आयुर्वेद परम्परा का कालक्रम
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
Mystic Power – १. भारतीय कालक्रम-
(१) पाश्चात्य भ्रान्ति- बहुत से आयुर्वेद विद्वानों ने आयुर्वेद का इतिहास विस्तार से लिखा है। पर अंग्रेजी विकृति के कारण आयुर्वेद, ज्योतिष, व्याकरण आदि सभी का आरम्भ ग्रीक सिकन्दर के आक्रमण से ही मानते हैं। पुराण निन्दक वर्ग ने तो पुराणों का काल मुगल राजा जहांगीर के बाद का माना है (पण्डित लेखराम का लेख-आर्ष क्रान्ति, जुलाई, २०२१)। पर उन तर्कों के अनुसार वेद उससे भी बाद के हैं। यहां केवल भारतीय परम्परा के अनुसार कालक्रम दिया जायेगा जो आधुनिक विज्ञान से भी प्रमाणित है। भगवद्दत्त जी ने भारतवर्ष के बृहत् इतिहास, भाग १, पृष्ठ २८०-२८३ में द्वापर में आयुर्वेद अवतार का वर्णन किया है। आरम्भ में टिप्पणी की है कि ब्रह्मा, दक्ष प्रजापति, अश्विनीकुमार, इन्द्र से यह परम्परा चल रही है। पृष्ठ ३१९-३१९ पर चरक संहिता के व्याख्याकारों का क्रमागत काल दिया है।
(२) काल-क्रम-पुराणों में २ प्रकार के ऐतिहासिक काल-क्रम हैं।
(क) ऐतिहासिक मन्वन्तर- स्वायम्भुव मनु से व्यास काल (कलि आरम्भ ३१०२ ईपू) तक २६,००० वर्ष हुए थे, जो अयन-चक्र का काल है। इतने वर्षों में पृथ्वी का घूर्णन अक्ष शङ्कु आकार में १ चक्र लगाता है। इस काल में ७१ युग थे जिनमें ४३ युग वैवस्वत मनु तक, और २८ युग उसके बाद कलि आरम्भ तक थे (मत्स्य पुराण, २७३/७७-७८)। प्रति युग प्रायः ३६० वर्ष का होगा, जिसे दिव्य वर्ष कहा गया है। वैवस्वत मनु तक ४३ युग के प्रायः १६,००० वर्ष हुए थे। (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१९, १/ २/९/३६,३७)
वैवस्वत मनु के पूर्व के १० युगों में-तृतीय युग- उशना शुक्राचार्य तथा हिरण्याक्ष, चतुर्थ युग- हिरण्यकशिपु, सप्तम युग-असुर राजा बलि (पश्चिम एशिया में बाल नाम से पूजित)
वैवस्वत मनु के बाद-१०म युग में दत्तात्रेय, १५वें युग में मान्धाता, १९वें युग में परशुराम, २४वें में राम तथा २८वें में कृष्ण हुए थे।
(ख) दिव्य वर्ष- अन्य युग गणना थी-१२,००० दिव्य वर्ष का युग। ज्योतिष के लिए दिव्य वर्ष का अर्थ है ३६० सौर वर्ष। ऐतिहासिक सन्दर्भ में सौर वर्ष को दिव्य वर्ष और १२ चान्द्र परिक्रमा (प्रायः ३२७ दिन) को मानुष वर्ष कहा गया है। इसके अनुसार सप्तर्षि संवत्सर के २ मान हैं-२७०० दिव्य वर्ष, या ३०३० मानुष वर्ष। (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१६, २/३/७४/२३१, वायु पुराण, ५७/१७, ९९/४१९)
मानुष वर्ष = चन्द्र परिक्रमा वर्ष = २७.३ दिन में चन्द्र परिक्रमा x १२ = ३२७.५३६४ दिन।
३०३० मानुष वर्ष = २७१७ सौर वर्ष (३६५.२५ दिन का)
