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अज्ञेय ब्रह्म
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power- १. ब्रह्म का एकत्व–
(१) सभी जीवों में एक ही आत्मा है।
यस्तु सर्वाणि भूतानि-आत्मनि एव अनुपश्यति।
सर्व भूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि-आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः, एकत्वं अनुपश्यतः॥७॥
(ईशावास्य उपनिषद्)
दोनों श्लोक में शब्द है-अनुपश्यतः = बाद में देखा। प्रथम दृष्टि में सभी भिन्न भिन्न हैं। बाद में पता चलता है कि अन्य मनुष्य भी अपने ही जैसे हैं। सबका भोजन, पाचन, श्वास क्रिया आदि एक ही जैसे हैं। अन्य पशु भी मनुष्य जैसा ही भोजन करते हैं, श्वास लेते हैं। सूक्ष्म स्तरों पर कलिल (सेल), अणु परमाणु रचना एक जैसी है। परमाणु के मूल कणों का अर्ध-ज्ञात स्रोत भी एक ही है। इस तर्क के अनुसार अन्तिम मूल तत्त्व एक ही है।
(२) विज्ञान के नियम हर स्थान और हर समय समान हैं। बिना इस धारणा के विज्ञान के नियम नहीं बन सकते हैं। ब्रह्म के एकत्व पर ही विज्ञान आधारित है। यदि एक स्थान पर जल के अणु में २ हाइड्रोजन और १ ऑक्सीजन परमाणु हैं, तो हर स्थान पर वही होगा। यदि यह बदलने लगे तो विज्ञान के सिद्धान्त नहीं स्थिर हो सकते हैं। केवल इसी सृष्टि में नहीं, भविष्य की सृष्टि भी वैसी ही होगी, क्योंकि नियम वही रहते हैं।
सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वं अकल्पयत् (ऋक्, १०/१९०/३)
(३) सभी वस्तु परस्पर सम्बन्धित हैं। सभी जीव वहां की भूमि में उत्पन्न वृक्ष उत्पाद से जीवित रहते हैं। वृक्ष का जीवन भी भूमि,वायु, जल आदि के परिवेश के औसार है। पृथ्वी का जन्म भी आकाश से हुआ है, अतः उसी के अनुसार इसके गुण होंगे। अतः वेद में आध्यात्मिक (आत्म = स्वयं के भीतर का विश्व), आधिभौतिक (पृथ्वी पर का विश्व) तथा आधिदैविक (आकाश की रचनायें) विश्वों को परस्पर सम्बन्धित कहा गया है (गीता, ८/१-३)।
(४) ब्रह्म एक होने के कारण उसकी रचनायें परस्पर सम्बन्धित हैं। दृश्य जगत् की भिन्नता का मूल स्रोत एक अव्यक्त ब्रह्म है। अतः वह सभी पदार्थों में छिपा हुआ है।
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऋक्, ६/४७,१८, शतपथ ब्राह्मण, १४/५/१९)
= माया अर्थात् आवरण द्वारा फैली हुई इन्द्र ऊर्जा पुरु (पुर या रचना) रूप में आता है। वह रूप अलग से स्पष्ट दीखता है। सभी रूप उसके ही प्रतिरूप हैं, ये अनेक (सहस्रों) हैं।
रूपं रूपं मघवाबोभवीति माया कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥ (ऋक्, ३/५/३/८)
= मघवा का अर्थ महत् रूप है-बिखरी ऊर्जा का संकलन। सांख्य दर्शन में इसे महत् कहा है। जब इसमें एक पिण्ड होने का भाव आता है तो यह अहंकार है। मनुष्य शरीर में १० खर्व से अधिक कलिल हैं, वे सभी अपने को एक ही शरीर का अंश मानते हैं। हर शरीर के कणों का एक होने का भाव मन्त्र है, अन्य शरीर का भिन्न मन्त्र या एकत्व है। आकाश में इन्द्र का महत् रूप सूर्य है जो प्राण का स्रोत है। उससे हमारे शरीर में मन्त्र १ मुहूर्त में ३ बार आता और जाता है।
तत् सृष्ट्वा तदेव अन्प्राविशत् (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६/६)
तत् (वह-दूर स्रोत ब्रह्म) ने सृष्टि कर उसी में प्रवेश किया।
२. आधुनिक अज्ञेयता-
