श्री अरुण कुमार उपाध्याय ( धर्मज्ञ )-
एक कथा प्रचलित है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने पुरी के श्री जगन्नाथ मन्दिर में बिना हाथ पैर की मूर्ति के जगन्नाथ को प्रणाम नहीं किया था। पर रामचरितमानस में उनको निर्गुण-सगुण का समन्वय, ब्रह्म रूप, दारु ब्रह्म आदि रूप में वर्णन किया है तथा राम को उनका अवतार कहा है। बालकाण्ड की कुछ पंक्तियां तथा उस अर्थ के कुछ श्लोक उद्धृत हैं।
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
दो.-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥२३॥
(स्कन्द पुराण-वैष्णव उत्कल खण्ड,अध्याय ४-
देवासुर मनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
तिरश्चामपि भो विप्रास्तस्मिन्दारुमये हरौ॥७१॥
सर्वात्मभूते वसति चित्तं सर्वसुखावहे।
उपजीवन्त्यस्य सुखं यस्याऽनन्य स्वरूपिणः॥७२॥
ब्रह्मणः श्रुतिवागाहेत्येदत्राऽनुभूयते।
द्यति संसार दुःखानि ददाति सुखमव्ययम्॥७३॥
तस्माद्दारुमयं ब्रह्म वेदान्तेषु प्रगीयते।
नहि काष्ठमयी मोक्षं ददाति प्रतिमा क्वचित्॥७४॥
अध्याय २८-आद्यामूर्तिर्भगवतो नारसिंहाकृतिर्नृप।
नारायणेन प्रथिता मदनुग्रहतस्त्वयि।३८॥
दारवी मूर्तिरेषेति प्रतिमाबुद्धिरत्र वै।
मा भूत्ते नृपशार्दूल परब्रह्माकृतिस्त्वियम्॥३९॥
खण्डनात् सर्व दुःखानां अखण्डानन्द दानतः।
स्वभावाद्दारुरेषो हि परं ब्रह्माभिधीयते॥४०॥
इत्थं दारुमयो देवश्चतुर्वेदानुस्रतः।
स्रष्टा स जागतां तस्मादात्मानञ्चापिसृष्टवान्॥४१॥)
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥११८॥
(अपाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥
श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/१९)
(प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोक नमस्कृतम्।
कौसल्याऽजनयद्रामं दिव्यलक्षण संयुतम्॥
रामायण, बालकाण्ड, १८/१०)
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