(ग) य़ुग क्रम- प्रथम भाग अवसर्पिणी में सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४, ३, २, १ अनुपात में आते हैं। उसके बाद उत्सर्पिणी के १२,००० वर्ष में विपरीत क्रम में युग आते हैं। (आर्यभटीय, कालक्रिया पाद, ३/९) इनको २४,००० वर्ष का ब्रह्माब्द दिन कहा है, जिसका तृतीय दिन चल रहा है (भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग, १/१/३)। ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने १२,००० वर्ष के चक्र में ही बीज-संस्कार कहा है, जिसका स्रोत आगम कहा है। (ब्रह्मगुप्त का ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त, मध्यमाधिकार, ६०-६१-सुधाकर द्विवेदी संस्करण, भास्कराचार्य का सिद्धान्त शिरोमणि, भू-परिधि, ७-८)। वर्तमान युग वैवस्वत मनु से आरम्भ हुआ, जिनके बाद सत्य, त्रेता, द्वापर के (४८०० + ३६०० + २४०० = १०,८००) वर्ष ३१०२ ईपू (कलि आरम्भ) में पूरे हुए। अतः वैवस्वत मनु का काल ३१०२ + १०८०० = १३,९०२ ईपू हुआ।
हर युगके प्रथमार्ध अवसर्पिणी में सत्य ४८,००, त्रेता ३६००, द्वापर २४००, कलि १२०० वर्ष के होंगे। उसके बाद उत्सर्पिणी में कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग आयेंगे।
(घ) युग चक्र –
(१) प्रथम चक्र-६१९०२ ईपू-३७९०२ ईपू तक
अवसर्पिणी में सत्य युग ६१९०२-५७१०२
त्रेता ५७१०२-५३५०२
द्वापर ५३५०२-५११०२
कलि ५११०२-४९९०२
उत्सर्पिणी में कलियुग ४९९०२-४८७०२
द्वापर ४८७०२-४६३०२
त्रेता ४६३०२-४२७०२
सत्य ४२७०२-३७९०२
(२) द्वितीय चक्र ३७९०२-१३९०२ ईपू
अवसर्पिणी में सत्ययुग- ३७९०२- ३३१०२
त्रेता ३३१०२-२९५०२
द्वापर २९५०२-२७१०२
कलि २७१०२-२५९०२
उत्सर्पिणी में कलि २५९०२-२४७०२
द्वापर २४७०२-२२३०२
त्रेता २२३०२-१८७०२
सत्य १८७०२-१३९०२
(३) तृतीय चक्र १३९०२ ईपू से १०,०९९ ई तक
अवसर्पिणी में सत्ययुग १३९०२-९१०२
त्रेता ९१०२-५५०२
द्वापर ५५०२-३१०२
कलि ३१०२-१९०२
उत्सर्पिणी में कलि १९०२-७०२
द्वापर ७०२ ईपू से १६९९ ई.
त्रेता १६९९-५२९९ ई
सत्य ५२९९-१०,०९९ ई.।
(ङ) मन्वन्तर- स्वायम्भुव से वैवस्वत मन्वन्तर तक ७ मनु थे। ७ सावर्णि मनु भी इनके ही परिवार के थे, अतः इसी काल में थे। ५ मन्वन्वर कालों को १५२०० वर्ष में बांटने पर इनके काल प्रायः इस प्रकार हैं-
क्रम मनु सावर्णि मनु काल (ईपू)
१ स्वायम्भुव इन्द्र ३३१०२-२९१०२
२ स्वारोचिष देव २९१०२-२६०६२
३ उत्तम रुद्र २६०६२-२३०२२
४ तामस धर्म २३०२२-१९९८२
५ रैवत ब्रह्म १९९८२-१६९४२
६ चाक्षुष दक्ष १६९४२-१३९०२
७ वैवस्वत मेरु १३९०२-८५७६
२. सिद्ध पद्धति-स्वायम्भुव मनु (२९१०० ईपू.) के पूर्व साध्य युग थे जिसके विद्वानों को सिद्ध कहते थे तथा उनके वर्ग या पद्धति को साध्य (ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/३/१६, मत्स्य पुराण, अध्याय २०३, वामन पुराण, ६९,वायु पुराण, ६६/९, विष्णु धर्मोत्तर पुराण, १/५६/११, १/१२०/३)। वेद में भी देवों के पूर्व साध्य युग लिखा है-
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः (पुरुष सूक्त, वाज. यजु, ३१/१६)
प्राणा वै साध्या देवाः, एतं अग्र एवं असाधयन् (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/२/३)
साध्या वै नाम देवेभ्यो देवाः पूर्व आसन् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २५/८/२)
