डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)- अमावस्या के दिन, रज-तम फैलाने वाली अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.), गूढ कर्मकांडों में (काला जादू) फंसे लोग और प्रमुखरूप से राजसिक और तामसिक लोग अधिक प्रभावित होते हैं और अपने रज-तमात्मक कार्य के लिए काली शक्ति प्राप्त करते हैं । यह दिन अनिष्ट शक्तियों के कार्य के अनुकूल होता है, इसलिए अच्छे कार्य के लिए अपवित्र माना जाता है ।
चंद्रमा के रज-तम से मन प्रभावित होने के कारण पलायन करना (भाग जाना), आत्महत्या अथवा भूतों द्वारा आवेशित होना आदि घटनाएं अधिक मात्रा में होती हैं । विशेष रूप से रात्रि के समय, जब सूर्य से मिलने वाला ब्रह्मांड का मूलभूत अग्नितत्त्व (तेजतत्त्व) अनुपस्थित रहता है, अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म अवसर होता है । पूर्णिमा की रात में, जब चंद्र का प्रकाशित भाग पृथ्वी की ओर होता है, अन्य रात्रियों की तुलना में मूलभूत सूक्ष्म-स्तरीय रज-तम न्यूनतम मात्रा में प्रक्षेपित होता है । अतः इस रात में अनिष्ट शक्तियों, रज-तमयुक्त लोगों अथवा गूढ कर्मकांड (काला जादू) करने वाले लोगों को रज-तमात्मक शक्ति न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध होती है । तथापि, अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाकर कष्ट की तीव्रता बढाती हैं ।
आध्यात्मिक शोध द्वारा यह भी स्पष्ट हुआ है कि अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनुष्य पर होने वाले प्रभाव में सूक्ष्म अंतर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रतिकूल परिणाम साधारणतः स्थूलदेह पर, जबकि अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम मन पर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का परिणाम अधिकांशत: दृश्य स्तर पर होता है, जबकि अमावस्या के चंद्रमाका परिणाम अनाकलनीय (सूक्ष्म) होता है ।
अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम दृश्य स्तर पर न होने से व्यक्ति के लिए वह अधिक भयावह होता है । क्योंकि व्यक्ति को इसका भान न होनेसे वह उस पर विजय प्राप्त करने के कोई प्रयास नहीं करता । पूर्णिमा पर चंद्रमा की तुलना में अमावस्या पर चंद्रमा का प्रभाव अल्प दृष्टिगत होता है । तथापि अमावस्या के चंद्रमा का प्रभाव अधिक प्रतिकूल (नकारात्मक) होता है । इसका कारण यह है कि अमावस्या के दिन मनुष्य पर चंद्रमा का प्रभाव पूर्णिमा के चंद्र की तुलना में अधिक सूक्ष्मस्तरीय होता है ।
पूर्णिमा के दिन विचारों में होने वाली वृद्धि का भान रहता है । जो साधक आध्यात्मिक साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार बहुत साधना करते हैं, वे मुख्यतः स्वभाव से सात्त्विक होते हैं । परिणामस्वरूप साधारण मनुष्य की तुलना में (जो स्वयं रज-तमयुक्त होता है), उसकी तुलना में वे वातावरण के रज-तमके प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं ।
साधकों के लिए अच्छी बात यह है कि उन्हें अनिष्ट शक्तियों से बचने की ईश्वर द्वारा सुविधा प्राप्त होती है । मानव स्वभाव पर चंद्रमा के प्रभाव के प्रमाण जुटाने में वर्तमान ब्यौरे क्यों असफल रहे ? कुछ आरंभिक चिकित्सकीय / मनोवैज्ञानिक अध्ययन मनुष्य पर चंद्रमा के प्रभाव का उल्लेख करते हैं । परंतु कुछ वर्ष पूर्व किया अध्ययन ऐसा संबंध दर्शाने में असफल रहा । इसका कारण यह है कि गत दशक से विश्व के कुल रज-तम में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है । रज-तम में हुई इस वृद्धि का प्राथमिक कारण है, अनिष्ट शक्तियों का (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) सुनियोजन । रज-तम की इस कुल वृद्धि से विश्व की सर्व विषयवस्तएं व्यापकरूप में प्रभावित हुई हैं । इन प्रभावों की व्याप्ति व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक व्याधि में वृद्धि से लेकर पारिवारिक कलह तक , आतंकवाद से लेकर प्राकृतिक आपदाआें तक फैली हैं ।
अमावस्या और पूर्णिमा पर चंद्रमा आज भी प्रभावित कर रहा है; किंतु मनुष्यजाति द्वारा पूरे माह में हो रहे कुल विलक्षण आचरण के कारण सांख्यिकी अध्ययन में उनकी ओर ध्यान नहीं जाता । हानिप्रद परिणामों से सुरक्षा पाने के लिए हम क्या कर सकते हैं ? अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के हानिकारी प्रभाव आध्यात्मिक कारणों से होते हैं, इसलिए केवल आध्यात्मिक उपचार अथवा साधना ही इनसे बचने में सहायक हो सकती है ।
वैश्विक स्तर पर इन दिनों में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने अथवा क्रय-विक्रय करने से बचना चाहिए; क्योंकि अनिष्ट शक्तियां इन माध्यमों से अपना प्रभाव डाल सकती हैं । पूर्णिमा और अमावस्या के २ दिन पहले तथा २ दिन पश्चात आध्यात्मिक साधना में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करें । अपने पंथ अथवा धर्म के अनुसार देवताका नामजप करना लाभदायी होता है और आध्यात्मिक सुरक्षा के लिए श्री गुरु प्रदत्त का जप करें ।
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