श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-
Mystic Power- मार्कण्डेय ऋषि अल्पायु थे। उन्होंने भगवान् शिव की उपासना की और शिव के अनुग्रह से चिंरजीवी हो गए, जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त किया। यह संभव हुआ जब उन्होंने अपनी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत कर आत्मचेतना को हृदयस्थ अनाहतचक्र में, महर्लोक में, स्थित किया, महर्षि उपाधि धारण की। इसी विधा का वर्णन मार्कण्डेय पुराण में संग्रहित है।
श्री दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण का ही एक अंश है। इसमें अर्गलास्तोत्रम् दिया गया है, कि द्वार पर जैसे अर्गला लगाई जाती है, दो कपाटों को बंद करने के लिए, वैसे ही मोक्ष/ चैतन्य तत्त्व के द्वार पर अर्गला लगी हुई है। यह स्तोत्र उस अर्गला को हटा कर सांसारिक विषयों के बंधनों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
- दो कपाट हैं इड़ा तथा पिंगला नाड़ियां, जिन्हें जाग्रत कर, सम करने से सुषुम्ना नाड़ी पर लगी अर्गला हट जाती है तथा मणिपुर - अनाहत चक्र के कुल मार्ग का द्वार खुल जाता है।
इस स्तोत्र में एक श्लोक (24) बहुत महत्वपूर्ण है,
"पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीदुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम् ॥'
आद्यशंकराचार्य योग के, संन्यास के शिरोमणि हैं। उन्होंने अपनी अप्रतिम रचना निर्वाण षटकम् में उद्घोष किया,
"चिदानंद रूप: शिवोऽहं शिवोऽहं" !!
यह शिवत्व बोध है, कालातीत है, चैतन्य तत्त्व है, आनंदमय है, शिव की मनोरमां पत्नीं कुंडलिनी शक्ति है। यह कुंडलिनी शक्ति शिव स्वरूप योगी के सर्वांग में लिपटी रहती है, आनंद स्वरूप है। वृत्तिविहीन निर्मल चित्त सच्चिदानंद है, अर्थात्
#सत्_चित्_आनंद,
यही उद्देश्य है मनोरमां पत्नीं की अभिलाषा का, कि हे देवी, तुम्हारे अनेक रूप हैं, जिनमें से अपने मनोरमं रूप को आप मुझे प्रदान करें।
मनोरमं, पदच्छेद है, मनु + अरम + अनुस्वर/बिन्दु
- मनु है मन:, विसर्ग है कर्म प्रधान,
"मन एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयो:"
( अमृतबिन्दु उपनिषद् 6.34 )
- अरम, पदच्छेद है, अ + र + म
- अ है ब्रह्मा ग्रंथि नाभि में, सृष्टि के प्राकट्य के संदर्भ में,
- र है अग्नि तत्त्व नाभिस्थ मणिपुर चक्र का कूट बीज वर्ण,
- म है महत् तत्त्व, हृदयस्थ अनाहतचक्र,
- बिन्दु है ऊर्ध्व शुक्राणु, अनाहत चक्र, बाण लिंग से प्रकट।
अर्थ हुआ,
ऊर्ध्वरेता साधक पुरुष साधना रूपी कर्म करता है, आकांक्षा करता है देवी के मोक्षदायिनी स्वरूप की, ऊर्ध्व बिन्दु की, जिसका प्राकट्य अनाहत चक्र में होता है।
- पत्नीं का अर्थ है जो शक्ति स्वरूप में पुरुष की अर्धांगिनी हो, अर्थात् अनाहत चक्र में, ऊर्ध्व शुक्राणु बिन्दु में। यहां बिन्दु में स्थित कुंडलिनी शक्ति के लिए कहा गया है, "पतनात त्रायते", अर्थात् जो पतन से तारे।
- देहि का अर्थ है देह् में स्थित मनोरमां शक्ति से कामना, इकार, पूर्ति के लिए,
-
- ह् है विसर्ग [ विसर्ग: कर्म संज्ञित: / गीता 8.3 ], कर्म के संदर्भ में तथा इ है कामना।
- "मनोवृत्तानुसारिणीम्", मन: + अवृत्त + अनुसार् + इणीम्
अर्थात्,
मेरे मन में उत्पन्न हुई कामना/वृत्ति उस कालखंड तक प्रयोजित (अवृत्त ) रहे जगत् में, जितने काल की मैंने बिन्दु में धारणा (इणीम् ) की है।
- "तारिणीदुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम्",
-
- मेरी वृत्ति स्वयं के लिए, हे देवी, इस संसार रूपी दुर्ग, भवसागर से, मुझे तारने वाली हो, कुलमार्ग के अवलंबन से उद्भव हो। उद्भवाम् द्वितीया विभक्ति में एकवचन है।
यह श्लोक अर्गलास्तोत्रम् के अंत में है, जिसमें ऊर्ध्वरेता सक्षम ध्यान-योगी पुरुष साधक कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर हृदयस्थ अनाहतचक्र में, बिन्दु में, स्थिर करता है, जहां यमराज का प्रवेश संभव नहीं है, जीवन्मुक्ति उपलब्ध है।
इस ऊर्ध्व बिन्दु/शुक्राणु में देवी की अचिंत्य जगज्जननी शक्ति निहित है, जिसके उपयोग से जगत् में जीव व पदार्थ प्रकट, संचालन तथा लोप करने की विद्या/सिद्धि उपलब्ध होती है सक्षम ध्यान-योगी को।
Comments are not available.