सिद्ध पद्धति दक्षिण भारत, विशेषतः तमिलनाडु में प्रचलित है। तमिलनाडु से सम्बन्धित थाइलैण्ड, वियतनाम (चम्पक वन, चम्पा राज्य) में भी साध्यों का स्थान कहा है (वायु पुराण, ३७/१६-२२)। वेद तथा ज्योतिष की प्राचीन परम्परायें दक्षिण भारत में ही हैं, परवर्ती वैवस्वत मनु के बाद की परम्परा उत्तर भारत में है। यह भागवत प्रवचन के आरम्भ के भागवत माहात्म्य में भी कहा जाता है कि ज्ञान का जन्म द्रविड़ में हुआ, वृद्धि कर्णाटक में हुयी और महाराष्ट्र तक विस्तार हुआ। (पद्म पुराण, उत्तर खण्ड, १/४५-५०)।
ब्रह्म सम्प्रदाय की तैत्तिरीय शाखा कर्णाटक में ही प्रचलित है। वैवस्वत मनु की आदित्य शाखा की वाजसनेयि संहिता उत्तर भारत में है जिसका उद्धार याज्ञवल्क्य ने किया था। बार्हस्पत्य वर्ष में पितामह सिद्धान्त दक्षिण भारत में और विवस्वान् का सूर्य सिद्धान्त उत्तर भारत में प्रचलित हैं। स्वायम्भुव मनु परम्परा में आर्यभटीय के अनुसार दक्षिण भारत में वाक्य-करण बने थे (वररुचि आदि द्वारा)। उत्तर भारत में सूर्य सिद्धान्त प्रचलित है। वेद का आरम्भ देखने से ही यह स्पष्ट है। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के २ शब्द ’दोषा-वस्ता’ (रात-दिन) केवल तमिल-तेलुगू में प्रचलित हैं।
सिद्ध पद्धति में भी रोग का कारण कफ-वात-पित्त का असन्तुलन है। ओषधि के ३ स्रोत हैं-वनस्पति, जीव, खनिज।
३. वेद-पुराण में आयुर्वेद- डॉ. कपिलदेव द्विवेदी की पुस्तक ’वेदों में आयुर्वेद’ में वेद के संहिता, ब्राह्मण ग्रन्थों, श्रौत सूत्रों में आयुर्वेद के सभी सिद्धान्तों चिकित्सा पद्धति, तथा ओषधियों का विवरण संकलित किया है। ऋग्वेद में ६७, यजुर्वेद में ८२ और अथर्व वेद में २८८ ओषधियों का उल्लेख है। इन सिद्धान्तों का संकलन पारम्परिक भेदों के क्रम में है-सूत्र स्थान, शारीर स्थान, बिदान, चिकित्सा (१४ प्रकार के रोग), प्राकृतिक चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, विष चिकित्सा, पशुचिकित्सा, विविध रोग चिकित्सा, मणि धारण, कृत्या-अरिष्ट-शकुन, ओषधि संग्रह।
अग्नि पुराण, गरुड पुराण आदि में आयुर्वेद सम्बन्धित विस्तृत वर्णन है।
इसके अतिरिक्त होमियोपैथी का मूल केवल वेद-विज्ञान में ही है। दक्षिण भारत में प्रचलित परम्परा तथा प्राचीन वैदिक ग्रन्थों के आधार पर जर्मनी के हीनमैन ने इसका प्रचार किया। भारत अंग्रेजी शासन के अधीन होने के कारण यूरोप के मैक्समूलर, वेबर आदि लेखक किसी भारतीय स्रोत का उल्लेख नहीं करते थे। हीनमैन ने भी केवल प्राचीन ग्रीक ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनमें यह सिद्धान्त कहीं नहीं है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार होमियोपैथी का कोई अर्थ नहीं है-
(१) इसकी ओषधि का मद्य घोल ही क्यों होता है,
(२) विरल होने से ओषधि शक्ति कैसे बढ़ती है,
(३) प्रति बार १००-१०० गुणा विरल क्यों करते हैं,
(४) केवल ३०, २००, १००० विरलता की ओषधि क्यों,
(५) ३० क्रम की विरलता में भी ओषधि का कोई परमाणु नहीं रहता-उसका प्रभाव कैसे होता है?
