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‘सरस्वती’ शब्द की निरुक्तं गत व्याख्या।
शशांक शेखर ‘शुल्ब’ (धर्मज्ञ)-
mystic power –सरस्वती शब्द का अर्थ है-वाक् तथा सार (तत्व)। यह रस् धातु से निष्पन्न होता है। रस (भ्वा. पर. रसति शब्दों, चुरा. उभ. रसयति ते स्वादे) + अच् = रस-शब्द, स्वाद । सह + रस = सरस 【 हस्य लोपः 】- शब्दयुक्त, स्वाद युक्त। सरस + मतुप् + ङीप् = सरस्वती = सरस्वती सतत शब्दयुक्त, स्वादयुक्त। जिह्वा से स्वाद लिया जाता है तथा शब्द किया जाता है। जिह्वा से स्वाद लिया जाता है तथा मुख कोटर में जिहा के संचालन से शब्द किया जाता है। अतः सरस्वती = जिह्वा की अधिष्ठात्री शक्ति = वाक्, रस।
‘वाग्वै ब्रह्म’ तथा ‘रसो वै सः- ये उपनिषद् वाक्य हैं। अतः सरस्वती = ब्रह्म रस = सर सर ।+ अञ् अपत्यर्थे = सार। सरस्वती = सार सार = विश्व का निचोड़ = विश्व बीज = परम तत्व / परमाशक्ति। इस शक्ति को मैं प्रणाम करता हूँ।
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शक्ति के तीन रूप हैं। व्यास का वचन है…
“ब्रह्माविष्णुशिवा ब्रह्मन्प्रधाना ब्रह्मशक्तयः ।”
[हे ब्रह्मन् । ब्रह्मा, विष्णु और शिव- ये बहा की प्रधान शक्तियाँ हैं ।]
” शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः ।”
[ जिस देव की ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव रूपा शक्तियाँ हैं ।]
इस वचन से स्पष्ट है-सरस्वती ब्रह्म वा देव है; बह्म विष्णु शिव इसके तीन रूप / पर्याय हैं। एक में तीन अथवा तीन में एक = सरस्वती। यह सरस्वती सर्वोपरि सत्ता है, सर्वोच्च शक्ति है, पर ब्रह्म है, पुरुष है, मूल प्रकृति है। सरस्वती है सत्य। यह सत्य वाक् रूप में मुख से फूटता है। यही वाक् अक् यजु साम एवं अथर्व के मन्त्रों के रूप में वेद कहलाता है। इस वेद को वैदिक ज्ञान को मैं आदरसहित अंगीकार करता हूँ। वेदाय नमः ।
यह वेदवाणी है…
(१).” सरस्वती देवयन्तो हवन्ते,
सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।
सरस्वती सुकृतो हवन्ते,
सरस्वती दाशुषे वार्य दात् ॥”
( अथर्ववेद १८ । १ । ४१)
अन्वर…देवयन्तः सरस्वतीम् हवन्ते तायमाने (तायमनतः) अध्वरे सरस्वतीम् हवन्ते ।
सुकृतः सरस्वती हवन्ते। सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् (ददाति) |
देवयन्तः = दिव्यत्व (स्वर्ग यश ज्ञान प्रकाश) की कामना करने वाले = ब्राह्मणाः द्विजाः विद्वांसः ।
दिव् (दीव्यति) + शतृ = देवत् + जस् देवयन्तः ।
