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विश्व सृष्टि में व्याकरण के प्रतीक माहेश्वर सूत्र
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- १. शब्द, लिपि, अक्षर-भाषा का उद्देश्य है लोग परस्पर बात कह सकें। इसके कारण लोग एक साथ रहते हैं, अतः यह साहित्य (सहित का भाव) है (ऋग्वेद का सौमनस्य सूक्त, १०/१९१)। कथन या ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए उसे संकेतों द्वारा सुरक्षित रखना आवश्यक है, नहीं तो लोग भूल जायेंगे, या एक व्यक्ति का ज्ञान अन्य को नहीं मिल पायेगा। यह समतल पर लेप रूप में है, अतः इसे लिपि कहते हैं। प्रथम वेदव्यास स्वायम्भुव मनु थे (२९१०० ईपू) जिनको मनुष्य ब्रह्मा कहा गया है। ७ अन्य मनुष्य ब्रह्मा भी थे जिनका वर्णन महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३४८-३४९ में है। ब्रह्मा ने गुण कर्म के आधार पर सभी वस्तुओं के नाम दिये। इसके लिये जिसे अधिकृत किया उनको बृहस्पति कहा क्योंकि वाक् को बृहती कहा है (यह बृहत् विश्व का वर्णन करता है)। बृहस्पति ने सभी शब्दों के चिह्न बनाये। इनसे वाक् को देख सकते हैं, अतः लिपि को दर्श वाक् कहा गया।
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनु स्मृति, १/२१)
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत् नामधेयं दधानाः॥१॥
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शूण्वन्न शृणोत्येनाम्॥४॥ (ऋक्, १०/७१)
वाग्वै बृहती तस्या एष पतिः तस्मादु बृहस्पतिः (शतपथ ब्राह्मण, १८/४/१/२२, बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/२/३)
भाव या विचार की गणना नहीं कर सकते। लिपि के अक्षरों की गणना कर सकते हैं। अतः लिपि के अक्षर निर्धारित करने वाले को गणपति, शब्दरूप स्रष्टा (कवि) या ज्येष्ठराज (उनके अनुसार लोग चले) कहा गया।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः कविः। स ऋणया (-) चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह ऋतस्य (ऋत = Right, writing, सत्य का विस्तार) धर्तरि।१७॥ (ऋक् २/२३/१,१७)
= ब्रह्मा ने सर्व-प्रथम गणपति को कवियों में श्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्य वाक् को ऋत (विन्दुरूप सत्य का विस्तार) के रूप में स्थापित किया। श्रव्य वाक्य लुप्त होता है, लिखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)। पूरे विश्व का निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टा ने साम (गान, महिमा = वाक् का भाव) के कवि को जन्म दिया। उन्होंने ऋण चिह्न (-) तथा उसके चिद्-भाग विन्दु द्वारा पूर्ण वाक् को (जिसे हित्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन ) के रूप में धारण (स्थायी) किया।
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता, ५/२/८/३)
विन्दु और रेखा के ३-३ या कुल ६ प्रकार हुए। कुल २ घात ६ = ६४ रूप होने से ब्राह्मी लिपि में ६४ अक्षर हुए। ॐ को छोड़कर ६३। यह शम्भु या माहेश्वर मत है, जिसका आरम्भ स्वायम्भुव मनु ने किया था।
त्रिषष्टिः चतुः षष्टिः वा वर्णाः शम्भुमते मताः।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयम्भुवा॥ (पानिनीय शिक्षा, ३)
ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार लेखन का आरम्भ हुआ-
नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम्। तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति)
६ प्रकार के दर्शन होने के कारण ६ प्रकार के दर्श वाक् (लिपि) हुए क्योंकि किसी भी एक प्रकार से विश्व का पूर्ण वर्णन नहीं हो सकता। दर्शन के तत्त्वों के अनुसार लिपियों की अक्षर संख्या हुयी।गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी।
अष्टापदी नवपदी सा बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥
(ऋक् १/१६४/४१, अथर्व ९/१०/२१, १३/१/४१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/४/६/११)
१ पद (भाग) = पूर्ण वाक्।
२ पद = स्वर + व्यञ्जन
४ पद = ब्रह्म या वाक् के ४ पद।
८ पद = १ अक्षर में अधिकतम ८ वर्ण।
९ पद = १ अक्षर में ९ प्राण-विन्दु (मध्य के स्वर में २ विन्दु)
इनके अनुसार ६ लिपियां हैं-(१) गायत्री या सांख्य वाक्-सांख्य दर्शन के २५ तत्त्व = (१+४) का वर्ग। २५ अक्षर की रोमन लिपि, अतिरिक्त एक्स। अवकहड़ा चक्र के अनुसार अ, इ, उ, ए, ओ-ये ५ स्वर वर्ण।
(२) बृहती वाक्-शैव दर्शन के ६ ६ = ३६ तत्त्व , (२ + ४) का वर्ग।
(३) जगती वाक्-४९ मरुत् (१ + २+ ४) का वर्ग, देवनागरी लिपि। क से ह = ३३ देवों के चिह्न। १६ वर्ण मिला कर ४९ मरुत्। चिह्न रूप में देव नगर होने के कारण देवनागरी। अ से ह तक क्षेत्र है जो विश्व या व्यक्ति रूप है। उसका क्षेत्रज्ञ आत्मा के लिए क्ष, त्र, ज्ञ जोड़ कर ५२ शक्ति पीठ हुए।
(४) अष्टि वाक् (८ x ८) कला अनुसार ६३ या ६४ अक्षर की ब्राह्मी लिपि।
(५) विज्ञान वाक्- (८ + ९) का वर्ग = २८८ अक्षर। ३६ x ३ स्वर, ३६ x ५ व्यञ्जन,१ अविभक्त ॐ। एक अक्षर में स्वर सहित ८ वर्ण संयुक्त हो सकते हैं, अतः वाक् को अनुष्टुप् कहा है। स्वर वर्ण आगे-पीछे के वर्णों को जोड़ता है, अतः उसमें २ शक्ति विन्दु हैं। कुल ९ विन्दु होने से वाक् बृहती (९ x ४ अक्षर) है। ८ x ९ x ४ पाद = २८८ वर्ण हुए।
वाचामष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम्। इन्द्रात् परि तन्वं ममे। (ऋक्, ८/७६/१२)
(६) सहस्राक्षरा वाक्-सहस्राक्षरा परमे व्योमन्, अर्थात् यह व्योम (त्रिविष्टप् = तिब्बत) के परे चीन, जापान में है। आकाश या शरीर के भीतर इसके अन्य अर्थ हैं। १५००० अक्षर तक हो सकते हैं-
सहस्रधा पञ्चदशानि उक्था यावद् द्यावापृथिवी तावदित् तत्।
सहस्रधा महिमानः सहस्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥
(ऋक्, १०/११४/८, ऐतरेय आरण्यक, २/३/७)
प्रति शब्द के चिह्न बृहस्पति ने दिये। इन हजारों चिह्नों को रट ना किसी के लिये सम्भव नहीं था। अतः इसे उशना (शुक्राचार्य) ने मारणान्तक व्याधि कहा। इसे व्यवस्थित करने के लिए इन्द्र ने स्फोट (ध्वनि) के आचार्य मरुत् की सहायता से उनको मूल ४९ ध्वनि में बांटा। शब्दों को मूल अक्षरों में खण्डित (व्याकृत) करने के कारण इसे व्याकरण कहा गया। उसके बाद वर्ण या अक्षरों से शब्द की रचना कैसे हुई उसे ऐन्द्र-वायव व्याकरण कहा गया।