इनका उत्तर वैदिक सृष्टि विज्ञान में ही है और यह एकमात्र सृष्टि विज्ञान है, जिसका प्रायोगिक प्रमाण होमियोपैथी रूप में है।
(१) शतपथ ब्राह्मण (१०/४/४/२, १२/३/२/५) के अनुसार मनुष्य शरीर ब्रह्माण्ड की प्रतिमा है, दोनों में खर्व संख्या में कण हैं (ब्रह्माण्ड में तारा, शरीर में कलिल (cell)।
(२) ब्रह्माण्ड के रिक्त स्थान में मद्य भरा है (ऋक्, १/१५४/४-५) तथा उस महान् सोम महिष के गर्भ में सूर्य का तेज है (ऋक्, ९/९७/४१), अतः मद्य में ओषधि को घोलते हैं। सोम में ओषधि प्रयोग होने से यह सौम्य है-स का ह उच्चारण होने से यह ग्रीक में होमियो हो गया।
(३) तैत्तिरीय उपनिषद् (२/७/२) के अनुसार विश्व का मूल स्रोत रस था जिससे आनन्द होने के कारण उसे आनन्द भी कहते हैं। हर निर्माण के स्तर में आनन्द का कुछ अंश खर्च होता है, अतः कम होते होते अन्तिम चरण पृथ्वी में सबसे कम हो जाता है।
तैत्तिरीय उपनिषद् (२/८) के अनुसार पृथ्वी से आरम्भ कर हर धाम में आनन्द की मात्रा १००-१०० गुणा बढ़ती है। अतः मद्य घोल को हर बार १००-१०० गुणा विरल करते हैं (ऋक्, १०/९७/१-१८, ९/६७/६, ९/६२/१४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/२/९ आदि)। यह मन प्रभावित रोगों के लिए है। क्रिया प्रधान रोगों के लिए १०-१० गुणा विरल करते हैं (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/५/३, ऐतरेय ब्राह्मण, ५/२/२, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/१/१ आदि)।
(४) ३० बार १०० गुणा विरल करने पर १० घात ६० भाग में १ से भी कम भाग होगा। इलेक्ट्रान तुलना में पूरे सौर मण्डल की मात्रा उतनी ही है-१० घात ६०। अतः सौरमण्डल के बराबर भी ओषधि बनाने पर उसका कोई कण उसमें नहीं होगा। ३० घात की ओषधि का कारण है कि सूर्य की वाक् (प्रभाव क्षेत्र) ३० धाम तक है (ऋक्, १०/१८९/३)। पृथ्वी से आरम्भ कर प्रति धाम २-२ गुणा बड़ा होता है
(५ )(बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/३/२, शतपथ ब्राह्मण, १४/६/३/२)। मनुष्य शरीर में सौर मण्डल की प्रतिमा नाभि क्षेत्र का मणिपूर चक्र है। वह पाचन का केन्द्र है, अतः अधिकांश रोगों में ३० शक्ति की ओषधि देते हैं। सूर्य केन्द्रित माप से २०० त्रिज्या दूरी पर चान्द्र मण्डल तथा १००० त्रिज्या पर सबसे बड़ा बृहस्पति ग्रह है, जहां सोम के २ स्तर हैं। अतः मानस प्रभावित रोग में २००, १००० शक्ति की ओषधि देते हैं। मूलाधार में कुण्डलिनी के ३ पूर्ण चक्र हैं, स्वाधिष्ठान, अनाहत चक्रों में ६,१२ दल हैं। अतः भूमि, जल, वायु तत्त्व के रोगों के लिए ३, ६, १२ शक्ति की ओषधि देते हैं (१०-१० गुणा विरल)।
(६) मनुष्य शरीर से आरम्भ कर विश्व के ७ स्तर क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं-मनुष्य, कलिल, जीव (परमाणु), कुण्डलिनी (परमाणु नाभि आकार), जगत् कण (इलेक्ट्रान आदि), देव-दानव, पितर, ऋषि। इस क्रम में ऋषि मीटर का १० घात ३५ भाग होगा जिसे आजकल प्लांक दूरी कहते हैं। इस स्तर पर पदार्थ प्रायः अनन्त खण्डों में विभाजित होगा।
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यं (अथर्वशिर उपनिषद् ५)
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी
कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज
सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
