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वेद …..धर्म का मूल हैं
श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- सर्वश्रेष्ठ धर्मशास्त्र-विधाता मनु महाराज ने लिखा है-
“योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते भ्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥”
(मनु० २।१६८)
तात्पर्य है, जो द्विज वेद न पढ़कर किसी भी अन्य शास्त्र-ग्रन्थ या कर्म में परिश्रम करता है, वह जीवित होते हुए ही अपने कुल सहित शीघ्र शूद्रत्व (पतितावस्था)- को प्राप्त हो जाता है।
चेतावनी के साथ निर्देश देते हुए वे तो यह भी कहते हैं कि-
“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥
योऽवमन्येत ते मुले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥”
(मनु० २।१०-११)
वेद श्रुति के और धर्मशास्त्र स्मृतिके परिचायक हैं। ये दोनों सभी विषयों से तर्करहित हैं; क्योंकि इनसे ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। जो द्विज धर्मके इन दोनों मूलका तर्कशास्त्र के सहारे अपमान करता है, उस वेद-निन्दक नास्तिक को साधुजनों द्वारा (समाज से) बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिये।
भगवान् के श्वासोच्छ्राससे निःसृत अपौरुषेय वेद पुस्तक नहीं वरन् नित्य, शाश्वत, अप्रमेय और ज्ञानाकार साक्षात् वाङ्मय श्रीविग्रह है-
” अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः ।
मीमांसान्यायविद्याश्च प्रमाणाष्टकसंयुताः ॥”
अर्थात् ब्रह्मा के मुखसे वेद, आठों प्रमाण ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द (आप्त-वचन), अनुपलब्धि, अर्थापत्ति, ऐतिह्य और स्वभाव) सहित मीमांसा और न्यायशास्त्र का आविर्भाव हुआ।
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि-
“स यथाद्वैधाप्रेरभ्याहितात् पृथग्भूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि ॥”
(शतपथ० १४।२।४।१०, बृहदारण्यक उप० २।४।१०)
जिस प्रकार गीले काठ द्वारा उत्पन्न अग्रि से पृथक् धुआँ भी निकलता है, उसी प्रकार चारों वेदों के साथ ही इतिहास, पुराण, उपनिषद्, मन्त्र- विवरण और अर्थवाद आदि हैं। ये सब महान् परमात्मा के निःश्वास हैं – अर्थात् बिना प्रयत्न के परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं।
कौषीतकि ब्राह्मण (१०।३०) का मत है कि वेद के मन्त्र तपःपूत ऋषियों द्वारा आविर्भूत हुए हैं या देखे गये हैं, बनाये नहीं गये। ऐतरेय ब्राह्मण (३ । १९)-का कहना है कि गौरवीति ने सूत्रों या मन्त्र-समूहों को देखा था। ये दोनों ग्रन्थ स्वयं वैदिक साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इससे विदित होता है कि सनातन काल से ही वेद भारतीय जन-जीवनके प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। संस्कृत- साहित्यके सभी ग्रन्थ वेदोंको नित्य मानते हैं। भारत की आञ्चलिक भाषाओं के ग्रन्थ भी वेदों को शाश्वत मानते हैं। भट्टभास्कर, स्कन्दस्वामी, सायणाचार्य, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि वेद की नित्यता स्वीकार करते हैं। असंख्य सनातनी वेदों को हिरण्यगर्भ से सम्भूत स्वीकार करते हैं।