२. माहेश्वर सूत्र-वर्णों का विश्व सृष्टि, मनुष्य प्रकृति और व्याकरण प्रक्रिया से सम्बन्धित करने के लिए माहेश्वर सूत्र बने। सृष्टि के १४ सर्ग के अनुसार इसमें १४ सूत्र हैं। जिनको १४ बार डमरू वादन कहा है। यह १४ बार बजा था, अतः १४वें व्यञ्जन ढ से सूचित कर ढक्का कहा है। वाक् का क्षेत्र ढाका शक्ति रूप है जिसके कई पीठ भारत में हैं। ४३ अक्षर श्रीयन्त्र के त्रिभुज हैं, जो महः लोक की माप, मस्तिष्क केन्द्रों से सम्बन्धित हैं। नन्दिकेश्वर की काशिका में वर्ण क्रम के अनुसार सृष्टि क्रम की व्याख्या की है।
नृत्यावसाने नटराजराजः, ननाद ढक्कां नव-पञ्च वारम्।
उद्धर्तु कामः सनकादि सिद्धान् एतद् विमर्शे शिव-सूत्र जालम्॥
शिव का ताण्डव नृत्य प्रलय है, उसके बाद ढक्का वादन या स्फोट सृष्टि क्रम है। १४ वादन १४ मनु या मन्वन्तर हैं। ९ वादन अव्यक्त से सृष्टि के ९ सर्ग हैं, जिनके चक्र ९ प्रकार के कालमान हैं (सूर्य सिद्धान्त, १४/१)। ५ बार का वादन ५ महाभूत या उनके रूप सृष्टि के ५ पर्व हैं, जिनको शिव के ५ मुख कहते हैं, या हिरण्य गर्भ सूक्त में भूतों के एकमात्र पति शिव। काम से सृष्टि का आरम्भ हुआ, उसके बाद मूल४ ऋषि सनक आदि हुए। इनको एकर्षि से ३ विभाजन के बाद ४ ऋषि रूप में भी कहा है।
माहेश्वर या शिव सूत्र हैं-
अइउण्। ऋलृक्। एओङ्। ऐऔच्। हयवरट्। लण्। ञमङणनम्। झभञ्। घढधष्। जबगडदश्। खफछठथचटतव्। कपय्। शषसर्। हल्।
इति प्रत्याहार सूत्राणि।
३. व्याकरण परम्परा-मुख्यतः २ व्याकरण परम्परा मानते हैं-
(१) ब्रह्मा-बृहस्पति-इन्द्र-वायु, जिनका वैदिक सन्दर्भ दिया गया है।
(२) माहेश्वर व्याकरण परम्परा में भी महेश्वर के बाद बृहस्पति-इन्द्र का उल्लेख है-
समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे तदर्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।
तद् भाग-भागाच्च शतं पुरन्दरे, कुशाग्र विन्दूत् पतितं हिपाणिनौ॥
(सारस्वत भाष्य से पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा व्याकरण शास्त्र का इतिहास में उद्धृत)
पाणिनि ने भी माहेश्वर परम्परा ही कही है-
येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात्।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः॥
(पाणिनीय शिक्षा के अन्त में)
अतः दोनों परम्परा सम्बन्धित हैं। कई स्थानों पर ८ या ९ व्याकरणों का उल्लेख है। हनुमान् को ९ व्याकरण का ज्ञाता कहा है-सोऽयं नवव्याकरणार्थ वेत्ता (रामायण, ७/३६/४७)। एक काल में एक ही व्याकरण के अनुसार भाषा होगी। यहां अर्थ हो सकता है कि उस काल की ९ मुख्य भाषायें हनुमान् जानते थे।
महेश्वर के बाद इन्द्र और बृहस्पति हुए थे। बृहस्पति २८ ब्रह्मा में चतुर्थ थे जिनका काल उशना के बाद (१५,३३०-१४,६१० ईपू) था। महेश्वर उससे या उशना से भी पूर्व कश्यप के बाद होंगे। यह प्रायः १६,००० ईपू का समय होगा। एक महेश्वर के पुत्र कार्त्तिकेय थे जिनका समय महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) के अनुसार प्रायः १५,८०० ईपू था। उस समय अभिजित् का पतन हुआ था, अर्थात् उत्तरी ध्रुव की दिशा उससे दूर हट गयी थी। तब अभिजित् के बदले धनिष्ठा से वर्ष आरम्भ हुआ जो वर्षा का भी आरम्भ था।
व्याकरण परम्परा के मुख्य क्रम थे-
(१) ब्रह्मा द्वारा वस्तुओं के नाम (बृहस्पति को अधिकृत किया)
(२) लिपि के लिए गणपति को अधिकृत किया।
(३) उद्देश्य अनुसार ६ प्रकार की लिपि (दर्श वाक्) तथा ६ दर्शन।