४. चरक संहिता- बृहत्-त्रयी- तीन प्राचीन आयुर्वेद ग्रन्थों को बृहत् त्रयी कहते हैं-चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, वाग्भट का अष्टाङ्ग हृदय। इनके अतिरिक्त कश्यप की प्राचीन परम्परा है जिनके ग्रन्थ पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हैं, पर उनको कई पुस्तकों में उद्धृत किया गया है।
मध्य-युग की ३ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को लघु-त्रयी कहते हैं-माधव कर का रोग-विनिश्चय (माधव निदान), शार्ङ्गधर द्वारा शार्ङ्गधर संहिता, भाव मिश्र द्वारा भाव-प्रकाश।
चरक का शाब्दिक अर्थ है-चलने वाला इसके आधार पर भाव प्रकाश का आरम्भ में लिखा है कि जिस तरह भगवान् ने वेद उद्धार के लिए मत्स्य अवतार लिया था, उसी प्रकार जब वे चर (सेवक) की तरह घूम रहे थे तो रोग देख कर उसे दूर करने के लिए चरक अवतार लिया। नाम अर्थ के अनुसार इनको घूमने वाला वैद्य कहा है, किन्तु इसका चरक संहिता में कोई उल्लेख नहीं है। चरक एक चर्म-रोग का भी नाम है।
ब्रह्म सम्प्रदाय कें कृष्ण यजुर्वेद की ८६ शाखायें शौनक के चरण व्यूह में वर्णित हैं। इनका प्रचार पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) के अतिरिक्त पूरे विश्व में था। उस द्वीप में हिरण्याक्ष ने वेद नष्ट कर दिया था। वेद लिखित रूप में था, जिसे नष्ट किया-इसे शार्ङ्गधर शाखा कहा गया है (रामायण, किष्किन्धा काण्ड, १७/५०)। इन ८६ शाखाओं में १२ शाखाओं का नाम चरक कहा गया है-६१. चरक, ६२. आह्वरक, ६३. भ्राजिष्ठल कठ या भृष्ठकपिष्ठल कठ, ६४. प्राच्य कठ, ६५. कापिष्ठल कठ, ६६. वारायण, ६७. चारायण (चरक शब्द जैसा अर्थ), ६८. श्वेत, ६९. श्वेताश्वतर (उपमन्यु-पुनरुद्धार), ७०. पाताण्डि (पतञ्जलि जैसा नाम जिनको चरक भी कहा है), ७१. मैत्रेय। इन शाखाओं में उपलब्ध आयुर्वेद का अध्याय अनुसार संकलन वर्तमान चरक संहिता हो सकती है।
सामान्यतः अथर्ववेद को आयुर्वेद का मूल मानते हैं, जिसमें ओषधि रोगों आदि का विस्तृत वर्णन है। कितु आयुर्वेद केवल चिकित्सा पद्धति नहीं है, यह आयु बढ़ाने तथा स्वस्थ रहने का सिद्धान्त है। इसके लिए योग, तप, क्रिया योग आदि करना पड़ता है, जो आन्तरिक यज्ञ हैं। इसका मूल यजुर्वेद है।
चरक संहिता के आरम्भ में आयुर्वेद विस्तार का क्रम दिया है-
(१) साध्यों में मुख्य ब्रह्मा ने आयुर्वेद का क्रमबद्ध संकलन किया। मनुष्य ब्रह्मा ७ थे (महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३४८-४९), किन्तु स्वायम्भुव मनु को मुख्य मानते है।
(२) ब्रह्मा से प्रजापति (अन्य ७ ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति को-महाभारत),
(३) दक्ष से अश्विनीकुमार (जुड़वां भाई, दस्र या नासिक्य-नासिका रन्ध्रों से प्रवाहित श्वास नियन्त्रण से मनुष्य स्वस्थ रहता है),
(४) अश्विनीकुमार से इन्द्र,
(५) इन्द्र से भरद्वाज-इसके लिए हिमालय तल में ऋषियों की सभा हुई जिसके निर्णय अनुसार भरद्वाज इन्द्र के पास शिक्षा लेने गये,
(६) भरद्वाज से अन्य ऋषि-मुख्यतः पुनर्वसु आत्रेय, (७) पुनर्वसु आत्रेय ने ६ शिष्यों को पढ़ाया जिनमें अग्निवेश ने तन्त्र लिखा। अन्य ५ ने भी अपने नामों के तन्त्र लिखे-भेल, जातूकर्ण, पराशर, हारीत, क्षारपाणि।
