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अस्पर्श योग
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
आजकल कोरोना का अस्पर्श योग चल रहा है। माण्डूक्य उपनिषद् की गौडपाद कारिका में सभी प्रकार के मलों से दूर रहने को अस्पर्श योग कहा गया है।
अस्पर्शयोगो वै नाम दुर्दर्शः सर्वयोगिभि:।
योगिनो बिभ्यति ह्यस्मादभये भयदर्शिन:।। (गौडपादीय कारिका 39)
श्री आनंदगिरिजी ने इस कारिका का अर्थ इस प्रकार किया है- ‘वर्णाश्रम धर्म से, पापादि मल से जिसको स्पर्श नहीं होता, जो इनसे सर्वथा अछूत रहता है, वह अद्वैतानुभव अस्पर्श है। यह योग अर्थात् जीव की ब्रह्मभाव से योजना ही अस्पर्श योग है। शंकराचार्य का भाष्य है-
यह अस्पर्श योग सब स्पर्शों से, सब संबंधों से अलिप्त रहने का नाम है और उपनिषदों में प्रसिद्ध है एवं कई स्थानों में इसका उल्लेख आया है। जिनको वेदान्त विहित विज्ञान का बोध नहीं उनके लिए ‘दुर्दश:’ है। यह अस्पर्श योग सब प्रकार के भयों से शून्य है तो भी योगीजन इस योग से भयभीत होते रहते हैं- वह भय यह कि कहीं इस अस्पर्श योग के अभ्यास से आत्मनाश न हो जाए। इस प्रकार अस्पर्श योग द्वारा अद्वैत तत्व में मिल जाने से आत्मतत्व का नाश समझने वाले योगियों का अविवेक ही है अर्थात अविवेकियों को ही ऐसा भय रहता है, अन्यों को नहीं।
विनोबा भावे जी ने एक सेक्युलर नियम का श्लोक बनाया था-
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रहः,
शरीश्रम, अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन।
सर्वधर्म समानत्व स्वदेशी स्पर्श भावना,
ही एकादश सेवा-विनम्रत्वे व्रतनिश्चये॥
इसमें कई विचित्र उपदेश है। धर्म-सम्प्रदाय या कर्तव्य का अन्तर नहीँ समझा है। स्वाद लोलुप होना गलत है, पर इसकी शरीर अपने लिए उपयोगी भोजन को स्वाद से ही पहचानता है। स्वास्थ्य तथा स्वच्छता के लिये अस्पर्श होना चाहिए, किसी के अपमान या उपेक्षा के लिये नहीँ। यदि स्पर्श भावना से रास्ते पर चलते हुए स्त्री पुरुषोंको छूने लगें तो क्या प्रतिक्रिया होगी?
अभी कोरोना में बीमारी के कारण परिवार लोगों को भी असहाय छोड़ने की घटनाओं के समाचार आये हैं। एक व्यक्ति तालाबन्दी होने पर बहुत कष्ट से उत्तर ओड़िशा में अपने घर पहुंचा तो परिवार के लोगों ने उसे घर में नहीँ घुसने दिया तथा पीने को पानी भी नहीं दिया। मुम्बई में एक स्त्री को अस्पताल में बच्चा होने पर उसे कोरोना संक्रमण हो गया तो उसके पति तथा परिवार ने उनको मरने के लिए छोड़ दिया। एक डाक्टर ने दया कर अपने अस्पताल में उनको रखा। ये घटनाएं घोर पाप हैं।
इस तरह की प्रवृत्ति कुष्ठ रोगियों के प्रति समाज में रही है। यदि डाक्टर भी इसी प्रकार रोगियों से दूर रहने लगें तो उनकी चिकित्सा कैसे होगी? किसी को कुष्ठ होते ही परिवार के लोग उसे घर से बाहर निकाल देते हैं। १९७४ में देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में एक वैज्ञानिक थे जिनको श्वेत कुष्ठ (Leucoderma) हो गया था। इस कारण कोई भी उनके पास पढ़ने नहीं जाता था। विद्वान् के निरादर से मुझे मानसिक कष्ट हुआ तथा जीवन में पहली बार सांख्यिकी पढ़ने उनके पास गया। मेरी बात सुनकर एक अन्य अधिकारी भी मेरे साथ उनके पास जाने लगे तथा उनके साथ बैठकर चाय भी पीते थे।
इस प्रसंग में ओड़िशा के पूर्व राज्यपाल श्री सी. एम. पुनाचा की घटना याद आती है। १९८१ में मैं उनका एडीसी था तथा उनके साथ हाथीबारी कुष्ठाश्रम गया। वहाँ केवल १० मिनट के लिए भ्रमण की योजना थी। पर पुनाचा जी रोगियों के बीच बैठ गए तथा कहा कि सबके लिये चाय बनाओ। मुझसे कहा कि वे पिछले ५० वर्षों से कुष्ठ रोगियों से मिलते आये हैं, पर मुझे यदि डर हो तो मैं दूर बैठ सकता हूँ। कुछ सोच कर उनके साथ रोगियों के बीच बैठ गया। बाकी अधिकारी सुरक्षा ड्यूटी के नाम पर दूर रहे। वहाँ से आने पर पुनाचा जी ने कहा कि कुष्ठ रोगियों का सबसे बड़ा कष्ट सामाजिक बहिष्कार है। दवा या इलाज की समस्या नहीँ है, ८५% से अधिक रोगी २-३ मास में ठीक हो जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी सेवा उनके साथ बैठना है। पुनाचा जी के ऐसे कई आदर्श थे जिनके कारण उनके प्रति मेरी श्रद्धा है।
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:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -:
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