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यन्त्र-साधना सर्वसिद्धि का उत्तम द्वार
डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी एम० ए० ,पी-एच० डी०, डी० लिट्० साहित्य-सांख्ययोग-दर्शनाचार्य
Mystic Power –प्राणियों में सब से महत्त्वपूर्ण प्राणी मनुष्य है । मनुष्य का जन्म अनेक सुकृतों के फलस्वरूप होता है। इस जन्म में आकर भी अनेक व्यक्ति व्यर्थ के कार्यकलापों में अपना अमूल्य समय व्यतीत कर देते हैं। ईश्वर कृपा से जो वञ्चित रहते हैं वे कभी सोचते भी नहीं कि हमारा जन्म किस लिये हुआ है ? हमारा कर्तव्य क्या है ? किस महान् लक्ष्य की पूर्ति के लिये हमें अग्रसर होना है ? बस, केवल आहारनिद्राभयमैथुनं च इत्यादि सामान्य बातों में— जो कि पुरुष और पशु में समान रूप से व्याप्त रहती हैं, उनकी प्रवृत्ति रहती है।
बहुत थोड़े लोग ऐसे होते हैं जिन्हें भगवत्कृपा, सद्गुरु कृपा एवं पूर्वपुण्यों अथवा पूर्व संस्कारों के प्रभाव से अच्छे कर्मों के प्रति आग्रह होता है । सदाचार के प्रति झुकाव होता है । सन्मार्ग पर चलने की भावना जागती है। सत्सङ्गति से कुछ जान लेने की, पा लेने की अभिरुचि होती है। उनमें भी कुछ लोग जानकर भी, पाकर भी कुछ कर नहीं पाते। केवल बुद्धि-विलास तक ही उनकी परिचर्याएँ होती हैं। परिचर्या के अन्तर में प्रवेश बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं ।
अब जो लोग कुछ साधना की इच्छा रखते हैं तो उनकी सबसे पहली अपेक्षा होती है— सीधे सरल और निश्चित निर्देश की और यह कार्य सद्गुरु के अधीन होता है। गुरु भी कोई सरलता से नहीं मिल जाते । उनकी प्राप्ति में भी हमारा पुण्योदय ही सहायक होता है। आज कई विद्वानों द्वारा
लिखित ग्रन्थ भी गुरु की कुछ अंशों में पूर्ति करते हैं। उनसे कुछ निर्देश मिल जाते हैं तो यह प्रश्न सामने आता है कि क्या क्या करें ?
क्योंकि मानव जीवन जितना विशाल है उससे कहीं अधिक उस की बाकांक्षाएं हैं। पद-पद पर कोई न कोई कठिनाई अपना बेसुरा राग आलापती खड़ी ही रहती है। प्रायः यह स्थिति बनती ही रहती हैं कि जो सोचते हैं वह दूर चला जाता है और जो कभी सोचा ही नहीं है, वह पास चला जाता है। ऐसी ही स्थिति का उल्लेख करते हुए भगवान् राम ने कहा था-
यच्चिन्तितं तदिह दूरतरं प्रयाति,
यच्चेतसाऽपि न कृतं तदिहाम्युपैति ।
प्रातर्भवामि वसुधाधिप्- चक्रवर्ती,
सोहं वनानि विपिने जटिलस्तपस्वी ॥
“जो सोचा था वह दूर बहुत दूर चला गया। जो मन में भी नहीं आया था वह पास जा रहा है। सोचा था कि में प्रात: होते हो एक बहुत बड़ा पृथ्वीपति चक्रवर्ती बन जाऊंगा, वही में जटा धारण कर तपस्वी के रूप में वन में जा रहा हूं।”
यह स्थिति मानव-जीवन में बहुधा आती ही रहती है । अतः कहा जाता है कि मानव की अपेक्षा और आकांक्षा’ अनन्त व्यापिनी है। मानव को लोभवृद्धि के कारण जितनी आवश्यकता या अपेक्षा होती है, वह वहीं तक इच्छाओं-वाकांक्षाओं को सीमित नहीं रख पाता है। वह तो भविष्य की ओर झांकता हुआ भूत की नींव पर वर्तमान के महल खड़े करता है। इसका फल भी उसे महत्त्वाकांक्षी बनाता रहता है। महत्त्वाकांक्षा कोई दुर्गुण नहीं है और न कोई असम्भव को सम्भव बनाने की वस्तु है। केवल इसके लिए किए जाने वाले प्रयासों का पन्च सत् होना चाहिए। आज के युग मे सन्मार्ग पर चलकर आकांक्षाओं की पूर्ति का प्रयास करना किसी को रचकर नहीं प्रतीत होता अथवा यो कहिए कि सन्मार्ग पर चलने से आकांक्षाओं की पूर्ति होगी इस पर कोई विश्वास ही नहीं करता है। यही कारण है कि लोग कुमार्ग पर प्रवृत्त हो जाते हैं, और अपने पूर्व संस्कारों के कारण कुछ सफलता पा लेने पर उसी मार्ग को अपना वास्तविक मार्ग मान बैठते हैं जो कथमपि ठीक नहीं है ।
ऐसे असत् मार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर ले जाने का कार्य शास्त्रों का है, साधु-सन्तों का हैं, महापुरुषों का है तथा सद्गुरु और सदाचारी पुरुषों का है । ऐसे महापुरुष अपेक्षा और आकांक्षा की पूर्ति के लिए अनेक उपायों का निर्देश करते हैं जिनमें मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र भी महत्त्वपूर्ण हैं । जीवन की यान्त्रिकता में, स्वल्प समय में ही बहुत पा लेने के लिए ‘यन्त्र’ बहुत उपयोगी हैं । यन्त्र के द्वारा सञ्चित ऊर्जा का प्रयोग यथासमय किया जा सकता है । अतः यन्त्रों का संग्रह, उनके प्रयोग-विधान तथा तत्साधन-सम्बन्धी एक निश्चित पद्धति के रूप में यह यन्त्रशक्ति अवश्य ही पाठकों की अपेक्षा और आकांक्षाओं की पूर्ति में पूर्णरूपेण सहायक होगी, ऐसा विश्वास है । ‘यन्त्रशक्ति’ से पूर्व हमने मन्त्रशक्ति और तन्त्रशक्ति नामक दो पुस्तकों की रचना करके प्रकाशित किया है । उनका सर्वत्र समादर ही प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रेरणा का स्रोत है। इसमें हमने अपनी लेखन पद्धति को भी पहले की तरह हो स्वीकृत करते हुए उसमें यथावश्यक परिष्कार लाने का प्रयत्न किया है।
यन्त्र – साहित्य अति विशाल है। इसमें अनेक गहन तत्त्वों का भी समावेश है । “जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ” इस उक्ति के अनुसार हमारे पूर्वमहर्षियों ने अत्यन्त परिश्रम और तप करके इस विद्या के रहस्य को प्राप्त किया था; किन्तु परोपकाराय सतां विभूतयः के अनुसार प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करते हुए उन्होंने शास्त्रों में ऐसे रहस्यों का भी उद्घाटन कर दिया है । उसी में से कुछ प्रसादी गुरुकृपा से प्राप्त होने पर उसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं ।
हमारी मान्यता है कि ये यन्त्र आज के व्यस्त जीवन में अनेक समस्याओं से घिरे हुए मानव के लिए एक उत्तम सहायक बनकर उसकी कठिनाइयों को दूर करेंगे तथा उसकी ‘अपेक्षा और आकांक्षा की पूर्ति में सफल सिद्ध होंगे ।”
हमने अन्यत्र लिखा भी है कि-
नानाऽपेक्षा नराणां प्रतिपदमुदिताः सम्भवन्त्यत्र लोके, किञ्चाकाङ्क्षा अनेका अपि च विदधति प्रत्यहं स्वं प्रसारम् ।
तासामत्रार्थसिद्ध्यं परमसुकरुणावभिरार्येर्मुनीन्द्र- नॅके मार्गाः प्रदिष्टा इह तदनुगतो यन्त्रमार्गो विधेयः ॥
अर्थात् इस लोक में मनुष्यों की अनेक प्रकार की आकांक्षाएं उत्पन्न होती हैं और अनेक अपेक्षाएं भी प्रतिदिन अपना प्रसार करती रहती है। उन सबकी सिद्धि के लिए यहाँ परमकृपालु आर्य ऋषि महर्षियों ने अनेक मार्ग दिखलाए हैं, उनमें से यन्त्रमार्ग भी एक है जिसका आश्रय लेना चाहिए ।
‘यन्त्र-साधना’ एक सरल, सुगम और उत्तम मार्ग है तथा इसकी विधिवत् साधना करने से सभी प्रकार की सिद्धि के द्वार खुल जाते हैं। इसलिये कहा गया है कि-
सर्वासामेव सिद्धीनां यन्त्रसाधनमुत्तमम् । द्वारं शास्त्रषु सम्प्रोक्तं तस्मात् तत् परिशील्यताम् ॥
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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