(८) दृढ़बल द्वारा संशोधित, (९) कलि आरम्भ में पतञ्जलि द्वारा व्याख्या। इसी पतञ्जलि ने व्याकरण-महाभाष्य तथा योगसूत्र भी लिखे। इन तीन के लिए विज्ञानभिक्षु के योगवार्त्तिक में उनकी स्तुति की है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचा, मलं शरीरस्य तु वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां, पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥
पतञ्जलि के योगसूत्र पर व्यास भाष्य है, व्यास संहिता के लिये पाणिनि की वैदिकी प्रक्रिया है, पाणिनि सूत्र पर पतञ्जलि महाभाष्य है। अतः तीनों समकालीन हैं। वर्तमान महाभाष्य शंकराचार्य के गुरु गोविन्दपाद का संस्करण है (कथासरित् सागर)। व्यास शिष्य वैशम्पायन ने इसका प्रचार किया। उनको चरक भी कहा है जो उनका गोत्र नाम हो सकता है।
चरक संहिता में विषय अनुसार ऋषियों के नाम हैं-वायु दोष बताने वाले वायोर्विद्, कफ दोष वाले काप्य आदि। इससे लगता है कि वेद के अन्य ऋषियों के नाम भी उनके वर्णित विषय अनुसार हैं।
५. सुश्रुत संहिता-
इसमें शल्य-चिकित्सा का विशेष वर्णन है। इसका आरम्भ धन्वन्तरि से हुआ जो समुद्र मन्थन के समय हुए थे। धन्वन्तरि का शाब्दिक अर्थ है शल्य चिकित्सक जो चिकित्सा के लिए धनु आकार का शल्य शरीर के भीतर प्रवेश कराता है- धनुः शल्यं पारं अन्तं इयर्ति गच्छति इति धन्वन्तरिः। धन्वन्तरि के शिष्यों को सुश्रुत कहा गया है। सुश्रुत का अर्थ है वेद का विद्वान्।
असुर राजा बलि के काल में समुद्र मन्थन हुआ था। वैवस्वत मनु के पूर्व के १० युगों में बलि ७वें युग अर्थात् १३९०२ + १४४० = १५३४२ से १४९८२ ईपू के बीच थे। कार्त्तिकेय काल भी प्रायः वही है जब अभिजित् का पतन हुआ था (महाभारत, वन पर्व, २३०/८-१०)।
उस समय देव-असुरों के बीच महायुद्ध हुए थे जिसमें आहत लोगों की चिकित्सा के लिए शल्य चिकित्सा का व्यापक प्रयोग हुआ। अतः सन्धि के बाद देव-असुरों द्वारा मिलित समुद्र मन्थन हुआ तो उससे अमृत कलश लिये धन्वन्तरि का जन्म हुआ।
इसके बाद असुरों में शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी विद्या का विकास किया जिससे सीखने बृहस्पति पुत्र कच गये थे (महाभारत, आदि पर्व, अध्याय ७६, ७७)। इस शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह चन्द्रवंशी राजा ययाति से हुआ जो सोम पुत्र बुध की ६ठी पीढ़ी में थे। व्यास सूची में १२वें अत्रि का काल अत्रि (८८६०-८५०० ई.पू.) है जिनके पुत्र सोम थे। अतः इस शुक्राचार्य का काल प्रायः ८,००० ईपू है। इसी परम्परा में रामायण काल में लंका के वैद्य सुषेण थे, जिन्होंने लक्ष्मण की चिकित्सा की थी। इसके लिए हनुमान् हिमालय से संजीवनी बूटी लाये थे।
धन्वन्तरि का पुनर्जन्म काशिराज दिवोदास के रूप में हुआ जिनका ऋग्वेद (मुख्यतः सूक्त ७/८३, अन्य ७/१८, ३३, ७८, ९६) में दाशराज युद्ध के प्रसंग में वर्णन है। इनके पुत्र सुदास सूर्यवंशी राजा मान्धाता के समकालीन थे, जो १५वें त्रेता (८१४२-७७८२ ईपू) में थे। इन्होंने भरद्वाज कृत आयुर्वेद को ८ भागों में विभक्त कर शिष्यों को पढ़ाया उसे सुश्रुत ले पुस्तक रूप में लिखा।
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः प्रकाशिराट् । पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा ॥१८॥
तस्य गेहे समुत्पन्नौ देवो धन्वन्तरिस्तदा । काशिराजो महाराजः सर्वरोगप्रणाशकः ॥१९॥
