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स्वस्ति वाचन
अरुण कुमार उपाध्याय ( धर्मज्ञ )-
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
(ऋग्वेद १/८९/६, यजुर्वेद, २५/१९)
शाब्दिक अर्थ-वृद्धश्रवा इन्द्र हमारा स्वस्ति= कल्याण करें। इसी प्रकार विश्व के ज्ञाता पूषा, तार्क्ष्य (गरुड़) अरिष्टनेमि (विष्णु) और धारण कर बृहस्पति भी कल्याण करें।
आधिदैविक अर्थ- यहां ४ दिशाओं के ४ नक्षत्र हमारा कल्याण करते हैं।
वृद्धश्रवा-श्रवा = कर्ण का विस्तार-कुण्डल आकृति के ३ तारा, ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी इन्द्र।
पूषा-रेवती नक्षत्र का स्वामी, रेवती मण्डल की पूर्णता, ३२ दांत के आकार में ३२ तारा। विश्व-वेदाः (विश्व को जानने वाला)
तार्क्ष्य = त्रि+ऋक्ष = ३ तारा का त्रिचरण आकार में श्रवण नक्षत्र, स्वामी गोविन्द। यह अरिष्ट या सूर्य की दक्षिणायन गति की सीमा है। नेमि उत्तरायण गति की सीमा है, जब सूर्य कर्क रेखा पर रहता है। पृथ्वी का अक्ष झुकाव बदलने के कारण कर्क रेखा वर्तमान से उत्तर कै स्थानों पर थी, इनकी सीमा नैमिषारण्य है। सूर्य जब निमि पर होता है उस समय से मिथिला राजा निमि के समय से पञ्चाङ्ग आरम्भ होता था। आज भी वहां श्रावण मास से पञ्चाङ्ग शुरु होता है।
बृहस्पति का पुष्य नक्षत्र जो पोषण कर धारण करता है।
भौतिक अर्थ-इन्द्र राजा है, बृहस्पति गुरु, पूषा पोषण देने वाला तथा विष्णु पालन कर्त्ता। रक्षक राजा, ज्ञानदायक गुरु, पालन कर्त्ता विष्णु और पोषक पूषा कल्याण करें।
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