(१) गोडेल नियम-आधुनिक गणित में गोडेल की अपूर्णता का सिद्धान्त (१९३०) है, जिसे कई प्रकार से कहा जाता है।
– कोई भी सिद्धान्त अन्तर्विरोध रहित और पूर्ण-दोनों नहीं हो सकता।
– हर सिद्धान्त को प्रमाणित या अप्रमाणित नहीं कर सकते।
तर्क में भाषा के जितने नियम हैं, उन अक्षरों या संख्याओं को पूर्ण संख्याओं से व्यक्त किया जा सकता है। किन्तु विश्व की सभी घटनाओं को पूर्ण संख्या द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते। अतः पूर्ण सिद्धान्त बनाना असम्भव है। जैसे एक स्थान पर मनुष्यों को गिन सकते हैं। पर किसी कमरे में प्रकाश कणो या आकाश विन्दुओं को नहीं गिन सकते। विन्दु जितनी कल्पना करें उससे अधिक छोटा हो सकता है।
हर तर्क कुछ मूल परिभाषा तथा अनुमान से आरम्भ होता है। इन मूल अनुमानों का कोई प्रमाण नहीं है।
(२) विश्व का अनन्त विस्तार-विश्व में परस्पर प्रभावित इतने कण या पिण्ड हैं कि किसी भी एक पिण्ड की स्थिति और गति का पूर्ण निर्धारण नहीं हो सकता।
(३) सापेक्षवाद-आइंस्टाइन के २ प्रकार के सापेक्षवाद हैं। विश्व में केवल प्रकाश गति समान है; बाकी हर गति तथा स्थिति दर्शक के अनुसार बदलती है। आकाश के ३ आयामों की तरह काल भी एक आयाम है। इसके कारण पूर्ण सत्य नहीं जान सकते हैं।
(४) क्वाण्टम यान्त्रिकी-आधुनिक क्वाण्टम मेकानिक्स में भी कहा है कि गति-आवेग दोनों की माप में एक में जितनी शुद्धि होगी, दूसरे में उतनी ही अशुद्धि होगी। इसी प्रकार काल का आभास जितना सूक्ष्म होगा, घटना का ज्ञान उतना ही कम होगा। काल अनुमान की विधि अभिनव गुप्त द्वारा की गयी है (तन्त्रसार, आह्निक ६, तन्त्रालोक आह्निक ६)। काल का अनुमान ३ दिन, पक्ष, मास या वर्ष का होता है जिसके बारे में एक श्लोक प्रसिद्ध है-
अति सूक्ष्म अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतकर्मं शुभाशुभम्।
त्रिभिर्पक्षैः त्रिभिर्मासैः त्रिभिर्वर्षैः त्रिभिर्दिनैः॥
३. नासदीय सूक्त-
सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य क्या देव भी नहीं थे। अतः निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि सृष्टि कैसे हुई। अतः इस सूक्त में सृष्टि आरम्भ के १० प्रकार के अनुमान या सिद्धान्त हैं।
नासदीय सूक्त-नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्॥१॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं च नास॥२॥
तम आसीत् तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्व मा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्व पिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥३॥
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥४॥
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन् महिमान आसन् त्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्॥५॥
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत अजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥६॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग यदि वा न वेद॥७॥
(ऋग्वेद, १०/१२९/१-७, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/३-९)
इन १० सिद्धान्तों की व्याख्या पण्डित मधुसूदन ओझा ने दशवाद रहस्य तथा प्रति वाद के लिए एक-एक पुस्तक में की।
(१) सत्-असत् वाद-सृष्टि के आरम्भ में देव भी नहीं थे, अतः कहना कठिन है कि आरम्भ में सृष्टि कैसी थी। वर्तमान विश्व में सत्य-असत्-सदसत्, या सत्य-ऋत-ऋतसत्य के २१ प्रकार के मिश्रण दीखते हैं जिनका अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र पुरुष सूक्त, ७ आदि में उल्लेख है।
(२) रजो वाद-विश्व में सभी पिण्ड गतिशील हैं तथा केन्द्रीय आकर्षण (आकृष्णेन रजसा वर्तमानो-ऋक्, १/३५/२) और संकर्षण (पिण्डों का मिलित आकर्षण) से स्थिर हैं।
(३) व्योमवाद-शून्य आकाश से सहस्र प्रकार की सृष्टि हुई-सहस्राक्षरा परमे व्योमन् (ऋक्, १/१६४/४१, १०/९०/१)।
(४) अपरवाद-सृष्टि के लिए ब्रह्म के २ रूप-पर-अपर (ऋक्, १/१६४/१७-१९), पुरुष-प्रकृति (सांख्य दर्शन) या अग्नि-सोम (बृहद् जाबाल उपनिषद् कहते) हैं।
(५) आवरणवाद-सृष्टि का वयन। पिण्डों के आवरण (वयोनाध), निर्माण सूत्रों का समन्वय (कात्यायनी-सूत कातने वाली), गोजा-अब्जा-अद्रिजा-ऋतजा आदि, तार-तम्य (ताना-बाना, लम्बी दिशा तथा चौड़ाई दिशा में वस्त्रों के सूत्र) आदि इनके विविध रूप हैं।
(६) अम्भोवाद-समरूप रस से सलिल (तरंग युक्त) अप् (ब्रह्माण्ड का जल), अम्भ (अप् में शब्द या तरंग), मर् (सौर मण्डल, मरीचि), ४ पार्थिव मण्डल-वायु, जल, भूमि, जीव जगत्।
(७) अमृत-मृत्यु वाद-गीता में क्षर-अक्षर विभाग कहा है। निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च (ऋक्, १/३५/२)। विष्णु पुराण, अध्याय (२/७) में कृतक-अकृतक कहा है।
(८) अहोरात्र वाद-मूल अव्यक्त से व्यक्त के ९ सर्गों की सृष्टि को ब्रह्मा का दिन तथा उनके पुनः अव्यक्त में लय को रात्रि कहते हैं (गीता, ८/१८)
(९) देववाद-विश्व के हर विन्दु या शून्य में भी ऊर्जा फैली हुयी है। शून्य की ऊर्जा इन्द्र है (नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किं च न-ऋक्, ९/६९/६)। किन्तु हर ऊर्जा से सृष्टि नहीं होती। उसके जिस रूप से सृष्टि होती है, वह देव है, निष्क्रिय या तम भाग असुर है (मनुस्मृति, ३/२०१)। सौर मण्डल के ३३ धामों के प्राण ३३ देव हैं, हर धाम में ३-३ असुर हैं-वृत्र, नमुचि, बल। असुर ३ गुणा होने के कारण, सृष्ट विश्व पूरुष का केवल १/४ भाग है (पुरुष सूक्त, ३)। आधुनिक अनुमान १० से ८५% तक है।
(१०) संशयवाद-मूल स्रोत किसी ने देखा नहीं है, वर्तमान परिवर्तन क्रम के अनुसार कई प्रकार के अनुमान हैं। अतः हर अनुमान या सिद्धान्त में कुछ संशय रहता है।
इसके अतिरिक्त भी २ वादों के उल्लेख वेद में हैं-
(११) इतिवृत्त वाद-पुरानी स्थितियों या क्रम के कुछ अवशेष रह जाते हैं, जिनसे भूतकाल का अनुमान होता है। यह पुराणों का मुख्य अंग सर्ग-प्रतिसर्ग है।
(१२) सिद्धान्त वाद-ब्रह्म के एकत्व का एक अर्थ है कि विज्ञान के नियम हर काल तथा स्थान पर एक ही हैं। इस मान्यता पर ही सभी विज्ञान आधारित हैं।
४. अज्ञेय जानने की विधि-
(१) समन्वय-एक सिद्धान्त पूर्ण नहीं हो सकता। अतः कई सिद्धान्तों का समन्वय करना पड़ता है।
नवैकादश पञ्चत्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्॥१४॥
एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्।
स्थित्युत्पत्तिलयान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥१५॥
(भागवत पुराण, ११/१९/१४-१५)
