महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज-
काल एवं महाकाल स्वरूपतः एक हैं फिर भी दोनों में पार्थक्य है। जगत् परिणाम के मूल में कालशक्ति क्रियारत है। प्रकृति परिणामशीला है. अतः सृष्टि की धारा द्वारा नियंत्रित है। पातंजल दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि प्रकृति परिणामिनी है। परिणाम दो प्रकार के हैं सदृश एवं विसदृश । गुणत्रय की
साम्यावस्था प्रकृति का निजस्वरूप है। वैषम्य से सृष्टि का उदय होता है। लय के समय तीनों गुण अपने-अपने रूप में लीन होकर सदृश परिणाम को प्राप्त होते हैं। प्रकृति का परिणाम स्वभावसिद्ध है तथापि गुणों का पाककर्म काल-सापेक्ष है। गुणपाक के अभाव में विसदृश परिणाम अथवा तत्त्वान्तर परिणाम घटित नहीं होता। यदि तत्त्वान्तर परिणाम की संभावना नहीं हो, वैसी स्थिति में सृष्टि का उदय असम्भव होगा। सृष्टि के मूल में कर्म-संस्कार अवश्य है तथापि अपक्व संस्कार से सृष्टि नहीं हो सकती। इसके लिये काल अपेक्षित है। महाभारत में उक्ति है "कालः पचति भूतानि" ।
तत्त्वान्तर परिणाम तीन प्रकार के हैं-धर्म, लक्षण एवं अवस्था ।
प्रकृति है धर्मी। वह जब धर्म रूप में परिणत होती है, तब यह होता है प्रथम परिणाम ।
तत्पश्चात काल रूपी लक्षण परिणाम आ जाता है। इसुके तीन लक्षण हैं-अतीत, अनागत एवं वर्तमान । इसे त्रिकाल कहा जाता है। इस प्रकार धर्म सर्वप्रथम लक्षण परिणाम में प्रवेश करता है। तत्पश्चात् अनागत धर्मं प्रवेश करता है वर्तमान रूप की परिणति में। यह परिणति होती है करण व्यापार द्वारा । अकृत्रिम रूप में इसे स्त्रभाव कहते हैं।
अनागत अवस्था में जो सत्ता वर्तमान रहती है वर्तमान अवस्था में वहीं सत्ता रह जाती है। तथापि यह सत्ता अनागत अवस्था में अव्यक्त रहती है। कारणादि अभिव्यंजक द्वारा अभिव्यंजित होने पर वह वर्तमान रूप में स्थितिलाम करती है। यहाँ यह स्मरणीय है कि कारण व्यापार अनागत सत्ता को अभिव्यक्त कर वर्तमान रूप में परिणति प्राप्त अवश्य करता है किन्तु वह मात्र धर्मसत्ता को अव्यक्त अवस्था से व्यक्त नहीं कर पाता ।
धर्म परिणामकाल में जब तक काल से युक्त नहीं होगा, तब तक वह अनागत लक्षण परिणामरूप नहीं हो सकता। लक्षण परिणामावधि वस्तु की व्यापक सत्ता है। वह परिणामशीला होने पर भी जब तक अव्यक्त है, तब तक उसमें क्षणिक परिणाम का उदय नहीं होता। वर्तमान लक्षण में प्रतिक्षण परिणाम संभव होता है। यह है अवस्थापरिणाम ।
अतीत लक्षण में क्षणिक परिणाम का सन्धान नहीं मिलता । कालक्रम का अवलम्ब लेकर परिणाम अपना कार्य सम्पादित करता है। इस क्रम के द्वारा पूर्वापर का ज्ञान घटित होता है। वास्तव में यह क्रम क्षणक्रम ही है। योगी के अतिरिक्त इसे कोई समझ नहीं सकता। योगज दृष्टि से काल है बौद्धपदार्थ । बुद्धि के बाहर काल नहीं है, वहाँ क्रम है। क्षण क्रम के अनुसार काल में परिणाम व्याप्त होता है। क्षण और उसके ऊपर योगीगणविवेकज ज्ञान प्राप्त करते हैं। विवेरुज ज्ञान विवेकज्ञान नहीं है। यह है अनौपदे-शिक. प्रातिमज्ञान । इस प्रातिमन्नान का उदय होने पर त्रिकाल का पूर्ण ज्ञान प्रकाश पाता है, जिसमें कोई क्रम नहीं है। यह शब्दजनित ज्ञान नहीं है। अतः इसमें क्रम का प्रश्न नहीं उठता ।