तायमाने = तायमन्तः। ताय् (भ्वा.पर. आ. तायते सन्तानपालनयोः संरक्षण करना पालन करना विस्तारः करना) + मतुप् + जस्। प्रजापालक गृहस्थ लोग।
अध्वरः = अहिंसक्रतु ।ध्वृ(भ्वा पर ध्वरति हिंसा करना, टेढ़ा करना बिगाड़ना उत्पात करना) + अच् = ध्वरः । न ध्वरति कुटिलो न भवति, हूर्च्छनं न करोति इति अध्वरः । नञ् + ध्वरः = अध्वरः अथवा, अध्वानं सत्ययं राति इति अध्वरः । अध्वन्+रा+क ।अध्वन्= मार्ग ।अद् + क्वनिप् दकारस्य धकारः = अध्वन्। इस प्रकार अध्वरः अहिंसक सन्मार्गदर्शक कर्म। यज्ञ। = सावधान (शब्द कल्पद्रुमे ।
सुकृतः = सु + कृ + क्त। त्वष्टा कुशल कर्मकार। सगुणी पुण्यात्मा धर्मात्मा पवित्रात्मा भाग्यशाली।
वार्यम् = वृ + ण्यत्। आशीर्वाद, वरदान। सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य ।
दाशुषे = दा + युष् + क्विप् + ङे।तपस्वी के लिये त्यागी के लिये ।जो अपना सर्वस्व न्यौछावर करता, दान कर देता, अपने को सुखाता, क्षीण करता वह दाशुष है। दा= ददाति मनः। शुष्= शुष्यति अहंकारम्। स एव तपी त्यागी दानी वा जो अपने मन को पराशक्ति सरस्वती को दे देता है अर्थात् सरस्वती का ध्यान, अभ्यास, चिन्तन, मनन करता है तथा, जो अपने अहंकार को सुखा देता, क्षीण कर देता अर्थात् अपने को सरस्वती के प्रति पूर्णतः समर्पित कर देता है, वहीं दाशुष है।[ चतुर्थी एक वचन पुलिंग= दाशुषे |]
दात् = ददाति प्रदान करती है।[लट् प्र. पु. एक वचन |]
हवन्ते = प्रार्थना / याचना करते हैं। हू (हवते भ्वा. आ) + लट् प्र. पु. बहुव
मन्त्रार्थ- विद्वान् लोग सरस्वती की उपासना करते हैं।[यज्ञपरायण]
गृहस्थ लोग सरस्वती की आराधना करते हैं। [सुकर्मा]
भाग्यशाली जन सरस्वती की साधना करते हैं। [तपी]
त्यागी व्यक्ति को सरस्वती माता धन धान्य ऐश्वर्य रूप आशीर्वाद प्रदान करती है
(२).”सरस्वती पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणाः ।
आसद्यास्मिन् बर्हिषि मादयध्वमनमीवा इष आ धेह्मस्मेमे ।।”
(अथर्ववेद १८ । १ । ४२)
अन्वय-दक्षिणा यज्ञम् (यज्ञे) अभिक्षमाणाः पितरः सरस्वतीम् हवन्ते (सरस्वति ।) अस्मिन् बर्हिषि आसद्य मादयध्वम्, (त्वम्) अस्मे अनमीवा: इष: आ-धेहि ।
नक्षति व्याप्तिकर्मा निघण्टु २ । १८ ।
नक्ष गतौ शोभायाम् भ्वा. आ. + शानच् = नक्षमाण: (व्याप्त होते हुए, शोभायमान)। पा पाति रक्षति + तृच् =पितृ + जस्= पितरः [ गृहस्थी माता पिता पति पत्नी ]
दक्षिणा यज्ञम् अभिक्षमाणाः पितरः= दक्षिणा युक्त यज्ञों में दत्तचित्त गृहस्थ लोग।
सरस्वतीम् हवन्ते= सरस्वती को उपासते (प्राप्त करते) हैं।
बर्ह (ध्वा. आ. बर्हते) चुरा उभः बर्हयति -ते प्राधान्यै विस्तारे भाषायाम् हिंसायाम् बोलना, देना, ढकना, क्षति करना, मारडालना फैलाना) + कर्मण इस् बर्हिस कुश घास, कुशासन, आग प्रकाश, दीप्ति, जल, यज्ञ ।बर्हिषु + ङि = बर्हिषि ।
अस्मिन् बर्हिषि = इस यज्ञ / पवित्रकर्म/जीवन में।
सद् (तुदा पर सीदति बैठना बस जाना) + यत् =सद्य।
आ + सद् + यत्= आसद्य समुपस्थित निकटस्थ सम्प्राप्त संयुक्त संलग्न ।
मद् दिवा. पर. मद्यति मस्तहोना आनन्द मनाना प्रसन्न होना, चुरा आ. मादयते तृप्त करना तुष्ट करना प्रसन्न करना भवा. पर मदति हर्षित होना श्रान्त होना थक जाना।
मादयध्वम् = मद् प्रेर. आ. लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन ।
आसद्य मादयध्वम् = अन्तः करण में प्रकट होकर आनन्दित करें, सन्तुष्टि प्रदान करें।
अम् (भ्वा पर. अमति चुरा पर आमयति- गतौ, रोगे च) + धञ् भावे = अम-रोग, कच्चा + ङीष् = अमी ।वा वाति गतौ + इ = वः, सम्प्रसारण वाः = अशुभ, राहु (अज्ञान) आदि।
अनमीवाः= अन् +अमी + वाः। रोग का अभाव एवं अज्ञान का अभाव।
इषः = ईष (तुदा. पर. इच्छति कामना करना स्वीकृति देना) + अच् संकल्प, बल, शक्ति ।
अस्मे=अस्मासु,हम में।
आ धेहि = आ + धा धारणपोषणयोः जुहो. पर. लोट् मध्यम पुरुष एक वचन स्थापित करो।
मन्त्रार्थ दक्षिणाओं वाले यज्ञों में संलग्न गृहस्थाश्रमी सरस्वती की उपासना करते हैं। उनके इस यज्ञमय जीवन में आ कर हे सरस्वती तू उन्हें सन्तुष्टि दे, आनन्द से युक्त कर हे देवी तू हम सब के भीतर आरोग्य एवं शक्ति संस्थापित कर ।
(३).”सरस्वती या सरथं ययाथोक्थैः
स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
सहस्रार्थमिडो अत्र भागं।
रायस्योषं यजमानाय धेहि ॥”
( अथर्ववेद १८ । १ । ४३)
सरस्वति ! या सरधम् ययाध उवथैः
स्वधाभिः देवि । पितृभिः मदन्ती
सहस्र अधर्म ईड: अत्र भागम्
रायः पोषम् यजमानाय धेहि ।
इस मन्त्र में, जीवन में टिकने वालों तथा कभी भी क्षीण न होने वाली सम्पत्ति की याचना सरस्वती से की गई है।
अन्वय-सरस्वती । या (त्वं) उक्थैः स्वधाभिः पितृभिः सरथम् ययाथ । देवि । अत्र इडः राय भागम् पोषम् सहस्रार्धम् यजमानाय धेहि।
रम् (रमते भ्वा. आ) + क्थन् =रथः रम्यतेऽनेन अत्र वा ।रथ के अर्थ हैं-काय, शरीर, अवयव, अंग, वाहन, यान, पैर, किरण रश्मि।
सरथम् = सहरथम्। सशरीर, सदेह, अवयवों से युक्त, सपाद, सयान, सचल, प्रकाशमयी, दीप्तिमती, ज्ञानरूप ।
पितृभिः = पितृ + भ्यस् पालक लोगों के द्वारा माता, पिता, विद्या दाता, अन्नदाता, भयत्राता-ये पाँच पितर है।
“जनको जननी चैव यश्च विद्यां प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पञ्चते पितरः स्मृताः ॥”
स्वधाभिः = स्वधा + भ्यस् अन्न नाम स्वधा निघण्टु २ । ७
अन्नों के द्वारा, अन्नों की आहुति वा दान के द्वारा।
उक्थैः= वच् + धक् + भ्यस् कथनों / वाक्यों / स्तात्रों के द्वारा, सूक्तों से, स्तुतियों से।
या = जो यद् + सु स्त्री तू सरस्वती ।
ययाथ = या अदा पर प्रापणे + अनद्यतन भूत लिट्लकार मध्यम पुरुष एक वचन प्राप्त किया।
यजमानाय = यजमान के लिये। यज् (यजति ते यज्ञ करना, त्याग-पूर्वक पूजा करना) + शानच् + ङे। जो व्यक्ति नियमित रूप से यज्ञ करता है और उसका व्यय भार स्वयं वहन करता है, तथा वह व्यक्ति जो अपने लिये यह करवाने के लिये पुरोहित को नियुक्त करता है, को यजमान कहते हैं आतिथेयी, संरक्षक, कुल प्रधान भी यजमान हैं।
इडः=इल् (चुरा. उभ. एलयति ते प्रेरणे)+ अच्। प्रेरणा प्रोत्साहन ।इल् (तुदा. पर .इलति स्वप्नश्रेणयोः सोना फेंकना विखेरना) + अच् ।निद्रा (प्रशान्ति), विस्तार (यश)। लस्य डः ।
रायः= रै + जस्। सम्पत्तियाँ। रा राति डैरै, जो देय हो, दान योग्य हो, वह है है | 【 राः रायौ रायः ।】
भागम् = भा भाति + गम् गच्छति क्विप् आनन्द, सौन्दर्य, ज्ञान।
पोषम् = पुष् (पोषति, पुष्यति, पुष्णाति) + घञ्। पुष्टि, वृद्धि, समृद्धि, प्रगति, पोषण, संधारण, संपालन, संवर्धन, प्राचुर्य, बाहुल्य ।
सहस्त्रार्धम् =सहस्र + अर्धम् ।सहस्रम् अर्थम् सहलार्धम् द्विगु समास सहस्र- हजार असंख्य बहुत । सह मर्षणे + असि = सहस्र। शक्ति बल कान्ति चमक। सहस् + रन्= सहस्रम्। अर्घ (भ्वा पर. अर्धति पूजायाम् मूल्ये च) + घञ्= अर्धम् ।सम्मान, आदर, मूल्य
यहाँ सहस्रार्थम् का अर्थ हुआ प्रचुर सम्मान, अति आदर, जयजयकार।
घेहि =धाञ् धारणपोषणयोः जुहो. पर लोट् मध्यम पुरुष एक वचन । = धत्तात् स्थापित करो, प्रदान करो।
मन्त्रार्थ– हे सरस्वती माता तू स्तुतियों-सूक्तों से, स्वधा-अन्नों (की आहुतियों) से माता-पिता- आचार्य तथा अन्य गुरु जनों से सशरीर साक्षात् (प्रकाशवपुषा ज्ञान रूप से मेरे द्वारा प्राप्त की गई हो। हे देवी माता । यहाँ (इस जीवन में) मुझे प्रेरणा, यश, शान्ति, सम्पत्ति, ज्ञान, आनन्द, सौन्दर्य, वृद्धि, प्रगति, पुष्टि, प्राचुर्य, (वस्तुओं का बाहुल्य, प्रचुर मान, अति आदर, प्रदान कर।
सरस्वती केवल ज्ञान की देवता नहीं है, यह सर्वदेवमय है। इससे क्या नहीं मिलता 7 इसमें वेद मन्त्र प्रमाण हैं। मैं अपनी ओर से क्या कहूँ ?
सरस्वती शुभ है। अग्नि का प्रकाशक रूप ही सरस्वती है। सारा संसार इसी की पूजा करता है। होली जलाना यज्ञ करना दीपक जलाना मोमबत्ती जलाना बल्ब (विद्युद्दीप) जलाना, राड (विद्युद्दण्ड) जलाना और इनके प्रकाश में क्रियानुष्ठानादि सम्पन्न करना हो सरस्वती पूजा है। दीप जलाना यज्ञ है, जिसमें तेल/घृत, रुई की बत्ती की आहुति दी जाती है। जो सदा इस यज्ञ को करता है, उसे रै श्री की प्राप्ति होती है। एक कथा कहता हूँ- महाराष्ट्र में वामन पण्डित हुए हैं। वे दिन-रात घी का दीपक जला कर अपने सामने रखते थे। वे यश के भूखे थे, शास्त्रार्थ करते थे, सब को हराते थे। किसी ने उनसे कहा कि समर्थ गुरु सन्त रामदास को हराइये तो जानूँ आप दिग्विजयी हैं। लोकेषणा उन्हें सन्त रामदास के पास ले गई। उन्होंने शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। सन्त को विवाद में क्या पड़ना ? उन्होंने ने बिना शास्त्रार्थ किये अपनी हार मान लिया। सन्त की हार में उसकी जीत होती है। वामन पण्डित ने कहा, लिख कर दीजिये कि आप हार गये। इसी बीच एक घटना घटी एक दीनहीनमूर्ख व्यक्ति आया रामदास ने पूछा, तुम कौन हो ? उसने कहा, मैं शूद्र हूँ। रामदास ने चार रेखाएँ पृथ्वी पर खींचा और उस शूद्र से उन्हें लाँघने के लिये कहा। प्रथम रेखा को पारकरने पर उसने कहा, मैं वैश्य हूँ। द्वितीय को लांघने पर क्षत्रिय तथा तृतीय को पार करने पर ब्राह्मण, उसने अपने को बताया। चौथी रेखा लाँघते ही उसने अपने को बहर परमात्मा कहा और शास्त्रार्थ के लिये ललकारा उसके तेज को वामन पण्डित नहीं सह सके। उनका अहंकार इसे देख कर चूर-चूर हो गया। वे सन्त रामदास के चमत्कार से प्रभावित हो उनके शिष्य बने। अन्ततः उनका दीप जलाना सार्थक हुआ। अहंकार हनन एवं सन्त शरण हो मुक्ति है। मुक्तये नमः ।
सन्त की शरण में जाने से अष्टम भाव का भय आनन्द स्वरूप हो जाता है। सन्त वही है जिसमें पाखण्ड न हो, जो सहज सामान्य हो तथा जिस को देखने स्मरण करने मात्र से चित्तवृत्तियाँ रुक जायें, मन शान्त हो जाय, हृदय गद हो जाय। ऐसे संत की शरण में मैं नित्य हूँ।
पूजा दो प्रकार से होती है जान कर ज्ञानपूर्वक बिना जाने अज्ञानपूर्वक सरस्वती की पूजा करना है तो उसे जाना जाय अब में सरस्वती के प्रारूप का अवलोकन करता हूँ।
सरस्वती=स र स् व ती।
=स् अ र् अ स् व् अ त् ई।
=९अवयवात्मक
= पूर्ण ब्रह्म।
सरस्वती शब्द मे ९ वर्ण【२स्+१र्+१व्+१त्+३अ+१ई】हैं।इसमें ४ व्यजंन स् र् व् त् ४ तत्वों के द्योतक तथा स्वर आकाश है।
स्वर = मात्रा। स्वर = अकार। अ-आ, अि-अ, अ-अ, अ-अ, ओ-औ- दसों दिशाओं में व्याप्त आकाश तत्व है। सरस्वती का शरीर पञ्च तत्वात्मक है.
अ = आकाश [ई कार भी अकार का रूप होने से ईश / आकाश है ।]
स् = समीर (वायु)।
त्= तडित् (अग्नि)।
र्=रस (जल)।
व् = वसुमती (पृथ्वी)।
सरस्वत में ई कार न होने से केवल अकार का बाहुल्य है। अतः सरस्वत = सरस्वती। इस प्रपञ्च का नाम सरस्वती है। यही विष्णु शिव वा ब्रह्म है। अस्यै सरस्वत्यै नमः ।
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