आयुर्वेदं भरद्वाजश्चकार सभिषक् क्रियम्। तमष्टधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत ॥२०॥
(वायु पुराण, अध्याय, ९२)
दोनों धन्वन्तरि का वर्णन-आयोः पुत्रा महात्मानः पञ्चैवासन् महाबलाः।१।
नहुषः प्रथमस्तेषां क्षत्रवृद्धस्ततः स्मृतः। रम्भो रजिरनेनाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः॥२॥
क्षत्रवृद्धात्मजश्चैव सुनहोत्रो महायशाः। सुनहोत्रस्य दायादस्त्रयः परमधार्मिकाः॥३॥
काशः शलश्च द्वावेतौ तथा गृत्समदः प्रभुः।४।
काश्यश्च काशिपो राजा पुत्रो दीर्घतपास्तथा। धन्वश्च दीर्घतपसो विद्वान्धन्वन्तरिस्ततः॥७॥
धन्वन्तरेः सम्भवोऽयं श्रूयतामिति वै द्विजाः। स सम्भूतः समुद्रान्ते मथ्यमानेऽमृते पुरा॥१०॥
उत्पन्नः कलशात्पूर्वं सर्वतश्च श्रिया वृतः। सद्यः संसिद्धकार्यं तं दृष्ट्वा विष्णुरवस्थितः।।११॥
अब्जस्त्वमिति होवाच तस्मादब्जस्तु स स्मृतः॥१२॥ अथ वा त्वं पुनश्चैव ह्यायुर्वेदं विधास्यसि॥१८॥
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः स काशिराट्॥ पुत्रकामस्तपस्तेपे नृपो दीर्घतपास्तथा॥२०॥
तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा॥२३॥ (ब्रह्मांड पुराण, २/३/६७)
कलियुग के धन्वन्तरि-(१) परीक्षित काल में एक धन्वन्तरि थे जिनको तक्षक ने विष चिकित्सा से रोका था।
सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि।
धन्वन्तरिर्मोचयितुमपश्यद् गन्तुको नृपम्॥१०६॥ ब्रह्म वैवर्त पुराण (अध्याय २/४६)
(२) उसके बाद एक धन्वन्तरि कल्प ब्राह्मण के पुत्र रूप में हुए जिन्होंने अपने क्षत्रिय शिष्य सुश्रुत को पढ़ाया।
तदा प्रसन्नो भगवान् (सूर्य) देवानाह शुभं वचः। अहं काश्यां भवाम्यद्य नाम्ना धन्वन्तरिः स्वयम्॥१७॥
कल्पदत्तस्य विप्रस्य पुत्रो भूत्वा महीतले॥१९॥
सुश्रुतं राजपुत्रं च विप्रवृद्ध समन्वितम्। शिष्यं कृत्वा प्रसन्नात्मा कल्पवेदमचीकरत्॥ २०॥
सुश्रुतः कल्पवेदं तं धन्वन्तरि विनिर्मितम्।पठित्वा च शताध्यायं सौश्रुतं तन्त्रमाकरोत्॥२३॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय ९)
(३) कलि २२०० (ईपू ९०२) में एक अन्य धन्वन्तरि तथा उनके शिष्य सुश्रुत ने आयुर्वेद का उद्धार किया-
त्रिविंशाब्दे (कलि २२०० = ईसापूर्व ९०२) च यज्ञांशेतत्र वासमकारयत्।३४।
धन्वन्तरिर्द्विजो नाम ब्रह्मभक्ति परायणः।३६।
इति धन्वन्तरिः श्रुत्वा शिष्यो भूत्वा च तद्गुरोः। सुश्रुतादपरे चापि शिष्या धन्वन्तरेः स्मृताः॥४५॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २०)
इसी समय भारत पर सबसे बड़ा आक्रमण असीरिया की रानी सेमिरामी के नेतृत्व में ३० लाख सेना द्वारा हुआ था। इसे रोकने के लिए मगध में अजिन पुत्र बुद्ध ने आबू पर्वत पर मालवा राजा शूद्रक के अधीन ४ अग्निवंशी राजाओं का संघ बनाया था।
(४) कलि की २७वीं सदी में गौतम बुद्ध द्वारा शल्य चिकित्सा नष्ट करने के बाद प्रयाग के धन्वन्तरि ने पुनः शल्य चिकित्सा का उद्धार किया। भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-
सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥
स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
धन्वन्तरिः प्रयागे च गत्वा तद्यन्त्रमुत्तमम्। विलोमं कृतवांस्तत्र तदधो ये गता नराः॥७०॥
