काशी मुक्ति
श्री अरुण कुमार उपाध्याय -(धर्मज्ञ)
Mystic Power- १. ब्रह्म प्राप्ति-मुक्ति केवल ब्रह्म साक्षात्कार से होती है-मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते। (गीता, ८/१६)
परमां तं परावतमिन्द्रो नुदतु वृत्रहा।
यतो न पुनरायति शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (अथर्व, ६/७५/२)
(वृत्रहा) त्रिविध ताप नाश करने वाला, (इन्द्रः) ब्रह्म रूप, (परमां परावतम्) ब्रह्मादि लोकों से दूर, (तम्) परम धाम (गायत्री मन्त्र का तत्-सविता), (नुदतु) प्रदान करे, (यः – गायत्री मन्त्र में यः) आत्मा (शश्वतीभ्यः समाभ्यः) अनन्त काल तक (न पुनः आयति) लौटता नहीं है।
ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी सञ्चरन्ति।
तेषामज्यानिं यतमो वहाति तस्मै मा देवा परि धत्तेह सर्वे॥ (अथर्व, ६/५५/१)
= जो द्यौ और पृथिवी के बीच देवयान मार्ग से जाते हैं, उन अजन्मा लोगों को देव वहन कर लोकों से ले जाते हैं, मुझे वह परम देव सर्व प्रकार धारण करें।
तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः (बृहदारण्यक उपनिषद्, ६/२/१५) = परम ब्रह्मलोक में बसने वाले की पुनरावृत्ति नहीं होती।
गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं-स्रष्टा रूप ब्रह्मा, तेज रूप में दृश्य विष्णु जिसका रूप सूर्य है, तथा ज्ञान रूप शिव। ज्ञान रूप शिव के द्वारा मुक्ति होती है-
कुरुते गंगासागर गमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनं सर्वमतेन मुक्तिं न लभति जन्म सतेन॥ (शंकराचार्य-मोहमुद्गर)
शिव के स्थान को काशी या कैलास कहा गया है।
२. आध्यात्मिक कैलास-आध्यात्मिक रूप में ५ कोष, मेरुदण्ड के ५ चक्र शिव के ५ मुख हैं। ५ वायु को भी शिव रूप कहा है। मस्तिष्क के भीतर वाम-दक्षिण २ भाग हैं जिनको २ सुपर्ण कहा गया है। इन २ हंसों के परस्पर सम्बन्ध (वार्ता) से १८ प्रकार की विद्या होती है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वावत्ति, अनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति॥
(मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक्, १/१६४/२०, अथर्व, ९/९/२०)
सुषुम्ना चेतना या ज्ञान का वृक्ष है। उसके मध्य (आज्ञा चक्र) में २ सुपर्ण (हंस, पक्षी) रहते हैं (परिषस्वजाते-पड़ोस में)। उनमें अन्य (एक) पिप्पल (पिब् + फल = जिस फल में आसक्ति हो) को स्वाद सहित खाता है। अन्य (दूसरा) बिना खाये (बिना आसक्ति = अनश्नन्) केवल देखभाल करता है।
समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥ (शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)
संवित्-कमल को बाइबिल में ज्ञान का वृक्ष कहा है। मस्तिष्क में जो सूचनाओं का संग्रह है, वह अप् = जल है। उसके भीतर से क्रमबद्ध ज्ञान (जो वाक्य में लिखा जा सके) दूध जैसा उपयोगी है। यही मन के हंस द्वारा जल से दूध निकालना है। भौतिक रूप में मान सरोवर का हंस जल में दूध के मिश्रण से दूध नहीं निकाल सकता।