(४) हर बार लिपि निर्धारित करने वाले को गणपति कहा गया- महाभारत के लिपिकार गणेश।
(५) ध्वनि खण्डों के अनुसार वर्ण विभाग।
(६) वर्ण माला या उच्चारण अनुसार क्रम।
(७) अयोगवाह या अन्य वर्ण मिला कर ब्राह्मी लिपि।
(८) मूल धातु, प्रत्यय, उपसर्ग निर्धारण।
(९) सूत्र रूप में संक्षेप
(१०) वाक्-अर्थ प्रतिपत्ति-आध्यात्मिक तथा अधिदैव में अर्थ विस्तार।
(११) अक्षर क्रम का सृष्टि क्रम से सम्बन्ध। (९-११) महेश्वर द्वारा।
(१२) पाणिनि द्वारा माहेश्वर सूत्र से व्याकरण के प्रत्याहार सूत्र तथा उनसे व्याकरण के संक्षिप्त सूत्र। प्राचीन धातु पाठ, समान शब्दों के गण पाठ आदि का संकलन।
४. व्याकरण का आधार- शिव सूत्र ऊपर उद्धृत हैं।
(१) स्वर-इसमें ९ स्वर हैं। ५ मूल स्वर प्रथम २ सूत्रों में हैं-प्रथम सूत्र में ३ प्रचलित स्वर-अ, इ, उ। द्वितीय में व्यञ्जन जैसे स्वर- ऋ, लृ- इनमें र, ल ध्वनि भी सम्मिलित है। उसके बाद प्रथम संयुक्त स्वर ए = अ + इ, ओ = अ+ उ (गुण सन्धि)। उसके बाद द्वितीय संयुक्त स्वर- ऐ = अ + ए, औ = अ + ओ (वृद्धि सन्धि)। मूल स्वरों के दीर्घ रूप, तथा अ के साथ अर्ध म् (अनुस्वार) अर्ध ह (विसर्ग) मिलाने पर देवनागरी के १६ स्वर वर्ण हुए। अर्ध म विन्दु है, जो सृष्टि के शून्य आरम्भ का प्रतीक है। तन्त्र में विन्दु के भी ९ भाग किये हैं जो क्रमशः आधे हैं-ये सृष्टि के ९ सर्ग हैं। विन्दु या शून्य से सृष्टि के लिए शिव-शक्ति या पुरुष-श्री, अग्नि-सोम का युग्म हुआ, जिसे २ विन्दु द्वारा विसर्ग चिह्न में व्यक्त किया जाता है। यह ऐन्द्र-वायव या देवनागरी लिपि है।
दीर्घ के साथ प्लुत मिलाने पर २१ स्वर पाणिनीय शिक्षा में हैं। यह विस्तार ब्राह्मी में है।
(२) अन्तःस्थ-वर्णमाला के अन्त में ’य’ से ’ह’ तक ८ अन्तःस्थ वर्ण हैं। स्वरों के बाद मूल स्वरों के सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं। सवर्ण का उच्चारण एक स्थान से होता है-
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् (अष्टाध्यायी, १/१/९)
इसकी व्याख्या है
अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः = अ (ह्रस्व-दीर्घ), क-वर्ग (कु = क, ख, ग, घ, ङ), ह, विसर्ग (अर्ध ह) का उच्चारण कण्ठ से होता है।
इचुयशानां तालुः = इ (+ई), च-वर्ग (च, छ. ज, झ, ञ), श का उच्चारण तालु से। अतः श को तालव्य श कहते हैं।
ऋटुरषाणां मूर्धा = ऋ (ॠ भी), ट-वर्ग (ट, ठ, ड, ड, ण), ष का उच्चारण मूर्धा से। अतः ष को मूर्धन्य ष कहते है। सन्धि नियम भी उच्चारण स्थानों के अनुसार हैं, जैसे र, ष के बाद न का ण हो जाता है।
लृतुलसानां दन्ताः = लृ (लॄ भी), त-वर्ग (त, थ, द, ध, न), स का दन्त से उच्चारण। अतः स को दन्त्य स कहते हैं।
उपूपध्मानीयानामोष्ठौ = उ (ऊ भी), प-वर्ग (प, फ, ब, भ, म), उपध्मानीय का उच्चारण ओठ से। प्, फ् के पूर्व विसर्ग होने पर उसे उपध्मानीय कहते हैं।
ञमङणनानां नासिका च = ञ, म, ङ, ण, न का उच्चारण अपने वर्गों के अतिरिक्त नासिका से भी होता है।
एदैतोः कण्ठतालु = ए, ऐ का उच्चारण, कण्ठ-तालु से।
ओदौतोः कण्ठौष्ठम् = ओ, औ का उच्चारण कण्ठ-ओठ से।
वकारस्य दन्तौष्ठम् = वकार का दन्त-ओष्ठ से।
जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् = क्, ख्, के पूर्व विसर्ग होने से उसका उच्चारण जिह्वा-मूल से होता है, अतः उसे जिह्वामूलीय कहते हैं, जैसे दुःख।।
