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व्याकरणशास्त्र का मूलाधार वेद…
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
mysticpower – प्राचीन परम्परा के अनुवार वेद सभी ज्ञान और विज्ञान का स्रोत माना जाता है। वेदों में सभी मौलिक तत्त्वों की उद्भावना की गयी है। कला और विज्ञान की सभी प्रक्रियाओं का सूत्र रूप में वैदिक साहित्य में दर्शन होता है। केवल व्याकरण ही नहीं, अपितु दर्शन, विज्ञान, गणित, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, आचारशास्त्र, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान, आयुर्वेद आदि का यथास्थान विस्तृत विवरण मिलता है। महर्षि दयानन्द ने इसी प्राचीन ऋषि-सम्मत व्यवस्था का उल्लेख आर्यसमाज के तृतीय नियम में किया गया है कि- ‘वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है।’ महर्षि दयानन्द के इस कथन की पुष्टि हमें सबसे पहले वास्क के निरुक्त और पतंजलि कृत महाभाष्य में उपलब्ध होती है।
“दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धामनृतेऽद्धात् श्रद्धां सत्ये प्रजापतिः ।।”
( यजु० १९/७७ )
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इसमें प्रथम वैयाकरण प्रजापति अर्थात् परमात्मा को माना गया है। उसने ही सर्वप्रथम सत्य और अनृत का व्याकरण (विवेचन, विश्लेषण) किया। तात्त्विक दृष्टि के द्वारा उसने सत्य में श्रद्धा (ग्राह्यता) और असत्य या अमृत में अश्रद्धा (त्याज्यता या हेयता) रखी। यही सत्य और असत्य का विश्लेषण बाद में प्रकृति और प्रत्यय का विश्लेषण होकर व्याकरण बना। यही प्रकृति और प्रत्यय का विश्लेषण प्रकृति (प्राकृतिक तत्त्व, धातु का अंश या स्थूल तत्त्व) और प्रत्यय (ज्ञान, सूक्ष्म तत्त्व) का दार्शनिक विवेचन होकर व्याकरण-दर्शन को जन्म देता है। इसमें शब्दब्रह्म वाक्य और पद का तात्त्विक विवेचन प्रस्तुत किया जाता है।
वेदों के आविर्भाव के बाद ही इस बात की आवश्यकता अनुभव की गई कि वेदों की पूर्ण रूप से सुरक्षा का प्रबन्ध हो। वेदों की सुरक्षा मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण, उनके अर्थ का ठीक-ठीक निर्धारण और परिज्ञान तथा उनके विनियोग आदि के लिए ६ अंगों की उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैं शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । इनमें भी व्याकरण को वेदरूपी पुरुष का मुख माना गया है। ‘मुखं व्याकरणम् स्मृतम् ।’ जिस प्रकार मुख व्यक्ति के भावों और विचारों का प्रकाशन करता है, उसी प्रकार व्याकरण वेदमंत्रों के भावों को स्पष्ट करता है। अतएव महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के ५ उद्देश्यों में से सर्वप्रथम उद्देश्य वेदों की रक्षा बताया है ।
“रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्।”( महाभाष्य नवा०१ )
व्याकरण के अन्य उद्देश्य:- १. ऊह (तर्क)- यथा-स्थान विभक्ति-परिवर्तन, वाच्य परिवर्तन आदि,
२. आगम स्तुता मया वरदा वेदमाता० आदि वैदिक आदेशों की पूर्ति,
३. लघु-संक्षिप्त ढंग से शब्द-ज्ञान,
४. असन्देह-सन्देह का निवारण, ये सभी मुख्यरूप से वैदिक साहित्य के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं ।
महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में सर्वप्रथम इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। कि व्याकरण का उद्भव वेदों से ही हुआ है। वेदों में सर्वप्रथम व्याकरण के मौलिक तत्त्वों का उल्लेख मिलता है।
उदाहरणार्थ-
“चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महो देवो मर्त्या आविवेश ।।”
( ऋग्० ४/५८/३)
इस मन्त्र का महर्षि यास्क ने निरुक्त १३.७ में यज्ञपरक अर्थ किया है। किन्तु पतंजलि ने महाभाष्य में इसका व्याकरण-परक अर्थ किया है। शब्द (व्याकरण)-रूपी वृषभ के चार सींग हैं – नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग और निपात। इसके तीन पैर हैं- तीन काल अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्य इसके दो सिर हैं- प्रथमा आदि सात विभक्तियां । यह तीन स्थानों पर बंधा हुआ है- उरस् (छाती), कण्ठ और सिर। यह शब्द ही महादेव है और मनुष्यों में सर्वत्र व्याप्त है। इस मन्त्र में व्याकरण के आवश्यक अंगों का विवेचन हुआ है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसमें वर्णोच्चारण के लिए आवश्यक तीनों अंगों का उल्लेख पाया जाता है । वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने इस महादेव को शब्दब्रह्म या परमेश्वर कहा है। व्याकरण को जानने वाला उस महादेव का सायुज्य प्राप्त करता है।
” अपि प्रयोक्तुरात्मानं, शब्दमन्तरवस्थितम् ।
प्राहुर्महान्तमृषभं येन सायुज्यमिष्यते ।।”
( वाक्य०१/१३२)
ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में वाणी के व्यक्त और अव्यक्त चार रूपों पर प्रकाश डाला गया है।
“चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति, तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।।”
( ऋग्०१/१६४/४५)
यह मन्त्र अथर्ववेद ९/१०/२७, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/८/५, शतपथ ब्राह्मण ४/१/३/१७, निरुक्त १३/९ में भी आया है। यास्क ने भी चत्वारि की व्याख्या में लिखा है। कि- ‘कतमानि तानि चत्वारि पदानि । नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्चेति वैयाकरणाः, (निरुक्त १३/९) । इसी आधार पर पद-विभाजन चार रूप में किया जाता है- नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। वाणी के तीन भेद परा पश्यन्ती और मध्यमा ये सूक्ष्म रूप में रहते हैं। वैखरी नामक वाणी का चतुर्थ भेद प्रयोग में आता है और इसके द्वारा ही लोक- व्यवहार चलता है । परा वाणी शब्दब्रह्मरूपी है। इसकी प्राप्ति निर्विकल्प समाधि का विषय है।
एक अन्य मंत्र में व्याकरण के ज्ञान का महत्त्व बताते हुए कहा है कि जो व्याकरण को नहीं जानता, वह वाणी को देखता हुआ भी नहीं देखता है और उसे सुनता हुआ भी नहीं सुनता है। परन्तु जो वाक्तत्त्व को जानता है और शब्दवित है, उसके लिए वाणी अपने स्वरूप को इसी प्रकार प्रकट करती है, जैसी स्त्री अपने स्वरूप को अपने पति के लिए-
“उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे, जायेव पत्य उशती सुवासाः ।।”
( ऋग्०१०/७१/४)
ऋग्वेद में व्याकरण के द्वारा विवेचन और विश्लेषण की उपमा चलनी द्वारा सत् छानने से दी गयी है। जिस प्रकार चलनी द्वारा छानकर उपयोगी अंश ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार व्याकरण के द्वारा शब्द परिष्कृत करके तात्त्विक रूप में ग्रहण किया जाता है। शब्द-परिष्कार ब्रह्म-परिष्कार है, अतः शब्दब्रह्म के उपासक के मुख में श्री का निवास बताया गया है। इस मन्त्र में यह भी संकेत किया गया है कि व्याकरण वस्तुतः सत्य और असत्य का विवेचन करके सत्य अंश को अपनाने का आदेश देता है।
” सक्तुमिव तितउना पुनन्तो, यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते, भद्रैषां लक्ष्मीनिहिताधिवाचि ।।”
( ऋग्० १०/७१/२)
एक अन्य मन्त्र में सात सिन्धुओं के रूप में सात विभक्तियों का उल्लेख किया गया है। ये सदा तालु को प्राप्त होकर प्रकाशित होते हैं। इसमें वर्णोच्चारण में होने वाले स्थान और प्रयत्नों की ओर संकेत किया गया है। सात विभक्तियां शब्दरूपों की सूचक हैं।
” सुदेवो असि वरुण, यस्य ते सप्त सिन्धवः ।
अनुक्षरन्ति काकुदं, सूयं सुषिरामिव ।।”
( ऋग्०८/६९/१२ )
व्याकरण एवं भाषाविज्ञान के एक महत्त्वपूर्ण अंग अर्थविज्ञान की ओर भी वेद में विशेषरूप से ध्यान आकृष्ट किया गया है। अर्थज्ञान के बिना मन्त्र-ज्ञान व्यर्थ है। अर्थज्ञान से ही अभीष्ट की सिद्धि होती है।
” ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्त इमे समासते ।।”
( ऋग्० १/१६४/३९, अथर्व० ९/१०/१८, तै०ब्रा० ३/१०/९/१४ तै०आ० २/११/१, निरुक्त १३/१० )
इसी अभिप्राय को पतंजलि ने निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त किया है-
“यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव शब्द्यते ।
अनग्नाविव शुष्कैथो न तज्ज्वलति कर्हिचित् ।”
(महा० आ०१)
अर्थज्ञान और उच्चारण- शुद्धि पर जितना महत्त्व वेद और व्याकरण ने दिया है, उससे न केवल बाह्य शुद्धि, अपितु उससे आन्तरिक शुद्धि होती है। शब्द ब्रह्म का प्रतीक है। शब्द-शुद्धि आन्तरिक शुद्धि का आधार है। आन्तरिक शुद्धि शब्द-तत्त्व, वाक्-तत्त्व या ब्रह्म के साक्षात्कार का साधन है। अतएव पतंजलि और भर्तृहरि ने उसके महत्त्व पर बल देते हुए कहा है कि- ‘एक शब्द का ठीक ज्ञान और ठीक ढंग से प्रयोग मनुष्य की स्वर्गप्राप्ति का साधन है। ठीक अर्थज्ञान और उसके ठीक प्रयोग के द्वारा अनन्त विजय प्राप्त होती है।
“एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामथुगु भवति।”
( महा० ६/१/८४)
” यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे, शब्दान्यथावद् व्यवहारकाले ।
सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र, वाग्योगविद दुष्यति शब्दः ।”
( महा०आ० ०१ )
भर्तृहरि ने अतएव शब्दज्ञान और उसकी शुद्धि को परमात्मा की प्राप्ति का साधन माना है।
” तस्माद् यः शब्दसंस्कारः, सा सिद्धिः परमात्मनः ।
तस्य प्रवृत्ति तत्वज्ञः, तद् ब्रह्मामृतमश्नुते ।।”
( वाक्य० २/१३३.)
भर्तृहरि ने स्पष्टरूप से वेदों को सभी ज्ञानों का और विशेष रूप से व्याकरण का आदिस्रोत माना है। उनका कथन है कि वेदत्रयी बीजरूप से सभी आगमों का आधार है।
“न जात्वकर्तृकं किंचिदागमं प्रतिपद्यते ।
बीजं सर्वागमोपाये, अय्येवादी व्यवस्थिता।।”
(वाक्य० १/१३४)
यजुर्वेद में वेदत्रयी के स्वरूप का संकेत किया गया है कि ऋग्वेद में व का विवेचन है, यजुर्वेद में मनस्तत्व का और सामवेद में प्राणतत्त्व का। इस प्रकार तीनों वेद वाक्तत्त्व, मनस्तत्व और प्राणतत्त्व का विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं।
“ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये ।”(यजु० ३६/१ )
व्याकरणदर्शन में जिस शब्दब्रह्म वाक्तत्त्व या स्फोटब्रह्म का वर्णन किया गया है. उसका सूक्ष्म रूप में उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अतएव ऋग्वेद को बाद कहा गया है । इस कथन की पुष्टि अनेक ब्राह्मण-ग्रन्थों के वाक्यों से होती है। ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋग्वेद को वाक्तत्त्व का स्वरूप माना गया है।
“वागेव ऋग्वेदः ।”( शतपथ० १४/४/३/१२.)
” वागिति ऋक् । ‘(जै०ठप० १/९/२ )
“वागेव ऋचश्च सामानि च मन एव यजूंषि ।” (शत० ४/६/७/५)
मनस्तत्व और वाक्तत्त्व के समन्वय से ही वैखरी वाणी का आविभाव होता है। मनस्तत्व सूक्ष्म तत्त्व है और वाक् उसका स्थूल रूप है। अतएव मन शब्द का आन्तरिक रूप प्रकट करता है और वाणी उसे स्थूल रूप देकर लोकोपयोगिता की दृष्टि से उपयोगी बनाती है। ये मन और वाणी ही उस शब्दब्रह्म की अभिव्यक्ति के साधन हैं। इसको ही ब्राह्मण ग्रन्थों में अनेक प्रकार से प्रतिपादित किया गया है। वाक्, मन और प्राण इन तीनों के विभाजन के आधार पर वेदों का वेदत्रयों के रूप में विभाजन है। ब्राह्मण- ग्रन्थों में इसका इस रूप में प्रतिपादन है-
” त्रेधा विहिता हि वाग् ऋचो यजूंषि सामानि ।”
( शत० ६/५/३/४ )
“वागू वै मनसो ह्रसीयसी ।”( शत० १/४/४/७)
“अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरेव हि वाक् ।”( शत० १/४/४/७)
” मनो ह पूर्वं वाचो यद्धि मनसाभिगच्छति तद् वाचा वदति ।”( तांड्य०१/१/१/३ )
वाणी और मन एक दूसरे से अविभाज्य हैं, अतः इन्हें मिथुन या जोड़ा कहा गया है। इसी प्रकार वाणी का प्राणतत्त्व से घनिष्ठ संबन्ध है। इसको ब्राह्मण ग्रन्थों में इस रूप में प्रस्तुत किया गया है।
“वाग्वै मनश्च देवानां मिथुनम् ।”
( ऐत० ५/२३)
” तस्य (मनसः) एषा कुल्या यद् वाक्।”( जै० उप० १/५८/३)
” वाक् च प्राणश्च मिथुनम् ।”(शत० १/४/१/२)
वाक्तत्त्व के इस महत्त्व का वर्णन बहुत विस्तार से ऋग्वेद मंडल १० के १२५ सूक्त में किया गया है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान के प्रोफेसर सईस (A.H. Sayce) ने साइंस आव् लैंग्वेज भाग १ के पृष्ठ १ पर ऋग्वेद के इस सूक्त पर भाषा विशेषज्ञों का विशेष ध्यान आकृष्ट किया है। सईस का कथन है कि इन मन्त्रों में वैदिक ऋषि का वाक्तत्त्व के विषय में जो वक्तव्य है, वह बहुत ही गम्भीर विचारपूर्ण, भाषाविज्ञान की दृष्टि से सत्य और बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण है। इस सूक्त का ऋषि वाक्- आम्भृणी है। इसमें वाक्तत्त्व का विस्तृत वर्णन है। इसमें वाक्तत्त्व का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि वाक्तत्त्व ही विश्व का उद्भव-स्थान है, वही संसार की सृष्टि करता है। उसका ही महत्त्व है कि संसार में ज्ञान की ज्योति है। वही मानव को ऋषि, देवता, सन्त, कवि, विद्वान और महर्षि बनाता है। वहीं विश्व में नाना भाषाओं का रूप धारण करके भावों के आदान-प्रदान का आधार बना हुआ है ।
“अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा, भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ।।
(ऋग्० १०/१२५/३)
” अहमेव स्वयमिदं वदामि, जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि ,तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। ”
(ऋग्० १०/१२५/५ )
“अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एवा पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ।।”
( ऋ १०/१२५/८ )
भर्तृहरि ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्ति किया है-
“शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः ।
छन्दोग्य एव प्रथममेतद् विश्वं व्यवर्तत ।।”
( वाक्य० १/१२१ )
व्याकरण का मूल आधार शब्दव्युत्पत्ति है। वेदों के अनेक मंत्रों में शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट रूप से दी गई है। इसके द्वारा इस बात पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है कि अमुक स्थान पर इस शब्द या धातु का इस अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस धातु का यह अर्थ है । यहाँ पर यह धातु और यह प्रत्यय है। इस प्रत्यय का किस अर्थ में प्रयोग हुआ है। उस शब्द के नामकरण का क्या आधार है ? इत्यादि का स्पष्टीकरण स्वयं वेद से ही हो जाता है। जैसे-
“यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ।”
( ऋग्०१/१६४/५०)
यज्ञ शब्द यज् धातु से है।
“वृत्रं हनति वृत्रहा ।”( यजु० ३३/९६ ।) वृत्रहन्= वृत्र+हन् ।
“केतपूः केतं नः पुनातु ।”(यजु० ११/७ ।)
केतपू= केत+पू ।
“उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते ।” (अथर्व० ३/१३/४ )। उदक=उद्+अन्।
ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्याकरण का और विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है। ओम् की निरुक्ति पर गोपथ ब्राह्मण का वक्तव्य अनुशीलन के योग्य है ।
“ओंकारं पृच्छामः, को धातुः,किं प्रातिपदिकम् किं नामाख्यातम्, किं लिङ्गम्, किं वचनम्, का विभक्तिः, कः प्रत्ययः, कः स्वर उपसर्गो निपातः, किं वै व्याकरणम् को विकारः, को विकारी, कतिमात्रः, कतिवर्णः, कत्यक्षरः, कतिपदः, कः संयोगः, किं स्थान- नादानुप्रदानानुकरणम्० ।” (गोपथब्राह्मण १/१/२४)
गोपथ ब्राह्मण के कथन से ज्ञात होता है कि उस समय व्याकरण अपने व्यवस्थित रूप को प्राप्त हो चुका था। सभी आवश्यक प्रश्न और विवेचन गोपथ के कथन में संनिहित हैं।
मैत्रायणी संहिता में विभक्ति संज्ञा का उल्लेख प्राप्त होता है ।’ तस्मात् षड् विभक्तयः”, मैत्रा० १/७/३ । इसमें विभक्तियों की संख्या ६ बताई गई है। ऐतरेय ब्राह्मण में वाणी का विभाजन ७ भागों (विभक्तियों) में किया गया है। “सप्तधा वै वागवदत् “(ऐत० ७/७) । ब्राह्मण ग्रन्थों में शब्दों के निर्वचन के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि वेद न केवल व्याकरण का ही आदिस्रोत है, अपितु वेद व्याकरणदर्शन और भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र का भी आधार है।
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