भगवान् सदाशिव का दानधर्मोपदेश
डॉ. मदन मोहन पाठक (धर्मज्ञ)-
Mystic Power- भगवान् साम्बसदाशिव की अनन्तानन्त गुणावलियों में से गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी ने उनकी आशुतोषता, दानशीलता, उदारता, अवढरदानीपन तथा भक्तप्रियता आदि गुणों को मुख्यता दी है। वे कहते हैं कि भगवान् शंकर के समान दानी कहीं नहीं है, वे तो दीनदयाल हैं, देना ही उनके मन को भाता है और माँगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं—
दानी कहे संकर-सम नाहीं ।
दीन दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥
(विनय पत्रिका ४)
एक अन्य पद में तुलसीदासजी कहते हैं- हे शंकर ! आप बड़े देव हैं, बड़े दानी हैं और बड़े भोले हैं, जिन जिन लोगों ने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बिना भेद- भाव के उन सब लोगों के दुःख दूर कर दिये-
देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे । किये दूर दुख सबनिके, जिन्हें जिन्हें कर जोरे ।।
(विनय पत्रिका ८)
संसार में माँगने वाला किसी को अच्छा नहीं लगता, किंतु भगवान् शंकरजी तो ऐसे भोले हैं कि उन्हें याचक ही अच्छे लगते हैं और वे आशुतोष अवढरदानी हैं। जो जो कुछ चाहता है, माँगता है, वह सब सहज ही दे देते हैं और इससे ब्रह्माजी को बड़ा कष्ट होता है, वे श्रीपार्वतीजी के पास जाकर अपना दुःखड़ा सुनाते हुए कहने लगे—हे भवानी! आपके नाथ (शिवजी) बावले-से हैं, सदा देते ही रहते हैं, जिन लोगों ने कभी किसी को दान देकर बदले में पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगों को भी वे दे डालते हैं, जिससे वेद की मर्यादा टूटती है। आप बड़ी सयानी हैं, अपने घर की भलाई तो देखिये, शिवजी तो अनधिकारियों को भी सब कुछ दे देते हैं, जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति तो उनको भी स्वर्ग का स्थान दे देते हैं, जिससे मेरे लिये स्वर्ग सजाते सजाते नाकों दम आ गया है। दीनता और दुःख को कहीं रहने की जगह नहीं रह गयी है, याचकता तो व्याकुल हो उठी है, आपके पति तो मेरी लिखी भाग्यलिपि ही बदल देते हैं, अब मुझसे यह कार्य नहीं होगा, यह कार्य किसी और को सौंपिये। ब्रह्माजी की ऐसी प्रेम भरी वाणी सुनकर महादेवजी मन-ही- मन मुदित हुए तथा माता पार्वती मुसकराने लगीं-
बावरी रावरो नाह भवानी।। दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद बड़ाई भानी ॥
निज घरकी बरबात विलोकह, ही तुम परम सयानी। ! सिक्की दई संपदा देखत, श्री सारदा सिहानी ॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी। तिन रेकनकी नाक सेवारत, ही आयो नकबानी ॥
दुख दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी। यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली में जानी ॥
प्रेम-प्रसंसा विनय व्यंगजुत, सुनि बिधिको बर बानी । तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत मातु मुसुकानी ।।
(विनय पत्रिका ५)
भगवान् शंकर के इसी भोलेपन और दानशीलताको कवितावली में इस प्रकार दर्शाया गया है-
नागो फिर कई मागनो देखि ‘न खाँगो कछू जनि मागिये धोरो। किनि नाकप रीनि करै तुलसी जग जो जुरै जाचक जोरो ॥
नाक सैवारत आयो ही नाकहिं, नाहि पिनाकिहि नेकु निहोरो ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो धोरो ।।
ब्रह्माजी कहते हैं-हे पार्वति! तुम अपने पति को समझा दो – यह बड़ा बावला और भोला दानी है। देखो, स्वयं तो नंगा फिरता है; परंतु यदि किसी याचकको देखता है तो कहता है कि थोड़ा मत माँगना, यहाँ कुछ कमी नहीं है। संसारमें जितने याचक जोड़े जुट सकते, उन्हें जुटाकर उन सब कंगालोंको प्रसन्न होकर इन्द्र बना देता है। उनके लिये स्वर्ग तैयार करते-करते मेरी नाकमें दम आ गया है, परंतु पिनाकी (पिनाकपाणि महादेव) मेरा कुछ भी अहसान नहीं मानते।
इस प्रकार भगवान् भोलेनाथ ने अपने स्वभाव एवं मंगल चरित्र से दान-धर्म की प्रतिष्ठा की है और प्रकारान्तर से उन्होंने यह शिक्षा दी है कि अपने सामर्थ्यानुसार नित्य दान देना चाहिये और दीन दुःखियों एवं याचकों को कभी भी निराश नहीं करना चाहिये।
एक बार की बात है, देवी पार्वतीजी ने भगवान् से पूछा-प्रभो! जो द्रव्य लोक में सभी को प्राप्त है तथा जो सर्वसाधारण की वस्तु है, उस सर्वसामान्य वस्तु का दान करने वाला मनुष्य कैसे धर्म का भागी होता है ? इस प्रश्न को सुनकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और बोले देवि! आपने बहुत सुन्दर बात पूछी है, वास्तव में संसार में जो द्रव्य हैं, वे सब तो भौतिक हैं, सभी के लिये साधारण हैं फिर उनमें उत्तम फल देने की शक्ति कैसे आ सकती है? किंतु छः ऐसी बातें हैं, जिनका पालन किया जाय तो सांसारिक वस्तुओं कि दान में भी श्रेष्ठ फल देने की शक्ति आ जाती है। दान देने वाला कैसा है, उसे ग्रहण करने वाला कैसा है, देव वस्तु कैसी है, उसे देने का प्रयत्न कैसा है, देश और काल कौन सा है-इन छः वस्तुओं के गुणों से युक्त दान उत्तम बताया गया है और ऐसा दान श्रेष्ठ फल देने वाला होता है-
दाता प्रतिग्रहीता च देयं सोपक्रमं तथा ।
देशकालौ च यत् त्वेतद् दानं षड्गुणमुच्यते ॥
(महा० अनु० दान०)
भगवान् ने बताया कि दान देने वाला मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा शुद्ध हो, उसे सत्यवादी, क्रोधजयी, लोभहीन, अदोषदर्शी, श्रद्धालु और आस्तिक होना चाहिये- ऐसा दाता ही उत्तम दाता होता है। दान लेने की पात्रता के लिये भगवान् शंकर कहते हैं कि जो शुद्ध, जितेन्द्रिय, क्रोधजयी उदार, शास्त्रज्ञान एवं सदाचार से सम्पन्न हो, पंचमहायज्ञपरायण हो, वह दान लेने का उत्तम पात्र है। लोक में तो जो जिस वस्तु के योग्य हो, वही उस वस्तु को पाने का पात्र होता है; भूखा मनुष्य अन्न का और प्यासा व्यक्ति जल का पात्र होता है। हे देवि ! दूसरों के वध या चोरी करने से जो प्राप्त होता है, अधर्म से, धनविषयक मोह से तथा बहुत से प्राणियों की जीविका का अवरोध करने से जो धन प्राप्त होता है, वह अत्यन्त निन्दित है-
परोपघाताद् यद् द्रव्यं चौर्याद् वा लभ्यते नृभिः । निर्दयाल्लभ्यते यच्च धूर्तभावेन वै तथा ॥
लभ्यते यद् धनं देवि तदत्यन्तविगर्हितम् ॥ वा अधर्मादर्थमोहाद् बहूनामुपरोधनात्।
(महा० अनु० दान०)
हे भामिनि। ऐसे धनसे किये हुए दानादि धर्म को निष्फल समझो। अतः शुभ की इच्छा रखने वाले पुरुष को न्यायतः प्राप्त हुए धन के द्वारा ही दान करना चाहिये- ‘तस्मान्न्यायागतेनैव दातव्यं शुभमिच्छता ।’
जो-जो अपने को प्रिय लगे, उसी उसी वस्तुका सदा दान करना चाहिये। भगवान् शंकर कहते हैं कि दान का सुयोग्य पात्र यदि दूर का निवासी हो तो उसी के पास जाकर उसे प्रसन्न कर दाता इस प्रकार दान दे कि वह सन्तुष्ट हो जाय। यह दान की श्रेष्ठ विधि है-‘एप दानविधिः श्रेष्ठः।‘ दानपात्र को अपने घर बुलाकर दान देना मध्यम श्रेणी का दान है।
एक महत्त्व की बात बताते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुष को कुपात्र पुरुषों को भी आवश्यकता होने पर अन्न-वस्त्र आदि का दान करना चाहिये। इसी प्रकार पुण्य क्षेत्रों तथा पुण्य अवसरों पर जो दिया जाता है, यह देश और काल की मर्यादा से अत्यन्त शुभकारक होता है।
भगवती पार्वतीजी ने पुनः प्रश्न किया हे देव! आपने दानके गुणों के विषय में बताया, क्या ऐसा भी होता है कि इन गुणों से युद्ध रहने पर भी दान निष्फल हो जाय।
इस पर भगवान् बोले- महाभागे। मनुष्योंकि भावदोष से ऐसा होता है। यदि कोई विधिपूर्वक दानादि धर्म का अनुष्ठान करे और फिर उसके लिये पश्चात्ताप करे अथवा भरी सभायें उसकी प्रशंसा करे तो उसका वह धर्म सब कुछ रहने पर भी व्यर्थ हो जाता है, अतः दाता को इन दो-का परित्याग कर देना चाहिये अर्थात् देकर पश्चात्ताप न करे और दिये दान की स्वयं प्रशंसा न करे।
विविध वस्तुओं का दान
किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये, इस जिज्ञासा पर भगवान् शंकर उन्हें बताते हैं-हे देवि! अनका दान सबसे बड़ा दान है, अन्न मनुष्यों का प्राण है, जो अन्नदान करता है, वह प्राणदान करता है। हे भामिनि। संसारमें गौओं का दान विशेष दान है। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने समस्त प्राणियों के जीवन निर्वाह के लिये गौओं की सृष्टि की थी। इसीलिये वे सबकी माता कही गयीं हैं, गौओं के मल-मूत्र से कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिये और उनका मांस कभी नहीं खाना चाहिये, सदा गौओं का भक्त होना चाहिये-
गवां मूत्रपुरीषाणि नोद्विजेत कदाचन। न चासां मांसमश्नीयाद् गोषु भक्तः सदा भवेत् ॥
(महा० अनु० दान)
भगवान् शिव कहते हैं- अब मैं भूमिदान का वर्णन करूँगा, क्योंकि भूमिदान का महत्त्व बहुत अधिक है, रहने के लिये सुन्दर घर बना हो, कुआँ हो, हल से जोती हुई उस भूमि में फसल उगी हो, फलदार वृक्ष हाँ ऐसी भूमिका दान करना चाहिये। भूमिदान करके मनुष्य परलोक में दीर्घायु, सुन्दर शरीर और बढ़ी चढ़ी उत्तम सम्मान पाता है-
दीर्घायुष्यं वराङ्गत्वं स्फीतां च श्रियमुत्तमाम् ।
परत्र लभते मर्त्यः सम्प्रदाय वसुन्धराम् ॥
(महा० अनु- दान०)
हे देवि! अपनी कन्या के साथ ही दूसरों की कन्या का दान भी यथाशक्ति करना करना चाहिये। ऐसे ही शिष्य को विद्यादान देने वाला मृत्युके पश्चात् वृद्धि, बुद्धि, धृति और स्मृति प्राप्त करता है। निर्धन छात्रों को धनकी सहायता देकर विद्या प्राप्त कराना भी स्वयं किये विद्यादान के समान है। है देवि! तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने गये हैं, अतः तिलों का दान करना चाहिये। आश्विनमास की पूर्णिमा तिथि को तिलदान का विशेष महत्त्व है। ऐसे ही तिलों से गौ की आकृति बनाकर तिलधेनु का दान करना चाहिये।
हे देवि! पुल, कुआँ और पोखरा बनाने वाला मानव दीर्घायु, सौभाग्य तथा मृत्यु के पश्चात् शुभगति प्राप्त करता है। छाया, फूल और फलदार वृक्ष लगाने वाला पुण्यलोक प्राप्त करता है। जो रोगियों को औषध प्रदान करता है, वह रोगहीन तथा दीर्घायु होता है। इसी प्रकार जो लोकहित के लिये वेद विद्यालय, सभाभवन, धर्मशाला तथा भिक्षुओं के लिये आश्रम बनाता है, गोशालाओं का निर्माण करता है, वह मृत्यु के पश्चात् शुभ फल पाता है। अन्त में भगवान् शिव दानतत्त्व का रहस्य बताते हुए पार्वतीजी से कहते हैं-हे देवि! सभी दानों को शुद्ध हृदय से निष्काम भाव से देना चाहिये, उसमें क्रूरता का अभाव होना चाहिये और दयापूर्वक तथा अत्यन्त प्रसन्नता के साथ देना चाहिये, तभी दाता शुभ फल का भागी होता है-
मनसा तत्त्वतः शुद्धमानृशंस्यपुरस्सरम् ।
प्रीत्या तु सर्वदानानि दत्त्वा फलमवाप्नुयात् ॥
(महा अनुदान) दानको महिमा बताते हुए वे कहते हैं—इस पृथ्वी पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है और दान के समान कोई निधि नहीं है, सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पालक नहीं है-
नास्ति भूमी दानसमं नास्ति दानसमो निधिः ।
नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम् ॥
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