= जगत् के अनन्त पदार्थों का ९, ११, ५, ३ के रूप में वर्गीकरण करना (न्याय-वैशेषिक में ९ द्रव्य, बौद्ध दर्शन में ५ स्कन्ध, सांख्य में ३ गुण, जैन दर्शन में पञ्चास्तिकाय, प्रत्यभिज्ञा दर्शन में प्रकिति-पुरुष भेदों में ऊपर के ११ मूल तत्त्व) और अन्त में एक ही मूल तत्त्व को अनुगत देखना-यह प्रक्रिया ज्ञान है। एक ही मूल तत्त्व से सबकी उत्पत्ति, स्थिति तथा उसमें लय देखना विज्ञान है।
(२) द्वैत सिद्धान्त-एक ही मूल ब्रह्म ने सृष्टि के लिए अपने को पुरुष और प्रकृति में विभाजित किया। सांख्य दर्शन के अनुसार चेतन अविभाज्य तत्त्व पुरुष है। पदार्थ तत्त्व प्रकृति है। इससे विश्व का जन्म होने से यह मातृ है जिससे अंग्रेजी में मैटर (matter) हुआ है। पृथ्वी को उत्पन्न करने के कारण सूर्य सविता (सव = प्रसव, जन्म) या पिता है। उसका स्रोत ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) पितामह है। उसका स्रोत ब्रह्माण्डों का समूह प्रपितामह है। अन्तिम मूल स्रोत तत्-सविता या अव्यक्त ब्रह्म है।
ब्रह्म के द्वित्व को कई प्रकार से कहा है-
अग्नि-सोम – अग्नि = सघन पदार्थ या ऊर्जा या ताप (सीमा के भीतर)। सोम = आकाश में विरल फैला हुआ पदार्थ या ऊर्जा।
वृषा योषा- वृषा = वर्षा करने वाला। जल जैसे फैले हुए अप् के स्तरों से पिण्ड रूप द्रप्स (विन्दु, drops), हैं। ये विस्तृत मेघ या वराह जैसे विस्तार से निकले या गिरे, अतः इनको स्कन्न कहते हैं।
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः॥ (ऋक्, १०/१७/११, वाज. यजु, १३/५)
यस्ते द्रप्सः स्कन्दति॥१२॥ (ऋक्, १०/१७/१२)
जो आकाश क्षेत्र इनको ग्रहण करता है, वह योषा (युक्त होने वाला, पत्नी) है।
योषा वै वेदिः, वृषा अग्निः (शतपथ ब्राह्मण, १/२/५/१५)
या योषा वधू जैसा बान्ध कर रखती है-पुरन्ध्रिः योषा (वाज. यजु, २२/२२) योषित्येव रूपं दधाति, तस्मात् स्त्री युवतिः प्रिया भावुका (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/८/१३/२, शतपथ ब्राह्मण, १३/१/९/६)
(३) त्रित्व- (क) ब्रह्म हमारी कल्पना से परे है अतः उसे ज्ञान, बल, क्रिया रूप में देखते हैं, जिनकी प्रतिमा रूप जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा हैं-
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते,
न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते,
स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
(ख) अन्य प्रकार से इसे पुरुष-श्री-यज्ञ रूप में देखते हैं। गीता (८/१-३) में ब्रह्म (पुरुष), कर्म, यज्ञ कहा है। पुरुष रूप में देखने पर हम १/४ भाग ही देखते हैं, जो पूरुष का १ पाद है।
एतावानस्य महिमा-अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
ततो विराडजायत विराजो अधिपूरुषः॥
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः॥४॥
(पुरुष सूक्त, वाज, यजु, अध्याय, ३१)
इसमें भी दृश्य पिण्ड विराट् (राजते = प्रकाशित) है, उसका अधिष्ठान आकाश में फैला विरल पदार्थ है, जो बहुत बड़ा है, अतः इसे भी दीर्घ पू से अधिपूरुष लिखा है। २०२० में प्रथम बारैनका अनुमान है। विराट् (दृश्य ग्रह, तारा, ब्रह्माण्ड) ५%, अधिपूरुष १९% तथा अज्ञात पदार्थ ७६% है।
