शक्तितत्त्व और अवतारवाद
(डॉ० श्यामाकान्त जी द्विवेदी, एम०ए०, एम्०एड्०, पी-एच०डी०, डी०लिटू०)-
mysticpower- जब भगवान् किसी विश्वव्यापी एवं दुर्निवार्य आपदा से मानव जाति को मुक्त करने के लिये साकार विग्रह ग्रहण करते हैं तो उस विग्रह को ही अवतार कहते हैं। यथा-
मत्स्यावतार, कच्छपावतार (कूर्मावतार), नृसिंहावतार, वराहावतार, रामावतार, कृष्णावतार आदि।
अवतार के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए भगवान् श्रीकृष्ण (गीता ४।७-८)-में कहते हैं-
यदा यदा हि धर्मस्थ ग्लानिर्भवात भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्थ तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
इस प्रकार सामान्य रूप से अवतार के चार उद्देश्य होते । यथा-
१-धर्महासकी स्थितिमें उसका अभ्युत्थान,
२-सज्जनों एवं पुण्यात्माओं की आपदाओं से रक्षा,
३-दुष्टों एवं अत्याचारियों का संहार
४- धर्म की संस्थापना।
रूपातीत शक्ति का रूपात्मक विश्वावतार
रूपातीत पराशक्ति ही सिसृक्षा के वशीभूत होकर विश्व के रूप में आकार ग्रहण कर लेती है।
‘सैब क्रियाविमर्शःस्वस्था क्षुभिता च विश्वविस्तार:’ (महार्थमञ्ञरी गाथा-११)
आत्मशक्ति के विषयमें भी यही कहा गया है। आत्मा ‘खलु विश्वमूल तत्र प्रमाणं न कोउप्यर्थयते। ( महार्थमञ्जरी)
सारी सृष्टि कुण्डलिनीशक्तिकी ही अभिव्यक्ति है-
‘सृष्टिस्तु कुण्डली ख्याता।’
देवी होकाग्र आसीत् सैव जगदण्डमसृजत्। कामकलेति विज्ञायते। श्रृज्ञारकलेति विज्ञायते।’ (ब्रह्स्चोप्निषद)
एकमात्र देवी ही सृष्टि से पूर्व थीं, उन्होंने ब्रह्माण्ड की सृष्टि की। वे कामकला के नामसे विख्यात हैं, वे हो
श्रंगारकला कहलाती हैं।
एकका बहुत हो जाना ही तो जगत् है-‘एकोउह बहु स्याम।
जगत् भगवान् का आदि अवतार है-‘आधयोअवतारः पुरुषः परस्य! ‘स्वेच्छया स्वमित्तो विश्वमून्मीलयति।’
(प्रत्यभिज्ञाहदयम् सूत्र २)
‘चिद्रपा भगवती स्वतन्त्ररूपसे, निर्विकाररूपसे अनन्त
विश्वोंके रूपमें स्फुरित होती हैं–
चिद्रूपा भगवती स्वच्छ स्वतन्त्ररूपा तत्तदनन्त- स्फुरति।‘ (प्रत्यभिज्ञाहदयम् सूत्र २)।
चिदात्मा स्वयं ही “अहम्’ होकर भी ‘इदम्’ रूप से प्रकट हो जाती हैं।
शक्तितत्त्व की परात्परता-
शक्तितत्त्व से बढ़कर कोई भी नहीं है। शक्तिमान् भी तभी तक शक्तिसम्पन्न हैं, जब तक शक्ति से सम्बद्ध हैं। शिव शब्दके ‘श’ में ‘इकार’की मात्रा ही शक्ति है, यदि इकार निकाल दिया जाय तो शिव शवमात्र रह जायँगे। शक्ति के बिना शिव हिल भी नहीं सकते-
शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि।
(सौन्दर्यलहरी)
परमात्मा भी शक्ति से रहित होने पर सृष्टि, स्थिति तथा लय आदि में अशक्त रहता है, किंतु जब वह शक्ति से युक्त हो जाता है; तब शक्त-समर्थ हो जाता है-
‘परोsपि शक्तिरहितः शक्त्या युक्तो भवेधादि।
सृष्टिस्थितिलयान् कर्तुमशक्त: शक्त एवं हि॥
(वामकेश्वरतंत्र)
शिवसूत्रकार की दृष्टि
-त्रिकदर्शनके मूल प्रवर्तक आचार्य वसुगुप्त कहते हैं कि शक्ति (क्रियाशक्ति)-का स्फुरणरूप विकास ही विश्व है-
स्वशक्तिप्रचयोsस्य विश्वम्।
(शिबसूत्र ३३०)
शिवका विश्व उनकी अपनी शक्ति से निर्मित है।
संविदात्मा शिवकी शक्तिका जो प्रचय या क्रियाशक्तिरूप स्फुरण या विकास है, वही विश्व है-
शिवस्य विश्व स्वशक्तिमयं तथा अस्यापि स्वस्या:
संविदात्मना: शक्ते: प्रचय: क्रियाशक्तिस्फुरणरूपो बिकासो विश्वम्।‘ (शिवसूत्रविमर्शिनी ३।३०)
आचार्य भास्करराय की दृष्टि- आचार्य भास्करराव कहते हैं कि शिव में विश्व की सृष्टि, पालन एवं संहारको
क्षमता केवल शक्ति के कारण है। उसी शक्ति का ही परिणाम चारों सृष्टियाँ-अर्थमयी, शब्दमयी, चक्रमयी एवं देहमयी
हैं।
नैसर्गिकी स्फुरत्ता विमर्शरूपास्य वर्तते शक्ति:।
‘तधयोगादेब शिवो जगदुत्पादयति पाति संहरति॥
(वरिवस्यराहस्यम)
सावश्वं विज्ञेया यतपरिणामादभुदेषा। अर्थमयी शब्द्मयी
चक्रमयी देहमय्यपि च सृष्टि:॥‘ (वरिवस्यारहस्यम् ५)
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