नासिकाऽनुस्वारस्य = अनुस्वार का उच्चारण नासिका से होता है। स्वर के बाद अर्ध म आने से अनुस्वार कहते हैं।
कण्ठ से ओठ तक मुंह के भीतर स्थानों का जो क्रम है, वही क से प तक के वर्गों का क्रम है। इसके लिये जीभ का स्पर्श मुख के किसी स्थान से होता है, अतः इनको स्पर्श वर्ण कहते हैं। वर्ग के भीतर अक्षरों का क्रम है-प्रथम वर्ण कठोर (पूर्ण स्पर्श), तृतीय वर्ण मृदु (कम स्पर्श) के हैं। इनके साथ ’ह’ जोड़ने के लिये भीतर से अधिक वायु निकलती है, अतः इनको महाप्राण कहते हैं। प्रथम और तृतीय अल्पप्राण हैं। इनके महाप्राण वर्ण द्वितीय तथा चतुर्थ हैं। इन उच्चारण स्थानों से नाक के साथ जो उच्चारण होता है, वह अन्त में अनुनासिक वर्ण है।
य, र, ल, व का उच्चारण मुख्यतः भीतर ही होता है, मुख के भीतर बहुत कम स्पर्श होता है। अतः इनको अन्तःस्थ कहते हैं। इसके साथ अधिक वायु निकलने पर श, ष, स, ह-का उच्चारण होता है, अतः ये ऊष्म वर्ण हैं। इनका भी च्-से प वर्ग के उच्चारण स्थान के अनुसार क्रम है।
ब्राह्मी लिपि में कुछ अन्य अयोगवाह जोड़े गये हैं जो इस क्रम में नहीं आते हैं, जैसे रंग (लम्बे स्वर के बाद अनुस्वार) या ळ, ळ्ह (ड़, ढ़)।
व्यञ्जन वर्णों में पहले ५ मूल स्वरों के अन्तःस्थ वर्ण हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ के अन्तःस्थ हैं – ह, य, व, र, ल। स्वर वर्ण में ३-२ क्रम था, यहां ४-१ क्रम है। ल को अकेले रखा है।
(३) अनुनासिक- इसके बाद ५ अनुनासिक हैं, किन्तु उनका क्रम क से प वर्ग के अनुसार नहीं है-ञ, म, ङ, ण, न।
(४) इसके बाद ५ वर्गों के चतुर्थ वर्ण २ सूत्रों में है-२, तथा ३ वर्ण।
(५) इसके बाद एक सूत्र में ५ वर्गों के तृतीय वर्ण हैं।
(६) इसके बाद के सूत्र में ५ वर्गों के द्वितीय वर्ण, तथा ३ वर्गों के प्रथम वर्ण-च, ट, त हैं। अन्य दो प्रथम वर्ण इसके बाद के सूत्र में हैं-क, प।
(७) इसके बाद के सूत्र में ३ प्रकार के ’स’ हैं-उच्चारण क्रम से।
(८) अन्त में ह वर्ण दुबारा आता है। इसकी कई व्याख्या हैं-कुछ नियम केवल ह वर्ण के लिए हैं। देवनागरी में अन्तिम वर्ण ’ह’ है, अतः इसे पुनः अन्त में लिखा गया। वर्णों से ही पूरा साहित्य या वाङ्मय बना है, जो विश्व का वाक् रूप है। विश्व की प्रतिमा मनुष्य है। अतः स्वयं को अहं कहते हैं, अर्थात् ’अ’ से ’ह’ तक। आत्मा परमात्मा का ही व्यक्ति रूप है, अतः भगवान् ने गीता में अपने को ब्रह्म रूप में अहं कहा है – अध्याय १० में पूरा विभूति योग, सभी अध्यायों में कई बार अहं, मम, मया, आत्मानं आदि ब्रह्म अर्थ में ही हैं। वेद में भी ’ह’ का ब्रह्म अर्थ में प्रयोग है, ब्रह्म की मूल सत्ता है, अतः लोक और वेद में निश्चय अर्थ में ’ह’ का प्रयोग है।
उपा ’ह’ तं गच्छथो वीथो अध्वरम् (ऋक्, १/१५१/७) =उसके निकट निश्चय जाते हो।
त्व ’हं’ त्यदिन्द्र कुत्समावः (ऋक्, ७/१९/२, अथर्व, २०/३७/२)।
अहं = द्रष्टा, साक्षी आत्मा या परमात्मा।
इदम् = अहं द्वारा दृश्य जगत्। इसमें निकट का ’इ’, दूर का ’उ’ है, जिसे गायत्री मन्त्र में ’यत्’, ’तत्’ कहा है।
(९) सभी सूत्रों के अन्त में हलन्त वर्ण (बिना स्वर के) दिये गये हैं जो सूत्र पूर्ण होने के चिह्न मात्र हैं। इन १४ सूत्रों से प्रत्याहार सूत्र बनते हैं। कोई भी सूत्र के किसी भी वर्ण के बाद सूत्रान्त का हलन्त वर्ण लिखने से बीच के सभी वर्ण सूचित होते है। जैसे – अचोऽन्त्यादि टि (अष्टाध्यायी, १/१/६४)। यहां अच् का अर्थ है ’अ’ से ’च्’ तक सभी वर्ण = अइउण्। ऋलृक्। एओङ्। ऐऔच्। जिस शब्द के अन्त में इनमें कोई भी स्वर हो उसे ’टि’ कहते हैं। यह ओड़िया में प्रचलित है-तीन टि = तीन। बंगला में ’टा’, भोजपुरी में ’ठो’ हो गया है। वर्णों का सभी प्रकार का समन्वय सार्थक शब्द नहीं होता। इसी प्रकार सभी प्रकार के सम्भव प्रत्याहार का व्यवहार नहीं होता।
५. नन्दिकेश्वर काशिका-सामान्यतः शिव के वृषभ वाहन को नन्दी कहते हैं तथा उसकी मूर्ति हर शिव मन्दिर में होती है। नन्दिकेश्वर मनुष्य रूप में शिव के गण थे तथा संगीत, व्याकरण आदि के विद्वान् थे। ये शिलाद के पुत्र थे (कूर्म पुराण, २/४३/१७, शिव पुराण, अध्याय ३/६)। उनका एक उप पुराण नन्दिकेश्वर पुराण है। इसके अतिरिक्त अभिनय-दर्पण तथा शिव सूत्र की व्याख्या रूप में नन्दिकेश्वर काशिका है। स्कन्द पुराण (५/३/११/४६) में उनकी गीता का उल्लेख है। शिव-सूत्र पर आधारित पाणिनि के अष्टाध्यायी की सूत्र क्रम में व्याख्या को भी काशिका कहते हैं। दोनों के विषय में धारणा है कि काशी में इसकी रचना हुयी थी, इसलिये इनको काशिका कहते हैं। इसका विपरीत भी सम्भव है। काशृ दीप्तौ (पाणिनीय धातु पाठ, १/४३०, ४/५१)। विश्व का वह राष्ट्र जो ज्ञान के प्रकाश (भा) में रत था, उसे भारत कहा गया। यह विश्व का भरण-पोषण करने के कारण भी भारत था। उस ज्ञान के प्रकाश का केन्द्र महेश्वर का स्थान होने से वह स्थान काशी हुआ। वहीं पर नन्दिकेश्वर ने महेश्वर सूत्रों की व्याख्या की, अतः वह काशिका हुआ। जो इन सूत्रों का रहस्य जानता है, वही उन पर आधारित पाणिनीय सूत्रों की व्याख्या कर सकता है। अतः अष्टाध्यायी सूत्रों की काशिका भी नन्दिकेश्वर की ही होगी। इसके लुप्त भागों का उद्धार वामन (५ अध्याय) और जयादित्य (३ अध्याय) ने किया। इस पर तीन टीकाओं सहित हिन्दी व्याख्या श्री जयशंकर लाल त्रिपाठी ने ११ खण्डों में की है। किसी सूत्र या ग्रन्थ की टीका से उस कर प्रकाश पड़ता है, अतः उसे काशिका कहा जा सकता है। आजकल टीका को प्रकाश, कौमुदी (कमल खिलाने वाला प्रकाश) भी कहते हैं। नन्दिकेश्वर भी काशी के थे, अतः नन्दिकेश्वर शिवलिंग काशी के ज्ञानवापी में है (स्कन्द पुराण, काशी खण्ड, अध्याय ४/२/९७, लिंग पुराण, अध्याय १/२९, ९२, १०३ आदि में) जिसे म्लेच्छों ने भ्रष्ट कर दिया है। व्याकरण काशिका में कात्यायन के वार्तिक नहीं हैं, अतः वह पातञ्जल महाभाष्य के पूर्व का होगा। पतञ्जलि के युग सूत्र पर व्यास भाष्य है, अतः वे महाभारत पूर्व के थे। महाभाष्य के ३ बार उद्धार की चर्चा है-कश्मीर में, चिदम्बरम् में, उज्जैन में। उज्जैन के अर्ध नष्ट (अज-भक्षित) भाष्य को शंकराचार्य के गुरु गोविन्दपाद ने पूर्ण किया था। आज कल परम्परा चल पड़ी है कि सभी वैदिक साहित्य को सिद्धार्थ और उनके १३०० वर्ष बाद गौतम बुद्ध के बाद का कहा जाय। नालन्दा विश्वविद्यालय जलने के बाद ही सभी पुराण लेखन कहा जा रहा है। यदि उससे पहले कुछ नहीं था, तो कौन सी ९५ लाख पुस्तकें जलायी गयीं?