पुरुष रूप में मनुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, पूर्ण विश्व क्रमशः १-१ कोटि गुणा बड़े हैं। विष्णु पुराण मे सूर्य-चन्द्र से प्रकाशित भागों को पृथ्वी कहा गया है। सभी में पृथ्वी ग्रह जैसे नदी, समुद्र, पर्वत नाम हैं। सूर्य-चन्द्र के प्रकाशित पृथ्वी ग्रह, सूर्य प्रकाश क्षेत्र सौर पृथ्वी, सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा ब्रह्माण्ड काश्यपी पृथ्वी है। १ कोटि = २ घात २४। २४ अक्षर के छन्द को गायत्री कहते हैं। अतः कहते हैं कि गायत्री से लोकों की माप हुई।
रविचन्द्रमसो र्यावत् मयूखैः अवभास्यते।
स समुद्र सरित् शैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥
यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात्।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण, २/७/३,४)
गायत्र्या वै देवा इमान् लोकान् व्याप्नुवन् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १६/१४/४)
श्री दृष्टि से देखने पर ३-३ विभाजन से विश्व के ४ भाग में ३ को जानते हैं। वेद में भारती-इळा-सरस्वती कहा है। पुराण (चण्डी पाठ) में महाकाली, महालक्ष्मी, महा सरस्वती कहा है। ३ का पुनः ३ विभाजन (तिस्रः त्रेधा) द्वारा १० महाविद्या रूप होते हैं, १ अज्ञात काली तथा ३ x ३ = ९ अन्य।
तिस्रस्त्रेधा सरस्वत्यश्विना भारतीळा।
तीव्रं परिस्रुता सोममिन्द्राय सुषुवुर्मदम्॥ (वाज. यजु. २०/६३)
= सरस्वती, इळा, भारती (अश्विन् द्वारा)-ये ३ देवियां पुनः ३-३ में विभाजित हैं। इनको सोम अर्पण से इन्द्र (या इन्द्रिय) की पुष्टि होती है।
तन्त्र में १० महाविद्या (बौद्ध दर्शन में १० प्रज्ञा पारमिता) का १० आयाम या दिशा रूप में वर्णन है। अतः भाषा में आशा, दशा, दिशा, दश – इन सभी के अर्थ १० हैं। १० आयाम के वेद में नाम हैं-
०-विन्दु, १- रेखा, २ – पृष्ठ, ३- स्तोम, आयु, आयतन, ४- पदार्थ (चतुर्मुख ब्रह्मा), ५ – काल, ६ – पुरुष (चेतना), ७ – ऋषि (रस्सी, २ पिण्डों के बीच आकर्षण-विकर्षण रूप ४, समरूपता के २ तथा विषमता का १ रूप), ८- नाग या वृत्र (पिण्ड को घ्रने वाली सीमा), ९ – रन्ध्र या नन्द (खाली स्थान, पदार्थ या ऊर्जा के कम घनत्व क्षेत्र जिनके कारण परिवर्तन होता है, १० – रस या आनन्द (समरूप अव्यक्त स्रोत)।
(ग) त्रयी विद्या- मूल वेद १ ही था, जो ब्रह्मा ने अथर्वा को पढ़ाया था। बाद में भरद्वाज ने इसका ४ वेद तथा ६ अङ्गों में विभाजन किया-
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो वाचाङ्गिरे ब्रह्म-विद्याम्।
स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥
द्वे विद्ये वेदितव्ये- … परा चैव, अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।
(मुण्डक उपनिषद्, १/१/१-५)
किसी भी प्रकार के ३ विभाजन करने पर कुछ अविभाज्य रह जाता है। मूर्ति वर्णन को ऋक्, गति वर्णन को यजु तथा साम या महिमा (प्रभाव क्षेत्र) वर्णन को साम कहा गया। बचा अविभाज्य भाग अथर्व या ब्रह्म वेद रह गया। अतः त्रयी आ अर्थ ४ वेद है-मूल अथर्व तथा शाखा रूप ऋक्, यजु, साम। इसके प्रतीक रूप में वेदारम्भ संस्कार (उपनयन में) पलास दण्ड का व्यवहार होता है। पलास टहनी से ३ पत्ते निकलते हैं तथा मूल टहनी बची रहती है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक्, १०/१३५/१)
पुराण = अधिक प्राचीन पुराण से बाद वेद समझते हैं (अनु वेनति)।
सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां योनिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः-(ऐतरेय ब्राह्मण, २/१)
५. आधुनिक सिद्धान्तों से तुलना-
आधुनिक काल में ६ मुख्य धारणा या मान्यता हैं। इस प्रकार की मान्यतायें वेद में भी थीं-
(१) हिरण्यगर्भ अर्थात् आरम्भिक तेजपुञ्ज से सृष्टि हुई।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक्, १०/१२१/१)
ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३)-आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्त्तिनाम्॥२५॥
हिरण्यगर्भः सोऽण्डेऽस्मिन् प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः। सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संमितः॥२६॥
(२) ब्रह्माण्ड सदा फैल रहा है-पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है जिसका मूल है, बृंह धातु = बढ़ना। हिरण्यगर्भ से विस्तार हुआ था जो अभी तक चल रहा है। ब्रह्मा के दिन तक विस्तार चलता रहेगा।
उद्ग्राभेणोदग्रभीत् (वाज.यजु. १७/६३, तैत्तिरीय संहिता, १/१/१३/१, ६/४/२, ४/६/३/४, मैत्रायणी संहिता, १/१/१३, ८/१३, ३/३/८, ४१/९, काण्व संहिता, १/१२, १८/३, २१/८, शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/२१)
(३) विश्व सदा से एक जैसा रहा है। यह रूप अथर्वा (थर्व = थरथराना) ब्रह्म है, या अमृत अंश है।
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च। (ऋग्वेद, १/३५/२, वाज. सं. ३३/४३)
(४) विस्तार-क्षय क्रम-इसमें अभी तक सन्देह है कि विस्तार सदा चलता रहेगा या विद्यमान पदार्थ की आकर्षण शक्ति से एक दिन रुक कर यह बन्द हो जायेगा और पुनः सिकुड़ जायेगा। ब्रह्मा की रात्रि में विश्व पुनः मूल स्रोत में मिल जायेगा (गीता, ८/१८)। यह ब्रह्म की परिभाषा भी है-जन्माद्यस्य यतः (ब्रह्म सूत्र, १/१/२, भागवत पुराण, १/१/१, तैत्तिरीय उपनिषद्, ३/१/१)-ब्रह्म वह है जिससे संसार का जन्म, विकास, वृद्धि, क्षय तथा लय होता है।
(५) समरूपता-सभी सृष्टि सिद्धान्तों का मूल आधार है कि पूर्ण विश्व हर स्थान, हर दिशा तथा हर काल में एक जैसा है। अधिकांश सिद्धान्त मानते हैं कि विश्व का विकास हो रहा है, पर गणितीय सिद्धान्तों के लिए सदा एक जैसा मानते हैं। बहुत बड़े विस्तार में भी विश्व कहीं एक जैसा नहीं दीखता है, पर एक जैसा मान कर ही गणना करते हैं। तीन प्रकार से एक जैसा है, इसे त्रिसत्य कहा है-सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं (भागवत पुराण, १०/२/२६)। दोनों विचार ठीक हैं। मूल स्रोत जिसका ३ भाग आकाश में यथावत् (अमृत) है (पुरुष सूक्त, ३)। वह ३ प्रकार से एक जैसा है, जिसे रस कहा है-रसो वै सः (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)। सृष्ट जगत् में विविधता है, जिसे चित्राणि या चित्रं कहा है।
चितस्य (चिति, रूप) नाम करोति। चित्र नामानं करोति…सर्वाणिहि चित्राणि अग्निः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/३)
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि (अथर्व, १९/७/१)
चित्रं देवानां उद् अगाद् अनीकं (ऋक्, १/११५/१, अथर्व, १३/२/३५, वाजसनेयि यजु, ७/४२)
(६) अदृश्य पदार्थ- विराट् तथा अधिपूरुष १/४ भाग हैं, बाकी ३/४ भाग अव्यक्त पूरुष है।
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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