मस्तिष्क के वाम-दक्षिण दोनों भागों के २-२ भाग हैं। ये शिव के ४ मुख हुए- ईशान, तत्पुरुष, तत्पुरुष, सद्योजात। बीच का अघोर मुख है, जिसमें ये लय होते हैं, या जो इनका समन्वय करता है। आज्ञा के दोनों तरफ के भागों का परस्पर सम्बन्ध से ही १८ प्रकार की विद्या आती है (शिव के ४ मुखों का समन्वय-मालिनी विजयोत्तर तन्त्र, गोपीनाथ कविराज का-तान्त्रिक साधना और सिद्धान्त, अध्याय १)
भ्रूमध्य के पीछे आज्ञा चक्र के ऊपर इड़ा-पिङ्गला-सुषुम्ना का मिलन त्रिकूट कहते हैं। इसी त्रिकूट या कैलास पर शिव-पार्वती (२ हंस रूप) के संवाद से सभी विद्याओं की उत्पत्ति हुयी है। शिव पार्वती के ज्ञानमय रूप को कई प्रकार से लिखा गया है-श्रद्धा-विश्वास, जिज्ञासा-अनुसन्धान, गुरु-शिष्य। भौतिक रूप में हिमालय (त्रिविष्टप् = स्वर्ग) का कैलास, काशी तथा दक्षिण का काञ्ची भी त्रिकूट पर हैं। काशी में इनको त्रिकण्टक (३ बाधा, दुर्ग) कहा गया है-गंगा, वरुणा, असि (कृत्रिम दुर्ग)। काशी का संकल्प है-गौरीमुखे त्रिकण्टक विराजिते अविमुक्त वाराणसी क्षेत्रे (शिवपुराण, कोटिरुद्र संहिता, अध्याय २२, देवीभागवत पुराण, ७/३८, ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/६७/६२, मत्स्य पुराण, १८१, १८४/३३, लिङ्ग पुराण, १/९२/१४२, स्कन्द पुराण, ४/१/२६)। केवल काशी में निवास से मुक्ति नहीं होती है। इन भौतिक स्वरूपों से समझाया गया है कि आज्ञा चक्र तक स्वयं साधना से पहुंचते हैं। उसके बाद त्रिकूट (या शिव का त्रिशूल) पर स्थित शिव रूपी गुरु का आश्रय लेना पड़ता है।
३. आधिदैविक कैलास-ब्रह्मचर्य कैलास से विश्व की सृष्टि हुयी जिसका वर्णन शिव पुराण में है।
शिव पुराण, विद्येश्वर संहिता, अध्याय १७-
अधर्म महिषारूढं कालचक्रं तरंति ते। सत्यादि धर्मयुक्ता ये शिवपूजा पराश्च ये॥८४ ॥
तदूर्ध्वं वृषभो धर्मो ब्रह्मचर्य स्वरूप धृक्। सत्यादि पाद युक्तस्तु शिवलोकाग्रतः स्थितः॥८५॥
क्षमा शृङ्गः शम श्रोत्रो वेदध्वनि विभूषितः। आस्तिक्य चक्षुर्निश्वास गुरु बुद्धि मना वृषः॥८६॥
क्रियादि वृषभा ज्ञेयाः कारणादिषु सर्वदा। तं क्रिया वृषभं धर्मं कालातीतोऽधितिष्ठति ॥८७॥
ब्रह्म विष्णु महेशानां स्वस्वायुर्दिनमुच्यते। तदूर्ध्वं न दिनं रात्रिर्न जन्म मरणादिकम्॥८८॥
पुनः कारण सत्यान्ताः कारण ब्रह्मणस्तथा। गंधादिभ्यस्तु भूतेभ्यस्तदूर्ध्वं निर्मिताः सदा॥८९॥
सूक्ष्म गन्ध स्वरूपा हि स्थिता लोकाश्चतुर्दश। पुनः कारण विष्णोर्वै स्थिता लोकाश्चतुर्दश॥९०॥
पुनः कारण रुद्रस्य लोकाष्टाविंशका मताः। पुनश्च कारणेशस्य षट्पञ्चाशत्तदूर्ध्वगाः॥९१॥
ततः परं ब्रह्मचर्य लोकाख्यं शिव संमतम्। तत्रैव ज्ञान कैलासे पञ्चावरण संयुते॥९२॥