(५) अन्तिम सुश्रुत उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (८२ ईपू-१९ ई) के नवरत्नों में मुख्य थे जिसका उल्लेख कालिदास ने ३०६८ कलि (३४ ईपू) में किया है-
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासाः॥
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
वर्षः सिन्धुरदर्शनम्बरगुणैः (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते।
मासे माधव संज्ञिते च विदितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः॥ (ज्योतिर्विदाभरण, कालिदास)
६. वाग्भट-
वाग्भट का उल्लेख ४ पुस्तकों में है, जो कम से कम २ हैं-प्रथम को वृद्ध वाग्भट कहा है।
(१) वृद्ध वाग्भट-अष्टाङ्ग संग्रह,
(२) मध्य वाग्भट,
(३) लघु वाग्भट-अष्टाङ्ग हृदय,
(४) रस वाग्भट-रस रत्न समुच्चय।
प्रथम वाग्भट सम्राट् युधिष्ठिर के चिकित्सक थे जिन्होंने राजसूय यज्ञ में अतिथियों की चिकित्सा की थी (हारीत संहिता)। अष्टाङ्ग सङ्ग्रह की शिवदास सेन टीका के सम्पादन में ज्योतिष चन्द्र सरस्वती ने लिखा है कि इस पुस्तक के कई श्लोक पूर्व वाग्भट (वृद्ध) के हैं, अन्य मध्य वाग्भट के। वाग्भट के शिष्यों इन्दु और जेज्झट ने लिखा है कि वाग्भट भट्टार हरिश्चन्द्र (हरिषेण) के कुछ पूर्व थे, जो शूद्रक के एक मन्त्री थे। हरिषेण का वर्णन समुद्रगुप्त के कृष्ण चरित में है (युधिष्ठिर मीमांसक-व्याकरण साहित्य का इतिहास, खण्ड ३। हरिषेण को बाणभट्ट ने भट्टार हरिश्चन्द्र कहा है। अतः मध्य वाग्भट का काल प्रायः ७५० ईपू है।
अष्टाङ्ग हृदय (उत्तर, ४०/८०) में वाग्भट ने स्वयं कहा है कि वे अष्टाङ्ग संग्रह का संक्षेप कर रहे हैं।
रस-रत्न समुच्चय के लेखक वाग्भट भिन्न व्यक्ति हैं, क्योंकि अष्टाङ्ग संग्रह में रस का उल्लेख नहीं है। इसके श्लोक शङ्कराचार्य के गुरु गोविन्दपाद ने रस-हृदय तन्त्र में उद्धृत किये हैं। अतः इनका काल प्रायः ६०० ईपू है।
वाग्भट सिन्ध के थे अतः उन्होंने पश्चिम से आक्रमण का प्रभाव देखा था। बाक्कस आक्रमण के समय (मेगास्थनीज अनुसार ६७७७ ईपू) में उस क्षेत्र में यव मदिरा का प्रचलन हुआ था जिसे बाक्कस के नाम पर व्हिस्की कहा गया। अष्टाङ्ग सङ्ग्रह (सूत्रस्थान ६/११६)-
जगल पाचनो ग्राही रूक्षस्तद्वच मेदक। बक्कसो हृतसारत्वाद्विष्टम्भी दोषकोपन॥
बुद्ध सम्बन्धित कुछ शब्दों के कारण इनको बौद्ध सिद्ध करने की चेष्टा हुई है, पर इन्होंने स्पष्ट रूप से प्रथम वैद्य शिव और ब्रह्मा की स्तुति की है।
रागादिरोगाः सहजाः समूला येनाशु सर्वे जगतोऽप्यपास्ताः।
तमेकवैद्यं शिरसा नमामि वैद्यागमज्ञांश्च पितामहादीन्॥ (सूत्रस्थान १/२)
अपना परिचय स्वयं दिया है-
भिषग्वरो वाग्भट इत्यभून्मे पितामहो नामधरोऽस्मि यस्य।
सुतोऽभवत्तस्य च सिंहगुप्तस्तस्याप्यहं सिन्धुषुलब्धजन्मा॥ (अष्टाङ्ग हृदय उ. ५०/१३२)
"मिस्टिक पावर में प्रकाशित सभी लेख विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाते हैं। लेख में उल्लेखित तथ्यों व सूचनाओं का सम्पादन मिस्टिक पावर के अनुभवी एवं विशेषज्ञ सम्पादक मण्डल द्वारा किया जाता है। मिस्टिक पावर में प्रकाशित लेख पाठक को जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। मिस्टिक पावर लेख में प्रदत्त जानकारी व सूचना को लेकर किसी तरह का दावा नहीं करता है और न ही जिम्मेदारी लेता है।"
:- लेखक के व्यक्तिगत विचार होते हैं जो कि सनातन धर्म के तथ्यों पर आधारित होते हैं। -: