कन्या के अञ्जलि में डालता है । कन्या उस समय खड़ी रहती है ।
यदि कन्या के भाई न हो तो यह कार्य उसके चाचा ,मामा का लड़का ,मौसी का पुत्र या फुआ( बुआ -फूफू अर्थात् पिता की बहन ) का पुत्र आदि भी कर सकते हैं–
यह तथ्य श्रीगदाधर जी ने बहवृचकारिका को उद्धृत करके अपने भाष्य में दर्शाया है ।
पारस्करगृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड की छठी कण्डिका में “कुमार्या भ्राता –”–1 में इसका कथन है ।
कन्या के अञ्जलि में लावा है । वर भी खड़ा होकर उसके दोनों हाथों से अपने हाथ लगाये रहता है और कन्या खड़ी होकर ही उन लावों को मिली हुइ अञ्जलि से होम करती है –अर्यमणं देवं –इत्यादि मन्त्रों से ।
ये तीनों मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । अतः इनका अर्थ प्रस्तुत किया जा रहा है –
1-अर्यमणं देवं– सूर्य देव, जो ,अग्निं –अग्निस्वरूप हैं ,उनकी वरप्राप्ति के लिए, अयक्षत –पूजा की है,स–वे,अर्यमा देवः–भगवान् सूर्य, नो–हमें,इतः–इस पितृकुल से , प्रमुञ्चतु –छुड़ायें, किन्तु ,पत्युः –पति से ,मा –न छुड़ायें , स्वाहा — इतना बोलकर कन्या होम करती है ।
आज इस पद्धति का विधिवत् आचरण न करने का परिणाम इतना भयंकर दिख रहा है कि पति या तो पत्नी को छोड़ देता है अथवा पत्नी पति को ।
2-मन्त्र –” आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा।
अर्थ– मे पतिः –मेरे पति, आयुष्मानस्तु –दीर्घायु हों,और मम– मेरे ,ज्ञातयो– बन्धु बान्धव,एधन्तां –बढ़ें ,स्वाहा बोलकर पुनः होम ।
विवाह में इस मन्त्र के छूट जाने का पहला परिणाम “पति असमय ही किसी भी कारण से अकालमृत्यु को प्राप्त होता है । या मृत्यु जैसे कष्टकारी रोगों से आक्रान्त हो जाता है । और पत्नी के पतिगृह पहुंचने के कुछ समय बाद ही बंटवारे की नौबत भी आ जाती है । जो आजकल का तथाकथित सभ्य समाज भुगत रहा है ।
3 मन्त्र –” इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव । मम तुभ्य च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं
स्वाहा ।
हे स्वामिन् ! , तव –तुम्हारी , समृद्धिकरणं –समृद्धि करने के लिए, इमाँल्लाजान् –इन लावों को ,अग्नौ –अग्नि में , आवपामि –मैं डाल रही हूं । मम तुभ्य च — हमारा और तुम्हारा , जो, संवननं –पारस्परिक प्रेम है , तत् –उसका , ये, अग्निः–अग्नि देव, अनुमन्यन्ताम्—अनुमोदन करें अर्थात् सदृढ करें , और, इयं –अग्नि की पत्नी स्वाहा भी , स्वाहा –बोलकर पुनः होम । इस मन्त्र से होम किया जाता है कि दाम्पत्य जीवन सदा प्रेम से संसिक्त रहे ।
पर आज जो पण्डित आधे घण्टे में विवाह करा दे उसे कई शहरों में बहुत अच्छा मानते हैं । इस मन्त्र से होम न करने का परिणाम है –दाम्पत्य जीवन का कलहमय होना ।
अतः विवाहोपरान्त भविष्य में आने वाले इन सभी संकटों को रोकने के लिए हमारे ऋषियों ने हमें जो कुछ दिया । उसकी अवहेलना का परिणाम आज घर घर में किसी न किसी रूप में दिख रहा है ।
अतः वेदों के इन पद्धतियों की वैज्ञानिकता और आदर्श समाज की रचना के इन अद्भुत प्रयोगों को हमें पुनः अपनाना होगा ।
2-सांगुष्ठग्रहण–यह कर्म लाजा होम के बाद वर द्वारा किया जाता है । वह वधू का दांया हाथ अंगूठे सहित पकड़ता है । और ” गृभ्णामि से शरदः शतम् ” तक मन्त्र पढ़ता है ।
इस मन्त्र से वर वधू में देवत्व का आधान होता है । तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्ति की प्रार्थना की गयी है ।
पुत्र वही है जो पुत् नामक नरक से तार दे -पुत् नामकात् नरकात् त्रायते इति पुत्रः ।
इस मन्त्र के छूटने का परिणाम यह है कि आज कल लड़के अपने माता पिता का जीवन नरकमय बना रहे है । तारना तो दूर की बात है ।
3-अश्मारोहण– अग्निकुण्ड के उत्तर की ओर रखे हुए ” पत्थर ” ( लोढ़ा आदि) के समीप जाकर वर वधू के दायें पैर को पकड़कर उस पर रखता है ।
श्रीगदाधर ने अपने भाष्य मे सप्रमाण इसका उल्लेख किया है । और मिथिला मे यह आज भी वर द्वारा किया जाता है |
इस समय वर स्वयं मन्त्र पढ़ता है–”आरोहे से लेकर पृतनायत ” तक ।
इस मन्त्र का अर्थ है कि कन्ये !तुम इस पत्थर पर आरूढ होकर इस प्रस्तर की भांति दृढ़ हो जाओ । और कलह चाहने वालों को दबाकर स्थिर रहो । और उन शत्रुओं को दूर हटा दो ।
यह कर्म कन्या द्वारा आज भी U.P आदि में देखा जाता है । कन्या उस लोढ़े को पैर के अंगूठे से प्रहार करके फेंक देती है ।
यह कर्म अद्भुत भाव से ओतप्रोत है । यह कन्या को हर विषम परिस्थितियों में अविचल भाव देने के साथ ही शत्रुदमन की अदम्य ऊर्जा भी प्रदान करता है ।
4-गाथागान — इसमें एक मन्त्र का गान वर करता है जिसमें नारी के उदात्त व्यक्तित्व की सुन्दर झलक है ।
5- परिक्रमा या फेरे — अब वर वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं । इस समय वर –
”तुभ्यमग्रे से लेकर प्रजया सह ” तक 1 मन्त्र बोलता है ।
1 परिक्रमा (फेरा ) अब पूर्ण हुई |
इसी प्रकार पुनः पूर्ववत् लाजाहोम, सांगुष्ठग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान और 1 परिक्रमा करनी है ।
तत्पश्चात् पुनः वही लाजाहोम से लेकर 1 परिक्रमा तक पूर्वकी भांति सभी कर्म करना है ।
इसका संकेत प्रथम काण्ड की सप्तमी कण्डिका में शुक्लयजुर्वेद के सूत्रकार महर्षि पारस्कर अपने गृह्यसूत्र में करते हैं —
“एवं द्विरपरं लाजादि ” इसका अर्थ ” हरिहरभाष्य और गदा धरभाष्य ” दोनो में यही किया गया कि
“कुमार्या भ्राता —-” –जहां से लाजाहोम आरम्भ है वहां से परिक्रमा पर्यन्त कर्म होता है ।
अब यहां हमारे समक्ष लाजा होम से लेकर परिक्रमा पर्यन्त सभी कर्मों का ३ बार अनुष्ठान सम्पन्न हुआ ।
जिनमें 9 बार लावों की आहुति पड़ी ;क्योंकि १ -१ लाजाहोम में ३ –३ बार कन्या ने पूर्वोक्त मन्त्रों से आहुति दिया है ।
3 बार सांगुष्ठग्रहण, 3 बार अश्मारोहण, 3 बार गाथागान और 3परिक्रमा (फेरे ) सम्पन्न हो चुकी है ।
अब चौथी बार केवल लाजा होम ही करना है। पर इस चौथे क्रम में पहले से कुछ भिन्नता है ।
क्या भिन्नता ?
इसे महर्षि पारस्कर स्वयं सूत्र द्वारा दिखाते हैं —
” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “
—-पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,
कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।
इसके बाद मौन होकर वर और वधु अग्नि की परिक्रमा करते हैं –इसमें “सदाचार “ही प्रमाण है | अर्थात् शास्त्र प्रमाण इसमें नहीं मिलता –
देखें हरिहरभाष्यकार लिखते है –
” ततः समाचारात्तूष्णीं चतुर्थं परिक्रमणं वधूवरौ कुरुतः “|
इसे सर्वसम्मत पक्ष बतलाते हुए गदाधर भाष्य में “वासुदेव ,गंगाधर ,हरिहर और रेणु दीक्षित जैसे भाष्यकारों के नाम का उल्लेख श्रद्धापूर्वक किया गया है |–प्रथम काण्ड ,सप्तमी कण्डिका,६
किन्तु सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । और इस सदाचार के विरुद्ध प्रमाण है ” परम आर्ष ग्रन्थ वाल्मीकिरामायण”–
” त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः”-बालकाण्ड–७३/३९,
महातेजस्वी उन तीनों भाइयों ने तीन बार अग्नि की परिक्रमा करके विवाह किया | अतः इसके विरुद्ध ४ बार भांवर को प्रमाण कैसे माना जाय ?
महर्षि पारस्कर स्वयं भी चौथी परिक्रमा का नाम नहीं लिए |उन्होंने तो केवल चौथी बार लाजा होम का ही नाम लिया है, परिक्रमा का नहीं–
” चतुर्थं शूर्पकुष्ठया सर्वाँल्लाजानावपति–भगाय स्वाहेति। “
पारस्करगृह्यसूत्र,प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका,5,
कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के
अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे ।
आश्चर्य है कि इन विद्वान भाष्यकारों ने शास्त्रविरुद्ध आचार को प्रमाण कैसे मान लिया ? क्योंकि स्मृतिविरुद्ध आचार प्रमाणकोटि में नहीं आता |
अतः पारस्कर गृह्यसूत्र और रामायण के प्रमाण से विवाह में तीन भांवर ( परिक्रमा ) ही सिद्ध होती है |
यह विषय विद्वानों के लिए सुचिन्त्य है |
इस प्रकार शुक्लयजुर्वेद के महर्षि पारस्कररचित ” पारस्करगृह्यसूत्र” और “रामायण” के अनुसार विवाह में ३ फेरे (परिक्रमा )ही प्रमाणसिद्ध है । ४ या 7 फेरे केवल भ्रममात्र हैं । अतः यही मान्य और शास्त्रसम्मत है ।
यदि कोई कहे कि ४ या 7 फेरों का सदाचार हमारी परम्परा में चला आ रहा है और सदाचार का प्रामाण्य सभी ने स्वीकार किया है । अतः यह ठीक है ।तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो । अतः इसके विपरीत ४ या 7 फेरों वाला सदाचार प्रमाण नही है ।
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