पञ्च मण्डल संयुक्तं पञ्च ब्रह्म कलान्वितम्। आदि शक्ति समायुक्तमादि लिंगं तु तत्र वै॥९३॥
शिवालयमिदं प्रोक्तं शिवस्य परमात्मनः। परशक्त्या समायुक्तस्तत्रैव परमेश्वरः॥९४॥
= जो सत्य-अहिंसा आदि धर्मों से युक्त हो कर भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे अधर्म रूप भैंसे पर आरूढ़ काल-चक्र को पार कर जाते हैं। कालचक्रेश्वर की सीमा तक जो विराट् महेश्वर लोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभ आकार में धर्म की स्थिति है। वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान् रूप है। उसके सत्य, शौच, अहिंसा, दया-ये ४ पाद हैं। वह शिवलोक से आगे स्थित है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं, वे वेदध्वनि रूप शब्द से विभूषित हैं। आस्तिकता उनके दोनों नेत्र हैं, निःश्वास उनकी श्रेष्ठ बुद्धि तथा मन है। क्रिया आदि धर्म रूप वृषभ सदा कारण आदि में स्थित है। क्रिया रूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की अपनी-अपनी आयु को दिन कहते हैं। जहां धर्म रूपी वृषभ की स्थिति है, उसके ऊपर न दिन है, न रात्रि और वहां जन्म-मरण आदि भी नहीं है। फिर कारणरूप ब्रह्मा के भी कारण सत्यलोक पर्यन्त १४ लोक हैं जो पाञ्चभौतिक गन्ध आदि से परे हैं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है। इसके ऊपर कारण रूप विष्णु के १४ लोक स्थित हैं। उनसे ऊपर कारण रूप रुद्र के २८ लोक हैं। उनसे ऊपर कारणेश शिव के ५६ लोक हैं। उसके बाद शिव सम्मत ब्रह्मचर्य लोक है। वहीं ५ आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास है। वहां पर ५ मण्डल, ५ ब्रह्म कला और आदिशक्ति से संयुक्त आदि लिङ्ग है। यह परमात्मा शिव का शिवालय है जहां पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं।
ब्रह्मा के ७ लोक हैं-(१) भू = पृथ्वी ग्रह, (२) भुवः-सौर मण्डल की ग्रह कक्षा, (३) स्वः = सौर मण्डल, (४) महः = आकाशगंगा की सर्पाकार भुजा में सूर्य के चारों तरफ उसकी मोटाई का गोल जिसमें १००० तारा हैं, (५) जनः लोक = ब्रह्माण्ड, जिसमें चक्र जैसी आकाश गंगा घूम रही है, (६) तपः लोक = जहां तक का ताप आ सकता है, जिसकी त्रिज्या ब्रह्मा के दिन-रात ८६४ करोड़ वर्ष में प्रकाश की गति है। (७) सत्य लोक= अनन्त आकाश।
कारण लोक में हर लोक में पिण्ड तथा खाली आकाश मिला कर १४ लोक हैं।
उसके कारण विष्णु के लोकों में कर्ता-करण (पुरुष-प्रकृति) विभाजन से २८ लोक हैं।
कारणेश रुद्र में विमर्श (विचार स्रोत और ग्रहण) भेद से २८ लोक हैं।
पहले हिरण्यगर्भ था जिससे ५ महाभूत बने। उसका चेतन तत्त्व परमशिव है जिसने सृष्टि की इच्छा (ईक्षा, सिसृक्षा) की। इक्षा तथा हिरण्य गर्भ तेज मिला कर परमशिव-पराशक्ति हैं।
हिरण्यगर्भ को विश्व का उल्ब (गर्भनाल) या मेरु (आधार) भी कहा गया है। यही दिव्य या ब्रह्मचर्य कैलास है।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्। यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥३॥
