रामचरितमानस का मंगलाचरण
अरुण कुमार उपाध्याय(धर्मज्ञ)-
यह संस्कृत तथा लोकभाषा भोजपुरी-दोनों में है। तुलसीदास जी का जन्म बक्सर के राजापुर गांव में हुआ था जिसके एक तरफ कर्मनाशा तथा दूसरी तरफ गंगा नदी है। उसके पश्चिम काशी तथा पूर्व में मगध है। इन विपरीतों का उल्लेख तुलसीदास जी ने स्वयं मंगलाचरण में ही किया है-
काशी-मग सुरसरि क्रमनाशा। मरु-मारव महिदेव-गवासा॥ (बाल काण्ड, ५/४)
तुलसीदास परिवार के नरोत्तम दास ने सुदामा चरित लिखा था। उनकी ८ पीढ़ी बाद पण्डित रामगुलाम द्विवेदी मिर्जापुर में बस गये थे जिनके पौत्र आरा के निकट पैगा में १९६३ में ग्रामसेवक थे। उनके पास तुलसीदासकी वंशावली देखी थी। तुलसीदास का अध्ययन तथा लेखन काशी में हुआ जहां की भाषा भी भोजपुरी ही है। किन्तु १८५७ में भोजपुरी क्षेत्र में विद्रोह में इस क्षेत्र के २० लाख से अधिक लोगों का नरसंहार हुआ (अमरेश मिश्र की पुस्तक-War of Civilizations-2 volumes)। उसके बाद भी इसक्षेत्र के लोगों को दण्डित करने के लिए प्रायः १० लाख लोगों को गुलाम मजदूर रूप में मारीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड में भेजा गया। नरसंहार में जीविका नष्ट होने के कारण वे जाने को बाध्य हुए। ३ पीढ़ी बाद वे संकट से किसी प्रकार मुक्त हो कर अभी सम्पन्न हैं। वे सभी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए रामचरितमानस ले गये थे। अतः १८५८ के एक संहारकर्त्ता मेजर ग्रियर्सन ने तुलसीदास को बक्सर के राजपुर से यथा सम्भव दूर भगाया। पश्चिम उत्तर प्रदेश के बान्दा जिले में एक राजापुर गांव खोजा जहां उन्होंने २ बूढ़ी स्त्रियों से सुना कि तुलसीदास इसी गांव में पैदा हुए थे। (बिहार नागरी प्रचारिणी सभा, आरा से प्रकाशित शिवनन्दन सहाय लिखित तुलसीदास की जीवनी, १९१५) निश्चित रूप से वे स्त्रियां ६०० वर्ष की नहीं थीं जिनके सामने तुलसीदास जी का जन्म हुआ हो। अन्य किसी को यह पता नहीं था। इसके बाद अंग्रेज भक्ति में ग्रियर्सन की नकल अभी तक चल रही है। उन्होंने केवल शाहाबाद (अभी आरा, बक्सर, रोहतास, भभुआ में विभाजित) जिले को आदर्श भोजपुरी क्षेत्र कहा। काशी के कबीर, रविदास, गोरखपुर के गोरखनाथ, रोहतास के दरिया साहब आदि को भूल कर लोग अपने पितामह आदि को ही भोजपुरी का प्रथम कवि सिद्ध कर रहे हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने काशी, जौनपुर आदि के कई लेखकों को ब्रजभाषी भी लिखा है। शासन केन्द्र दिल्ली होने से भी खड़ी बोली तथा ब्रजभाषा को महत्त्व मिला।
संस्कृत मंगलाचरण में पहले वाणी-विनायक की वन्दना है। गणेश या विनायक की पूजा से सभी काम आरम्भ होते हैं, यहां उनकी सरस्वती से तुलना भी की गयी है। जिस ज्ञान को गिना जा सके वह गणेश है, जो गिना नहीं जा सके, अर्थात् रस रूप है, वह रसवती या सरस्वती है।
वर्णानामर्थसंघानां, रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ, वन्दे वाणी विनायकौ॥
मंगल करने के लिए दोनों एक हैं। वर्ण, शब्द, छन्द आदि का समूह गिना जा सकता है। यह गणेश या विनायक हैं। किन्तु छन्द का लय या रस, शब्दों के अर्थ और भाव गिने नहीं जा सकते। वह सरस्वती हैं।
उसके बाद आदिगुरु शंकर की वन्दना है।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
भवानी शंकर के वार्त्तालाप से सभी विद्याओं का आरम्भ हुआ। भवानी का प्रश्न जिज्ञासा है, उससे ही ज्ञान का आरम्भ होता है। आध्यात्मिक रूप से मस्तिष्क के वाम-दक्षिण भागों में जितने सम्पर्क सूत्र हैं, व्यक्ति उतना ही बुद्धिमान होता है। इसका अन्य प्रकार से वर्णन है। श्रद्धा का अर्थ मनुष्य का किसी विषय यावस्तु से सम्बन्ध या आकर्षण है। उस पर विश्वास हो तभी विषय के रहस्य दीखते हैं। यदि वेद या किसी विषय में श्रद्धा या रुचि हो तो उसे पढ़ते हैं। किन्तु उसके विज्ञान पर विश्वास नहीं होने से वह नहीं दीखता है। सामान्य दृष्टि से हिमालय देखने पर वह केवल ऊंची भूमि दीखती है। उसमें श्रद्धा होने से वृक्षों, हिम या पर्वत कासौन्दर्य दीखता है। वनस्पति विज्ञान जानने वाले को वृक्षों का वर्गीकरण दीखता है। भूगर्भ वैज्ञानिकको चट्टानों के निर्माण का इतिहास दीखता है। यन्त्री सोचता है कि उस पर मार्ग, बान्ध आदि कैसे बन सकते हैं।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥
हर गुरु भगवान् शिव का रूप है, क्योंकि उसके द्वारा ही बोध होता है। उसके बाद स्वाध्याय सम्भव है। ज्ञान होने पर अन्य दुर्गुण छिप जाते हैं तथा उसकी वन्दना होती है, जैसे शंकर के ललाट पर आश्रित होने पर वक्र चन्द्र की भी वन्दना होती है।
सीताराम-गुणग्राम-पुण्यारण्य-विहारिणौ।
वन्दे विशुद्ध-विज्ञानौ कवीश्वर-कपीश्वरौ॥४॥
राम कथा के माध्यम से कवीश्वर वाल्मीकि तथा कपीश्वर हनुमान् ने वेद तथा विज्ञान का बोध कराया। वाल्मीकि २४वें व्यास थे। उन्होंने वेद को स्पष्ट करने के लिए रामकथा लिखी जैसा २८वें व्यास कृष्ण द्वैपायन ने इसी उद्देश्य से भागवत पुराण लिखा।
वेदवेद्ये परे पुंसि, जाते दशरथात्मजे।
वेदो प्राचेतसादासीत्, साक्षाद् रामायणात्मना॥ (मन्त्र रामायण, १/१/१)
१७३० में ब्रह्म सूत्र के गोविन्द भाष्य के आरम्भ में भागवत पुराण के ४ उद्देश्य लिखे हैं। यह महत्त्वपूर्ण श्लोक था अतः विलियम जोन्स ने इसे गरुड़ पुराण से गायब करवा दिया
उक्तं च गारुड़े-अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां, भारतार्थ विनिर्णयः।
गायत्री भाष्य रूपोऽसौ, वेदार्थ परिबृंहणः॥
भागवत पुराण का प्रथम श्लोक ही गायत्री मन्त्र तथा ब्रह्म सूत्र का निर्देश करता है।
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतः चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्,
तेने ब्रह्महृदा य आदिकवये, मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो, यत्र त्रिसर्गो मृषा,
धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि॥
जैसे जन्माद्यस्य यतः = ब्रह्म सूत्र के आरम्भ में ब्रह्म की परिभाषा तथा अन्य सूत्रों का निर्देश। सत्यं परं धीमहि = गायत्री का तृतीय पाद
उद्भव-स्थिति-संहार-कारिणीं क्लेश-हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
मूल प्रकृति रूपी सीता की स्तुति, जिससे सृष्टि का उद्भव आदि होता है।
यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुराः,
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां,
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
= परब्रह्म रूप भगवान् राम की स्तुति।
नाना पुराण-निगमागमसम्मतं यद्,
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषा निबद्धमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥
आगम-निगम-पुराण का समन्वय-यही ज्ञान का स्रोत है। इसे रामायण द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है। भ्रम दूर होने या नया ज्ञान होने से आन्तरिक प्रसन्नता होती है। लेखक को प्रसन्नता हो तो पाठक को भी होगी।
लोकभाषा के मंगलाचरण का क्रम है-
(१) गणेश स्तुति, (२) परब्रह्म रूप विष्णु के अवतार श्री राम, (३) शिव रूप गुरु, (४) सन्त समाज, (५) सज्जन-असज्जन दोनों की वन्दना, (६) शिव-पार्वती तथा उनके आराध्य सीताराम, (७) शिव अवतार हनुमान्, (८) विधि-निषेध रूपी कथा, जो वेद का उद्देश्य है। (९) इससे लाभ।
असज्जन वन्दना अद्वितीय है। प्रायः यही क्रम रुद्राष्टाध्यायी में भी है।
अध्याय १-गणेश स्तुति, शिव संकल्प सूक्त द्वारा मन का वर्णन। ११ इन्द्रियां रुद्र हैं, उनमें मन शिव है।
अध्याय २-पुरुष सूक्त द्वारा परब्रह्म से सृष्टि क्रम, उत्तर नारायण सूक्त द्वारा नारायण स्तुति।
अध्याय ३-सर्वव्यापी शक्ति रूप इन्द्र की स्तुति।
अध्याय ४-आदित्य के मित्र रूप, सूर्य स्तुति।
अध्याय ५-६६ मन्त्रों द्वारा रुद्र के १०० नाम। इनमें आततायी, स्तेनपति आदि बुरे रूपों का भी वर्णन है, जैसे रामचरितमानस में असज्जन स्तुति है। इसमें नमः का बार बार प्रयोग है, अतः तैत्तिरीय संहिता में इसे नमकम् भी कहा है। नमः भी अपना निषेध है, अर्पण करने के लिए कहते हैं, न मम = मेरा नहीं है।
अध्याय ६-रुद्र के शान्त सोम रूप की स्तुति।
अध्याय ७-जटा अध्याय में मरुत् का वर्णन। रामचरितमानस में मरुत् रूप हनुमान स्तुति।
अध्याय ८-इसमें ’च, मे’ का बार-बार उल्लेख है, अतः इसे चमक अध्याय भी कहते हैं। यज्ञ से समाज तथा व्यक्ति को क्या मिलता है, इनकी सूची है। रामचरितमानस में भी इनकी सूची है।
उसके बाद २ अध्याय शान्ति पाठ तथा स्वस्ति पाठ के हैं।
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