कुछ आँग्ल विद्वान् ऐसे हैं जो वेदों को नित्य तो नहीं स्वीकार करते, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से उसका अतीव महत्त्व स्वीकार करते हैं। वेदों से मनुष्य-जाति की प्राचीनतम रीति-नीतियाँ जानी जाती हैं। इस विचार से वे वेदों को रत्नराजि की तरह संचित करते हैं। ऐतिहासिक महत्ता स्वीकारना ही इस बात का प्रमाण है कि वे परोक्षरूप में वैदिक-साहित्य के मनोभावों का ही प्रतिपादन करते हैं। शतपथ-ब्राह्मण (१४।५।४।१०) और अथर्ववेद इतिहास को एक कला मानते हैं। मनुस्मृति (२।७२)- में भी इतिहास की महिमा है। छान्दोग्योपनिषद् और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इतिहास को पञ्चम वेद माना गया। है। महाभारत (आदि० १।१।८७) में इतिहास को मोहान्धकार दूर करने वाला बताया गया है। वैदिक संहिताओं में विविध ऋषियों और राजाओं के वंशों का विवरण है। शतपथ में मिथिला, विदेह, दुष्यन्त, भरत, जनमेजय, उग्रसेन आदिका वर्णन है। ताण्ड्य ब्राह्मण में भी विदेह आदि की कथाएँ हैं । तैत्तिरीय आरण्यक में कालकंज असुर और वाराहावतार की बातें हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय और शांखायन आरण्यकों में शुनःशेप, अहल्या, खाण्डव, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, काशी, पाञ्चाल आदिकी स्पष्ट कथाएँ हैं। ऋग्वेद में उर्वशी पुरूरवा, यम-यमी आदि की कथाएँ हैं। ऋग्वेद का दाशराज-युद्ध सूर्य-चन्द्रवंशियों का प्रमुख युद्ध है। इस प्रकार वेदों और वैदिक-साहित्य में अति प्राचीन ऐतिहासिकता और ऐतिहासिक महत्त्व रहने के कारण ऐतिहासिकों की दृष्टि में वेद-विद्या का अध्ययन अनिवार्य होना चाहिये।
अशान्ति और अव्यवस्थामें परिवेष्टित हासोन्मुखी विचारधारा को नवीन सभ्यता कहकर स्वयं को विकासवादी युगका परिष्कृत बुद्धिजीवी मानने वाला वर्तमान का दम्भी मानव कितना निरीह और लाचार होकर रह गया है। ‘जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै’ की परिस्थिति में घिरकर ‘कालहि कर्महि ईस्वरहि’ को मिथ्या दोष लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठा है। ऐसी विषम परिस्थिति में पाँच हजार वर्ष पूर्व का वेदोद्धारक गीता के माध्यम से कहता है-
वेद के तात्पर्य को हृदयङ्गम करने हेतु इस संसार- वृक्षको जानना आवश्यक है, जिसकी शाखाएँ नीचेकी ओर है। यह अश्वत्थ वृक्ष आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाला और ब्रह्मारूप मूल शाखावाला है। वेद इसके पत्ते हैं और यह अविनाशी है-
” ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥”
(गीता १५।१)
वर्तमान परिस्थितिमें वेद जनसाधारण के लिये अत्यन्त क्लिष्ट विषय बनकर रह गया है। इस धारणाको स्वीकार करनेका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि वेद हमारे लिये अनुपयोगी हैं। ‘नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा…’ की उक्तिको चरितार्थ करना बुद्धिमत्ता नहीं। किसी विषयको समझनेका परिश्रम न कर पाना, परिस्थितियोंकी निर्भरता कहकर भले ही टाला जा सकता हो, पर जिन्होंने गुरु- चरणोंमें बैठकर वर्षों वेदविद्याका स्वाध्याय और चिन्तन किया हो, उनकी न सुनना तो बौद्धिक अपरिपक्वताका स्पष्ट प्रमाण ही होगा।
स्वयं भगवान् व्यासदेव इस कुतर्कके प्रति सचेष्ट थे, तभी उन्होंने वेदोंके इस दुरूह समझे जानेवाले ज्ञानको चार भागोंमें विभक्त किया-
“ऋगथर्वयजुस्साम्नां राशीनुद्धृत्य वर्गशः।
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव।।
तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः ।
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः ॥”
(श्रीमद्भा० १२।६।५०-५१ )
जैसे मणियों के समूहों में से विभिन्न जाति की मणियाँ पृथक् कर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यास देव ने मन्त्र समुदाय में से भिन्न- भिन्न प्रकरणों के अनुसार मन्त्रों का संग्रह करके उनसे ऋक्, यजुः साम और अथर्व-ये चार संहिताएँ बनाय और अपने चार शिष्यों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक संहिता की शिक्षा दी।
शिष्य-परम्परानुगत पैल, वैशम्पायन, जैमिनि, सुमन्तु- जैसे शिष्यों के माध्यम से इन संहिताओं का विस्तार किया गया। इन्द्रमिति वाष्कल, बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर, अग्निमित्र, माण्डूकेय, शाकल्य, वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य, शिशिर, जातूकर्ण्य, बलाक, पैल, वैताल, विराज, बालायनि, भज्य एवं कसार जैसे अमिततेजा महामुनियों ने इस परम्परा में अपना योगदान देकर वेदों के गूढ तत्त्वका विवेचन किया।
वेदविषयक शंकाओं का समाधान करके एक परमात्मा में सबके समन्वय का नाम वेदान्त है। भगवान् कहते हैं-
“सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥”
(गीता १५।१५)
मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ। मुझमें ही स्मृति-ज्ञान तथा अपोहन (संशय- विपर्यय आदि वितर्क-जाल का छेदन) भासित है। वेद ही मुझे जानने के सक्षम माध्यम हैं तथा मैं ही वेदान्त का कर्ता और वेदों का ज्ञाता हूँ ।
निश्चित रूप से सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही वेदों का विधेय है-
” सकलवेदगणेरितसद्गुणस्वत्वमिति सर्वमनीषिजना रताः ।
त्वयि सुभद्र गुणश्रवणादिभिस्तव पदनुस्मरणेन गतक्लमाः ॥”
(श्री श्रीधर स्वामी)
सारे वेद आपकी प्रशस्ति का गुणानुवाद करते हैं, इसीलिये विश्व के समस्त बुधजन आपके मङ्गलमय कल्याणकारी गुणों के श्रवण-स्मरण आदि के द्वारा आपसे ही अपनत्व रखते हैं और आपके चरणारविन्दों का स्मरण करके समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं। ‘जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आपकी उपासना करते हैं, उनके समस्त पाप और दुःखों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं।
(श्रीमद्भा० १२ । ६ । ६८) ।’
धर्म, संस्कृति, विचारधारा, परम्परा, वाड्मय तथा आचारसंहिता – जैसे शब्दों के साथ ‘वैदिक’ शब्द का मात्र अनुस्यूत हो जाना ही उसकी महत्ता का द्योतक बन जाता है। काल-गणना में भी वैदिक काल सर्वोपरि माना जाता है।
वेद तो स्वयं ज्ञान के अक्षय कोष हैं, उनकी प्रत्येक ऋचाओं में पाण्डित्यपूर्ण एवं ओजपूर्ण माधुर्य का मणि कांचन-संयोग है। वेदों की इस दिव्य स्वर्ण-मंजूषा में से किस मनोरम समुज्ज्वल पक्ष का वर्णन किया जाय ? यह चयन दुष्कर है। अस्तु,
‘तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु‘ ‘मेरा मन कल्याणकारी संकल्पोंवाला हो‘ – इस श्रुतिप्रतिपादित कामना के साथ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि क्रान्तदर्शी ऋषि- मुनियोंद्वारा की गयी यह उद्घोषणा कितनी सारगर्भित, सटीक और मार्मिक है।
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की अथ से इतितककी सारी बातें वेदों में निहित हैं, मनुष्य जाति की उच्चतम सम्पत्ति वेदों में है, जो वेदों में नहीं वह कहीं भी नहीं । अतः वेद ही अखिल धर्मो के मूल हैं-सर्वस्व हैं– ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्‘।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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