काशिका सार-सूत्र १- अ = निर्गुण ब्रह्म। अ में अन्तिम वर्ण ह जोड़ने से पूर्ण पुरुष (व्यक्ति, या विश्वरूप) होता है। इ = चित्कला (श्री सूक्त में पद्मिनीं + ईं), उ = जगद् रूप ईश्वर। ईश्वर का अर्थ सञ्चालक है (गीता, १८/६१)। ये ३ वर्ण ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर रूप हैं।
सूत्र २-ऋ, लृ-से ब्रह्म का प्रकट रूप। ऋ = ऋत या सोम। लृ = सत्, अग्नि (ऊर्जा या पदार्थ का पिण्ड रूप। मूल ५ स्वर पञ्च महाभूत हैं-आकाश, वायु, तेज, अप्, अग्नि। लृक् का दक्षिणात्य उच्चारण लुक्, अतः ग्रीष्म प्रवाह को लूक या लू कहते हैं।
सूत्र ३- ए, ओ = माया + ईश्वर का बोध। ए = एकमात्र साक्षी। ओ = दोनों के समन्वय रूप में निर्दिष्ट, प्रज्ञान आत्मा (मन)।
सूत्र ४-ऐ, औ-अपने भीतर जगत् लीन किये हुआ ब्रह्म। ऐ आदि-शक्ति रूप है। यह सरस्वती का बीजमन्त्र है। त्रयी (ऋक्, साम, यजु) के प्रथम अक्षर हैं-अ, इ, अ। इनका योग है- अ + (अ+ इ) = अ + ए = ऐ (त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र, ३)
सूत्र ५-ह = व्योम, य = वायु, र = अग्नि, व (वाः, वारि-गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१/१) = जल तत्त्व।
सूत्र ६-ल = सबका आधार पृथ्वी तत्त्व (लण् = लैण्ड अंग्रेजी में)।
सूत्र ७-५ तत्त्वों की तन्मात्रा-शब्द (आकाश का), स्पर्श (अग्नि), रूप (प्रकाश), रस (जल), गन्ध (भूमि)।
सूत्र ८, ९-सभी वर्गों के चतुर्थ वर्ण। ५ कर्मेन्द्रिय-वाक् (झ, झंकार = शब्द), पाणि (भ), घ (पाद), ढ (पायु), ध = उपस्थ।
सूत्र १०- सभी वर्गों के तृतीय वर्ण। ५ ज्ञानेन्द्रिय-कर्ण, त्वच (स्पर्श गुण, अंग्रेजी में टच), नेत्र, नासिका, जिह्वा।
सूत्र ११-सभी वर्गों के द्वितीय वर्ण ५ प्राण हैं-प्राण, अपान, समान, उदान व्यान (अमरकोष, १/१/५८)। तीन वर्गों के प्रथम वर्ण च, ट, त = मन, बुद्धि, अहंकार।
सूत्र १२-क (कर्त्ता रूप) = पुरुष। प = प्रकृति।
सूत्र १३ – तीन प्रकार के स= तीन गुण। श = रजोगुण, ष = तमो गुण, स = सत्त्व गुण।
सूत्र १४- हल् = परब्रह्म। तत्त्वों से अतीत, साक्षी।
६. विश्व रूप-सृष्टि प्रलय चक्र का प्रतीक डमरू है। पृथ्वी पर खड़ा शंकु आधार से क्रमशः छोटा होता जाता है। पूरी तरह लय होने पर विन्दु मात्र रह जाता है। उसके ऊपर विपरीत शंकु पुनः विन्दु से सृष्टि का आरम्भ है। इसका १४ बार वादन १४ प्रकार के भूत सर्ग हैं-स्तम्ब (निर्जीव) से ब्रह्म (पूर्ण चेतन) तक। सांख्यकारिका, ५३ के अनुसार-८ प्रकार की देव योनि, ५ तिर्यक् सृष्टि तथा १ मनुष्य सृष्टि-ये १४ सर्ग हैं। देव योनि के ८ वर्ग हैं-परब्रह्म, ७ लोकों के ७ प्राण स्तर। पृथ्वी पर ६ सृष्टि – पूर्ण चेतन मनुष्य। ५ तिर्यक् सृष्टि – जल, स्थल, वायु के जीव, अर्ध संज्ञक वृक्ष, सुप्त संज्ञक मिट्टी (मृत्)। सृष्टि का क्रम हुआ- ७ लोक, ८ दिव्य सृष्टि, ६ पार्थिव सृष्टि = ७८६ (अरबी कोड या कूट बिस्मिल्लाह)। यह भी एक प्रकार का त्रि-सप्त है (अथर्ववेद का आरम्भ, पुरुष सूक्त, १५)।
आकाश और शरीर के चक्र-शरीर के भीतर मेरुदण्ड के ५ चक्र नीचे से आरम्भ कर भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश तत्त्वों के स्वरूप है। विश्व के ५ पर्व भी इन्हीं के स्वरूप है। विश्व पर्वों के संकेत माहेश्वर सूत्र के ५ स्वर हैं-अइउण्। ऋलृक्। उनकी प्रतिमा रूप सुषुम्ना के ५ चक्र के बीज मन्त्र इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं-हयवरट्। लण्।
मेरुदण्ड के ऊपर आज्ञा चक्र भ्रूमध्य के पीछे है जिसमें शिव-शक्ति का समन्वय है-अर्द्धनारीश्वर रूप। इसका आकाश में प्रतीक कह सकते हैं पदार्थ-ऊर्जा का मिश्र रूप। यह विस्तार ब्रह्माण्ड के आवरण रूपी कूर्म तक है। उसके बाहर अनन्त आकाश की प्रतिमा सिर के ऊपर सहस्रार चक्र है।
आकाश के पर्व चिह्न तत्त्व शरीर के चक्र चिह्न
१. अव्यक्त अनन्त एक ॐ अव्यक्त सहस्रार एक ॐ
२. हिरण्यगर्भ विभक्त ॐ पदार्थ-ऊर्जा आज्ञा विभक्त ॐ
३. स्वयम्भू मण्डल अ आकाश विशुद्धि ह
४. ब्रह्माण्ड इ वायु अनाहत य
५. सौरमण्डल उ तेज स्वाधिष्ठान व
६. चान्द्र मण्डल ऋ अप् मणिपूर र
७. भूमण्डल लृ भूमि मूलाधार ल
यहां स्वाधिष्ठान-मणिपूर का क्रम सृष्टि क्रम में है। साधना नीचे से ऊपर होती है, अन्नमय कोष से परमात्मामय कोष तक, उसमें मूलाधार के बाद मेरुमूल में स्वाधिष्ठान तब नाभि के पीछे मणिपूर चक्र होता है।
अन्नमय कोष से उत्थान का वर्णन पुरुष सूक्त में है-उतामृतत्वस्येशानो तदन्नेनातिरोहति (वाज. सं. ३१/२)
सृष्टि क्रम से चक्र तथा तत्त्वों का वर्णन शंकराचार्य ने किया है-
महीं मूलाधारे, कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने, हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये, सकलमपि भित्वा कुलपथं,
सहस्रारे पद्मे, सह रहसि पत्या विहरसि॥
(सौन्दर्य लहरी, ९)
७. चक्र के वर्ण और आकाश की माप-मूलाधार से विशुद्धि के कमल दल धाम रूप में ब्रह्माण्ड तक की माप हैं। आज्ञा चक्र के २ दल मिला कर ५० दल हैं जो ब्रह्माण्ड के तेज-मण्डल (कूर्म या गोलोक, Nutrino Corona) तक की माप हैं।
पृथ्वी के भीतर ३ धाम हैं। उसके बाद के धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े होते गये हैं (बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/३/२)
मूलाधार कमल के ४ दल-वशषस। ४ धाम तक पृथ्वी तथा वायु आवरण है।
स्वाधिष्ठान के ६ दल-बभमयरल। ४+६ = १० धाम तक चन्द्र कक्षा का आवरण है।
मणिपूर के १० दल-डढणतथदधनपफ। १०+१० = २० धाम तक शनि कक्षा है जिसको पुरुष सूक्त १ में सहस्राक्ष कहा गया है। सूर्य = अक्ष (धुरी या आंख), १००० व्यास दूरी के भीतर शनि है, जहां तक का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है।
अनाहत के १२ दल-कखगघङचछजझञटठ। २० + १२ = ३२ धाम तक सौर मण्डल है। उसके बाद ३३वें धाम पर सीमा है। इन ३३ धामों के प्राण ३३ देवता हैं जिनका चिह्न रूप में प्रतीक क से ह तक ३३ व्यञ्जन हैं।
विशुद्धि के १६ दल-१६ स्वर वर्ण। इनको मिलाकर ४८ धाम तक ब्रह्माण्ड की माप है। अतः ४९ अक्षर को जगती कहते हैं। ४९वां धाम ब्रह्माण्ड की सीमा है जिसके भीतर ४९ प्रकार की गति ४९ मरुत् हैं।
आज्ञा चक्र के २ दल (हंक्षं) मिला कर ५० दल होते हैं, जो ब्रह्माण्ड का आभा मण्डल है।
उसके बाद सहस्रार के १००० दल अनन्त विश्व की माप हैं (१००० प्रकार से सृष्टि की शाखा या बल्शा)।
मूलाधार के भूमि तत्त्व का बीज मन्त्र है-लण्। अतः अंग्रेजी में भूमि को Land कहते हैं। इसमें कुण्डलिनी रूप पराशक्ति का वास है, अतः व से स तक अक्षर हैं।
स्वाधिष्ठान में ब से ल तक अक्षर हैं, अतः मेरुदण्ड का मूल ही बल का केन्द्र है। बीज मन्त्र वं है, अतः इस क्षेत्र का मुख्य अंग वं (womb) है।
मणिपूर क्षेत्र से ध्वनि निकलती है, अतः इसके अक्षरों डफ को वाद्य कहते हैं। बीज मन्त्र रं भेड़ा की तरह धक्का देता है, अतः रं (Ram) = भेड़ा। यह सूर्य क्षेत्र है अतः यहां के स्नायु गांठ को Solar plexus कहते हैं। मूलाधार से मणिपूर तक लंवंरं क्षेत्र हुआ अतः इसे Lumber region कहते हैं।
हृदय का बीजमन्त्र यं है। अतः हृदय की प्रिय चीज Yummy है। यहां विष्णु ग्रन्थि है, अतः यहां का वस्त्र Vest है। यहां क से ठ तक वर्ण है, अतः इसका द्वार कण्ठ है।
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