यस्य द्यौरुर्वी पृथिवी च मही यस्याद उर्वऽन्तरिक्षम्। यस्यासौ सूरो विततो महित्वा कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा समुद्रे यस्य रसामिदाहुः। इमाश्च प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(ऋक् १०/१२१/१,४-६, अथर्व ४/२/३-५, ७)
(यह अथर्व पाठ है। ऋक् पाठ थोड़ा अलग है, पर एक ही अर्थ है) आरम्भ में हिरण्यगर्भ (हिरण्य = स्वर्ण, तेजपुञ्ज, गर्भ = जन्मस्थान) था। उसने पृथ्वी (३ भूमि या सीमाबद्ध पिण्ड, जो ३ माता हैं) तथा द्यौ (३ आकाश या पिता) को धारण किया। वह सभी भूत (निर्मित विश्व, पञ्चमहाभूत से) का पति था। उस क (कर्त्ता, करतार) के लिए हम हवि (गृहीत पदार्थ जिससे निर्माण हो) देते हैं। रुदन का अर्थ रोना है, अश्रु की तरह सूर्य जैसे ताराओं से तेज निकलता है। सूर्य तेज का क्षेत्र रोदसी है। सभी ताराओं का संयुक्त रोदन क्रन्दन है। उनका क्षेत्र ब्रह्माण्ड है जिसमें १०० अरब तारा हैं। ये दोनों हिरण्यगर्भ से नीचे (अंश रूप) हैं, जिनकी सीमा पर वह है। द्यौ (आकाश) उर्वी (पृथिवी), मही (पृथिवी के आकर्षण आदि प्रभाव का विस्तार) उसी से हैं। सुर (निर्माण योग्य प्राण) या देव उसी से हैं। इस विश्व में जैसे हिमवन्त के बाहु विस्तार से समुद्र तक मही की माप है, उसी प्रकार विश्व तक जिसकी बाहु का विस्तार है, उस क को हवि देते हैं। कालिदास ने भी कुमारसम्भव के आरम्भ में हिमालय को पृथ्वी का मापदण्ड कहा है।
इनका विस्तार से वर्णन अथर्व वेद के सर्वाधार सूक्त तथा ज्येष्ठ-ब्रह्म सूक्तों (१०/७-८) में है, जिनमें २०० से अधिक मन्त्र हैं।
यही वर्णान् ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३/२५-२९), कूर्म पुराण (१/४/३६-४०), भागवत पुराण (५/२५, १-२) में भी है।
४. आधिभौतिक काशी-भौगोलिक रूप से भारत के ३ लोक हैं-विन्ध्य के दक्षिण भू लोक, विन्ध्य-हिमालय के बीच भुवः या मध्यम लोक (रघुवंश, २/१६), हिमालय स्वः लोक है-त्रिविष्टप् (तिब्बत) का अर्थ स्वर्ग है।
हिमालय में कैलास, मध्य में काशी, दक्षिण में काञ्ची शिव के स्थान हैं।
हिमालय में ३ विटप हैं-पश्चिम में विष्णु विटप का जल सिन्धु नद से होकर सिन्धु सागर (वर्तमान नाम अरब सागर) में जाता है। मध्य में शिवविटप (शिव जटा) का जल गंगा हो कर गंगा सागर (वर्तमान नाम बंगाल की खाड़ी) में जाता है। गंगासागर पर प्रभुत्व रखने वाले ओड़िशा राजाओं को गंग कहते थे। पूर्व में ब्रह्म विटप है, जिससे ब्रह्मपुत्र नद निकलता है तथा उसके पूर्व ब्रह्मदेश (बर्मा, म्याम्मार = महा + अमर) है। तीनों विटप का केन्द्र कैलास है।
मध्य भारत में शिव का स्थान काशी है। इसके ३ कण्टक हैं-गंगा, वरुणा (पश्चिम के लोकपाल वरुण) तथा कृत्रिम कण्टक असि (तलवार, दुर्ग) है। काशी राज्य की पूर्व सीमा सोण नद, गण्डक नदी, पश्चिम सीमा प्रयाग का त्रिवेणी संगम, सरयू नदी, उत्तर सीमा हिमालय तथा दक्षिण में विन्ध्य पर्वत है।
यह काशी ही हिरण्यगर्भ क्षेत्र था। आकाश में हिरण्यगर्भ अर्थात् तेज-पुञ्ज से सृष्टि हुई। उससे ५ महाभूत बने तथा जीवन का विकास हुआ। हमारी पूजा भी इसी क्रम में होती है, जिसका प्रतीक कलश है। उसमें ५ महाभूतों के प्रतीक कलश में हैं। क्षिति का रूप ठोस कलश है, उसमें जल तथा खाली स्थान वायु है, तेज का प्रतीक दीप है। इन सबका स्थान आकाश है। अन्त में जीवन के आरम्भ के रूप में आम का पल्लव रखा जाता है। इन सब का मूल स्रोत हिरण्य-गर्भ है जिसके प्रतीक रूप में ताम्बे का पैसा डालते हैं तथा उस समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक्, १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद, १३/४, २३/१, अथर्व, ४/२/७)
= हिरण्यगर्भ (तेज-पुञ्ज) सबसे पहले हुआ था, वही भूतों (५ महाभूत) का एक पति था। उसने पृथिवी तथा आकाश को धारण किया। उस क (कर्त्ता) रूपी देवता को हम हवि द्वारा पूजते हैं।
छिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित यह अधम सरीरा॥ (रामचरितमानस, किष्किन्धा काण्ड, १०/२)
पृथ्वी पर वैदिक सभ्यता का विकास भारत से हुआ, जिसका केन्द्र काशी था। यहां ज्ञान रूपी तेज का केन्द्र होने से इसे काशी कहा गया। काश का अर्थ दीप्ति है (काशृ दीप्तौ-पाणिनीय धातुपाठ १/४३०, ४/५१) परिधि से बाहर जो निकला वह प्रकाश है। यह हिरण्य-गर्भ क्षेत्र होने से इसकी पूर्व सीमा की नदी का नाम हिरण्य-बाहु (सोन-शोणो हिरण्यबाहुः स्यात्-अमरकोष) है। यहां भूतों के पति शिव का केन्द्रीय स्थान या आम्नाय भी है। यहां सबसे पहले ज्ञान का समवर्तन हुआ था, अतः वर्तते (बाटे) धातु का प्रयोग यहीं होता है। बाकी विश्व में अस्ति का प्रयोग है। पश्चिमी भाग में अस्ति का (आहे) तथा (है) हो गया है। पूर्वी भाग में यह अछि हो जाता है। अग्रेजी में यह इष्ट (ist) था जो बाद में इज (is) हो गया। इस कर्त्ता रूपी देवता को हम हवि देते है।
महादेव के वृषभ से यज्ञ होता है। उस के अन्न से जो क्षेत्र पूर्ण हो, उसे भोजपुरी कहते हैं-
देवानां माने (निर्माणे) प्रथमा अतिष्ठन् कृन्तत्रा (अन्तरिक्ष, विकर्तन = मेघ) देषामुत्तराउदायन्।
त्रयस्तपन्ति (त्रिशूल) पृथिवी मनूपा (जल से भरा क्षेत्र) द्वा (वायु + आदित्य) वृवूकं वहतः पुरीषम् (बुरबक या मूर्ख बहाते हैं पुरीष या मल)। (ऋग्वेद, १०/२७/३०) = यह वाराणसी (त्रिशूल पर स्थित) देवों की प्रथम पुरी है, जहां वर्षा, जल, अन्न भरा है। पुरी का अर्थ है जल, अन्न से भरा (निरुक्त, २/२२)
दक्षिण भारत द्रविड़ अर्थात् व्यापार से प्राप्त धन का क्षेत्र था। अतः वहां की काशी को काञ्ची (कञ्चन = स्वर्ण) कहते हैं।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: